समय की करवट (भाग २५) – ‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’

हम १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक  हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर

आज के बदलते हुए दौर के अनुसार, एक अनुशासनबद्ध समूह के रूप में दुनिया का सामना करने की ज़रूरत युरोप महाद्वीप के देशों को महसूस हो रही है।

आधुनिक मानवी इतिहास में आज तक जो दो विश्‍वयुद्ध हुए, वे युरोप की भूमि पर ही लड़े गये। इस कारण उसकी सर्वाधिक आँच उस महाद्वीप को ही सहनी पड़ी। दूसरे विश्‍वयुद्ध के कारण कई बातें घटित हुईं। सबसे अहम बात यह थी कि ‘बाक़ी दुनिया पर राज करनेवाले’ यह युरोपीय राष्ट्रों की बिरुदावली नामशेष हो गयी और अमरीका एवं सोव्हिएत युनियन इन दो महासत्ताओं का उदय हुआ। उनकी तुलना में हम बहुत ही दुबल बन चुके हैं, इसका एहसास, आपस में कुछ ख़ास दोस्ती न रहनेवाले युरोपीय देशों को हुआ।

पहले विश्‍वयुद्ध के बाद अमरीका युरोपीय देशों में हो रहीं गतिविधियों से थोड़ीबहुत चौकन्ने रूप में अलिप्त रही थी। लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद सोव्हिएत रशिया का ‘महासत्ता’ के तौर पर उदयित होना और उसके ज़रिये, खुले व्यापार के लिए अड़ंगा साबित होनेवाले कम्युनिझम का प्रसार होना, इस बात से अमरीका बेचैन हो रही थी।

यह हम युरोपीय गतिविधियों से अलिप्त रहें, तो सोव्हिएत रशिया वहाँ घुस जायेगा और वहाँ पर कम्युनिझम का फैलाव होगा, जिस कारण स्वाभाविक रूप में खुला व्यापार नहीं हो सकेगा, इस बात पर ग़ौर करके अमरीका ने भी पहले विश्‍वयुद्धपश्‍चात्काल की तरह युरोपीय गतिविधियों से अलिप्त न रहते हुए; ‘पहले नंबर की जागतिक महासत्ता’ इस नये से प्राप्त हुए अपने स्थान का सम्मान करते हुए धीरे धीरे युरोपीय गतिविधियों में हस्तक्षेप बढ़ाने की शुरुआत की।

इसकी शुरुआत हुई, सन १९४६ में सोव्हिएत रशिया स्थित अमरिकी राजदूत जॉन केनन के एक लंबेचौड़े टेलिग्राम से (यह इतिहास में ‘लाँग टेलिग्राम’ के नाम से ही मशहूर हुआ)! उसमें – ‘सोव्हिएत रशिया अपनी ताकत एवं भौगोलिक सीमाएँ बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा होकर, उसे कदम कदम पर रोकना आवश्यक है और यह केवल दीर्घकालीन प्रतिकार से ही किया जा सकता है’ ऐसी चेतावनीस्वरूप जानकारी दी होकर, अमरीका को लगनेवाला डर जायज़ होने की पुष्टि ही मानो की गयी थी।

‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’ के प्रणॆता हॅरी ट्रुमन

इस सोव्हिएत आक्रमण को रोकने के लिए अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष हॅरी ट्रुमन ने कदम बढ़ाये। ठीक उसी समय एक और घटना घटित हुई। सन १९२० के दशक में हुए ग्रीस-तुर्कस्तान युद्ध के बाद, अर्थव्यवस्था डाँवाडोल हुए ग्रीस को तब से ब्रिटन से आर्थिक सहायता मिल रही थी और ग्रीस उस अर्थसहायता के बलबूते पर ही टिका हुआ था। दूसरे विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात् दिवाला निकलने के कगार पर आये ब्रिटन ने अचानक सन १९४७ की शुरुआत में, इसके बाद ग्रीस को वित्तसहायता करना हमें मुमक़िन नहीं होगा, ऐसा कहते हुए, अमरीका को ग्रीस की सहायता करने की विनति की।

तब तक ब्रिटन के समर्थन पर होनेवाली ग्रीस सरकार और ग्रीस कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य इनमें चल रही अनबन बहुत ही बढ़ चुकी थी। अब चुप बैठें, तो ग्रीस में ‘ग्रीस कम्युनिस्ट पार्टी’ के ज़रिये सोव्हिएत युनियन का प्रवेश होगा और आगे चलकर सोव्हिएत रशिया इस तरह पूरे युरोप को ही निगल लेगा, इसका एहसास हुए ट्रुमन ने ‘ग्रीस और तुर्कस्तान ये आर्थिक संकट में फ़ँसे देश ‘आक्रमणकारियों’ के हाथ न लग जायें, इसलिए उन देशों को इस आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए’ अमरिकी काँग्रेस से ४० करोड़ डॉलर्स की वित्तसहायता मंज़ूर करा ली। उसके बाद इस योजना का विस्तार कर, उसे इसी तरह आर्थिक संकट में फ़ँसे युरोप के सभी देशों का लिए लागू करने के लिए अरबों डॉलर्स की वित्तसहायता का विधेयक तत्कालीन अमरिकी गृहसचिव (सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट) जॉर्ज मार्शल ने प्रस्तुत किया। अधिकृत रूप से ‘युरोपिअन रिकव्हरी प्रोग्राम’ यह नाम रहनेवाला यह विधेयक ‘मार्शल प्लॅन’ के नाम से जाना जाता है और ट्रुमन की यह योजना ‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’ के नाम से!

