समय की करवट (भाग १४)– ‘मास मेंटॅलिटी’ अर्थात् समूह का मानसशास्त्र

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

जिसके पास संस्कृति की रक्षा की ताकत है और जिससे संस्कृतिरक्षा की उम्मीद की जा सकती है, ऐसे भारतीय मध्यमवर्ग के बारे में हमने देखा। आज तक ‘पूअर मिड्ल क्लास’ ऐसे तानों से जिसे संबोधित किया गया, उस मध्यमवर्गीय की ओर, उसे ताने मारनेवाले ही किस तरह अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए उम्मीद से देख रहे हैं, यह हमने देखा और इस कारण, ‘मुझमें कुछ कमी है’ इस हीनगंड को मन से निकालकर मध्यमवर्गीय ने अपनी ताकत को पहचानना सीखना चाहिए, यह भी हमने देखा।

आज थोड़े अलग विषय की ओर मुड़ते हैं। मानसशास्त्र (सायकॉलॉजी) में ‘मास मेंटॅलिटी’ अर्थात् ‘समूह का मानसशास्त्र’ यह एक विभाग है। व्यक्ति का मानसशास्त्र और समूह का मानसशास्त्र इनमें फ़र्क़ हो सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि व्यक्ति जब अकेला होता है, तब उसके दिमाग़ में चलनेवाली विचारप्रक्रिया और जब वह समूह का भाग होता है, तब उसके दिमाग़ में चलनेवाली विचारप्रक्रिया इनमें भी फ़र्क़ हो सकता है….नहीं, कई बार वह फ़र्क़ रहता ही है। यह ‘मास मेंटॅलिटी’ कई बार समाज को ‘झुण्ड़’ के रूप में जीने के लिए कारणीभूत होती है। लेकिन उसे यदि उचित दिशा में मोड़ा गया, तो यही ‘मास मेंटॅलिटी’ कभी कभी बड़े चमत्कार करवा सकती है। हाल ही में हमने इजिप्त और लिबिया के उदाहरण देखे। तानाशाहों के सामने आँख उठाकर देखने की भी जिन लोगों की हिम्मत नहीं थी, उन सबको – अपनी भावनाओं को ज़ाहिर करने के लिए जब ‘व्यासपीठ’ प्राप्त हुआ; यानी – ‘मेरे ही समाज के अन्य लोगों की भी इस बारे में मेरे जैसी ही भावनाएँ हैं’ यह ज्ञात हुआ और वे जब ‘समूह’ के तौर पर एकत्रित हुए, तब उन्होंने अभूतपूर्व ‘चमत्कार’ कर दिखाया।

इससे पहले भला यह क्यों नहीं हो सका होगा?

क्योंकि आज तक समूह में एकत्रित न आये होने के कारण, अर्थात् व्यक्तिगत स्तर पर चाहे किसी पर कितना भी ग़ुस्सा क्यों न आया हो, मग़र फिर भी वे इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते थे कि शायद वह तानाशाह और कुल मिलाकर उसकी यंत्रणा, इनकी तुलना में ‘मैं ‘अ‍ॅज अ‍ॅन इन्डिव्हिज्युअल’ ना के बराबर हूँ और वह यंत्रणा मुझे रौंद सकती है’।

इससे पहले जब उनमें से कोई व्यक्ति, समझो सड़क पर अकेला चल रहा है और उसे उस तानाशाह के बारे में चाहे कितना भी ग़ुस्सा क्यों न आया हो, मग़र फिर भी उसे उस तानाशाह की फोटो या प्रतिमा ज़ाहिर रूप में जलाने की हिम्मत नहीं हुई होगी। मग़र वही व्यक्ति जब समूह का भाग बनता है, तब वह यही कृत्य करने से नहीं हिचकिचायेगा।

Photo Courtesy: www.wisegeek.com

अब जब ये सारे लोग समूह में एकत्रित हुए, तब वैसे देखा जाये तो उस समूह का हर एक व्यक्ति यह वही पुराना ‘इंडिविज्युअल’ व्यक्ति ही था। समूह में रहने से उसकी व्यक्तिगत ताकत में, क्षमता में ऐसा कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा था। लेकिन ‘फ़लाना फ़लाना’ मत रहनेवाला मैं केवल अकेला नहीं हूँ, बल्कि मेरे जैसे और भी लोग हैं, इस भावना से मन को सु़कून मिलता है। कोई इन्सान आम तौर पर जो बातें व्यक्तिशः करने की हिम्मत शायद न जुटा पाता, ऐसी कई बातें, जब वह समूह का भाग होता है, तब आसानी से करता है।

यही है वह समूह का मानसशास्त्र – ‘मास मेंटॅलिटी’!