इसे इतने विस्तारपूर्वक बयान करने का कारण यह है कि ‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’ यह, विश्‍वयुद्धों से भी भयंकर ऐसे ‘कोल्ड वॉर’ के लिए अग्रगामी साबित हुआ। उसके पश्‍चात् के ‘कोल्ड वॉर’ के दौर में और उसके बाद के समय में भी, ‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’ यह अमरीका की विदेशनीति का मर्म ही साबित हुआ और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में दुनिया के लगभग सभी देशों का उसके साथ संबंध आया, क्योंकि इसी ‘ट्रुमन डॉक्ट्रिन’ का उपयोग कर अमरीका ने दुनिया के कई देशों को, वित्तसहायता देने के बहाने अपना अंकित कर दिया, वहाँ पर अपने इशारों पर नाचनेवालीं सरकारें बिठायी, खुले व्यापार के बनाने इन देशों के हाथ मरोड़कर उनके मार्केट्स अपने उत्पादनों को खुले करा दिये। लेकिन सोव्हिएत रशिया के प्रभाव में होनेवालीं कम्युनिस्ट सरकारें रहनेवाले पूर्व युरोपीय देशों को सोव्हिएत रशिया ने इस वित्तसहायता का स्वीकार नहीं करने दिया। इस वजह से यह योजना पश्चिम युरोपीय देशों तक ही सीमित रही।

ग्रीस के घटनाक्रम का युरोपीय देशों को एहसास था ही। सोव्हिएत रशियाप्रणित कम्युनिझम अपने देश में प्रवेश न करें इसलिए, आर्थिक संकट में फ़ँसे किसी देश ने अमरीका से वित्तसहायता लेने की वजह से, रशिया के वर्चस्व के डर से हालाँकि वह देश मुक्त तो हो गया; मग़र फिर भी उस देश को अमरीका के इशारे पर ही नाचना पड़ेगा, यह ज़ाहिर था।

इस संभावना को यदि मूलतः ही टालना हो, तो युरोपीय देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत होना आवश्यक था। लेकिन उसके लिए, चरमपंथी राष्ट्रवाद के कारण होनेवाले या किसी अन्य कारणवश होनेवाले आपस के युद्धों को टालना ज़रूरी थी। युरोपीय देशों को एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध करने का मौक़ा ही न मिलें और युरोप के बाहर से किसीने यदि युरोप पर आक्रमण किया, तो उसका प्रतिकार युरोप के सभी देश संघटित और समान रूप में करें इसलिए; इतना ही नहीं, बल्कि वह उन देशों के लिए बंधनकारक हो, इस प्रकार के किसी संगठन का निर्माण करने का विचार कई विचारकों के दिमाग में शुरू हो चुका था। ९ मई १९५० को शुमन ने एक आंतरराष्ट्रीय मंच पर से किये भाषण में इसकी झलक दी ही थी। (इसी कारण ९ मई यह दिन ‘युरोप दिवस’ के रूप में मनाया जाता है)। उसका पहला परिणाम यानी १८ अप्रैल १९५१ को किये गये समझौते को छह युरोपीय राष्ट्रों द्वारा मान्यता दी जाने के बाद २३ जुलाई १९५२ को निर्माण किया गया ‘युरोपियन स्टील अँड कोल कम्युनिटी’ यह संगठन।

नाम में ही दर्शायेनुसार इस संगठन द्वारा, उसके सदस्य राष्ट्रों में हो रहे फ़ौलाद और कोयला इन दो हेवी इंडस्ट्री के उत्पादनों का सुपरव्हिजन किया जानेवाला था। ये ही दो इंडस्ट्रीज् किसलिए? तो उस समय तक युद्धसंसाधननिर्माण में इन्हीं दो इंडस्ट्रीज का प्रायः हिस्सा रहता था, इसलिए! सन १९५४ तक इन दो क्षेत्रों में, सदस्य देशों में चल रहे व्यापार में स्थित सभी अड़ंगे हटाये गये होकर, खुले व्यापार की शुरुआत हुई थी। इस संगठन की सफ़लता के बाद अब उस दिशा में कुछ और कदम उठाने की ज़रूरत निर्माण हुई थी।

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