यह मास मेंटॅलिटी जब उचित दिशा में इस्तेमाल की जाती है, तब वह चमत्कार कर दिखाती है। भारत का स्वतंत्रतासंग्राम यह इस ‘मास मेंटॅलिटी’ का उचित रूप में इस्तेमाल किया जाने का एकदम बेहतरीन उदाहरण है।

जब हमारा अधिकांश समाज उन्नीसवीं सदी में, पेशवाई के अस्त के बाद निद्रिस्त अवस्था में भेड़-बक़रियों के झुँड़ की तरह रहने लगा था; पूजन-अर्चन के कर्मकांड का आड़ंबर मचा रहा था; कुछ समय पहले परिचय हुए पश्‍चिमी भोगवाद के मार्ग से जाने का सपना मन में जगा रहा था; उसी समय अँग्रेज़ों ने चालाक़ी से भारत में एक एक कर – साम, दाम, दंड, भेद आदि सभी मार्गों का अवलंबन कर – सारी रियासतें, राज्यसत्ताएँ निगल लीं। लेकिन तब तक – ‘दो व़क्त की रोटी मिल रही है, तो फिर हम पर राज चाहे किसी का भी हो, हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है’ यह ‘गुलामी मानसिकता’ (स्लेव्ह मेंटॅलिटी) हमारी हो चुकी थी। हाँ, यह बात अलग है, जब दिनरात मेहनत करके भी यदि किसी को पेट भरकर खाना भी नसीब न होता हो। उनके बारे में कुछ भी कहना नहीं है, क्योंकि उनके लिए जीवित रहने के लिए सबसे पहले पेट पालना यही आवश्यक है। पेट भरने के बाद ही बाकी सारीं बातें हो सकती हैं।

लेकिन जिनके खाने-पीने के लाले नहीं पड़े थे, जो सुखवस्तु-सधन घर के थे, उन्होंने जब अँग्रेज़परस्त शिक्षापद्धति के कारण ऐसा विचार करना शुरू किया, तब इस बहकी ‘मास मेंटॅलिटी’ के कारण हमारे समाज के अग्रणी बहुत ही बेचैन हो उठे थे। यह ‘मास मेंटॅलिटी’ सबसे पहले बदल देनी चाहिए, यह बात वे जान चुके थे।

इस समाज को जागृत करने का महत्कार्य सबसे पहले लोकमान्य टिळकजी जैसे महान देशभक्त नेता ने किया। ज्वलंत देशभक्ति से ठुसठुसकर भरी केवल अपनी एक समर्थ लेखनी के बल पर उन्होंने इस निद्रिस्त समाज का रूपांतरण; स्वतंत्रतासंग्राम में जोशपूर्वक सहभागी होना चाहनेवाले देशभक्त समाज में किया। लोगों के बीच आपस में वैचारिक लेनदेन हों, इसलिए ‘व्यासपीठ’ (मंच) के तौर पर सार्वजनिक गणेशोत्सव, शिवजयंति उत्सव शुरू किये, क्योंकि ‘समूह का मानसशास्त्र’ अर्थात् ‘मास मेंटॅलिटी’ इस बात को वे भली-भाँति जानते थे इसलिए। (लोकमान्य टिळकजी ने तो ‘समूह का मानसशास्त्र’ इस शीर्षक के तहत एक निबंध भी लिखा था; इतना उन्होंने इस बात का अध्ययन करके उसे उचित दिशा में मोड़ा।)

आज भी वैचारिक आदानप्रदान की दृष्टि से, अख़बारों में प्रकाशित किया जानेवाला वाचकों का पत्रव्यवहार यह एक तरह से जनमत का अँदाज़ा दे सकनेवाला व्यासपीठ ही होता है। जो किसी विशिष्ट घटना के बारे में समाज में क्या भावनाएँ हैं, इसका अँदाज़ा देनेवाला, उचित दिशा में ‘मास मेंटॅलिटी’ को तैयार करनेवाला सुंदर पन्ना साबित हो सकता है। लेकिन उसके लिए वाचकों को चाहिए कि वे किसी भी घटना के बारे में अपनी क्या भावनाएँ हैं, इस बारे में तुरन्त पत्र लिखें।

आज यहाँ पर हम यह सब क्यों देख रहे हैं? क्योंकि विदेशी राष्ट्र और कंपनियाँ भारतीय मध्यमवर्ग को – ‘हमारे उत्पादन ख़रीदने की ताकत रहनेवाले एक समूह’ के रूप में देख रहे हैं। उन्हें हमारे ‘इन्डिव्हिज्युअल’ – व्यक्तिगत मतों से कुछ भी लेनादेना नहीं है। उसीके साथ, मानव की तुलना करने की प्रवृत्ति यह समूह में अधिक ही प्रखरता से व्यक्त होती है, इस बात को ये बिज़नेसमेन भली-भाँति जानते हैं। हम हमारे विभिन्न ग्रुप्स में भी देखते हैं कि ‘उसके पास फ़लाना मोबाईल है, फिर वह मेरे पास भी होना चाहिए’ ऐसी बेसिक तुलना होती ही रहती है और कई बार इसी प्रवृत्ति का नाजायज़ फ़ायदा उठाया जाता है।

इसलिए, ‘हम ‘व्यक्ति’ के तौर पर कैसे हैं’ इससे भी ज़्यादा, ‘हम ‘समूह’ के तौर पर कैसे हैं और हमें कैसे होना चाहिए’ इसका अध्ययन करना ज़रूरी है।

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