समय की करवट भाग १८- क्या वाक़ई ऐसा हो सकता है?

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

समय की करवट अनिष्ट दिशा में बदलने में महत्त्वपूर्ण सहभाग रहनेवाली यह झुँड़ की मनोवृत्ति अपने बचपन से की कैसे तैयार होती है, यह भी हमने पीछली बार, एक स्कूल के छात्रों के उदाहरण के ज़रिये देखा। एक स्कूल के अध्यापक ने एक क्लास के बच्चों को कुछ प्रोजेक्ट वर्क और उसे पूरा करने के लिए जो ‘डेडलाईन’ दी और उसके अंदर वह पूरा न होने पर दुगुने प्रोजेक्टवर्क की सज़ा बतायी थी। वह डेडलाईन दूर रहते हुए, नज़दीक आते हुए और पास आने पर छात्रों की मानसिकता में क्या फ़र्क़ पड़ता है और उनकी प्रवृत्ति किस तरह झुँड़ की मानसिकता की ओर मुड़ जाती है, यह हमने देखा। इतने लोगों का प्रोजेक्ट करना अभी बाक़ी है, तो फिर मैं अकेला ही क्यों घबराऊँ, यह झुँड़ की मानसिकता। यहाँ पर एक बात ध्यान में लेनी चाहिए कि पूरी क्लास को हालाँकि प्रोजेक्ट दिया था, मग़र उसे पूरा करने का बंधन अलग अलग रूप में प्रत्येक छात्र पर था, क्योंकि एक एक छात्र मिलाकर ही क्लास बनती है।

उसीमें, आगे चलकर परीक्षा के नज़दीक आने के बाद ही नोट्स की….ख़ासकर होशियार माने जानेवाले छात्रों की नोट्स की कॉपी करना आदि बातें शुरू होती हैं। कहीं से ‘ख़बर’ आ जाती है कि फ़लाना फ़लाना जगह ‘पेपर मिलनेवाले हैं’, फिर दौड़े ही सब उसके पीछे! जो ये बातें दिल से पसन्द नहीं करते, वे भी, केवल अन्य सभी कर रहे हैं, इसलिए ऐसी बातें करने लगते हैं। ‘चार लोग करते हैं इसलिए मुझे भी करना चाहिए’ इस बात की आदत पड़ गयी, तो फिर ऐसे लोगों की स्वतंत्र रूप में विचार करने की हिम्मत ही धीरे धीरे कम होने लगती है।

ऐसे झुँड़ फिर अपने निजी जीवन में संकटों का मुक़ाबला समर्थतापूर्वक शायद ही कर सकते हैं। उलटे, जिन्हें बचपन से, संघशक्ति की बालघुँटी पिलाकर भी, जिनके व्यक्तिगत विकास को भी प्रोत्साहन दिया गया है, वे लोग और ऐसे लोगों का बना समाज कितनी भी बड़ी आपत्ती क्यों न आयें, मग़र डरता नहीं है।

इसीका उत्तम उदाहरण है, जापान में आयी प्रलयंकारी भूकंप एवं महाभयानक त्सुनामी की सह-आपत्ति।

सन १९४५ में दूसरे महायुद्ध के दौरान जापान पर फेंके गये परमाणुबमों के बाद, पुनः राख में से उठकर कुछ ही दशकों में दुनिया के माथे पर पैर जमाकर जापान ने जो आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया, वह अपनी संघशक्ति एवं देशप्रेम के ही बलबूते पर। इन आपत्तियों का उपयोग उन्होंने उनमें रहनेवाले देशप्रेम को, उनमें रहनेवाली संघभावना को जागृत करने के लिए किया। इस कारण, जापान के लिए समय ने कई बार करवट बदलने के बावजूद भी, उस करवट के तले वे कुचले नहीं गये, बल्कि पुनः गर्दन उठाकर खड़े हो सके।

ऐसे जापान पर पुनः यह महाभयंकर सह-आपत्ति (दो आपत्तियाँ एकसाथ) आयी और उनके पूरे के पूरे शहर उसमें बह गये। ये दो आपत्तियाँ हालाँकि आकर जा चुकी हैं, मग़र फिर भी उनके कारण उद्रेक हो चुके, जापान के परमाणुप्रकल्प में से होनेवाला परमाणुक्षरण इस चिंता की टँगी हुई तलवार जापान के सिर पर है ही। लेकिन इससे हार न मानते हुए, प्रशासकीय यंत्रणाओं को आलोचना का लक्ष्य न बनाते हुए वे इस समस्या से जूझ ही रहे हैं, वे उनकी अटूट संघशक्ति के बलबूते पर ही।

इस आपत्ति के दौरान इंटरनेट पर एक मेसेज हर जगह सर्क्युलेट हो रहा था। लेकिन उस मेसेज में दिया विवरण असली था या झूठा, यह मालूम करने के लिए कोई मार्ग नहीं था। दरअसल, यह मेसेज भेजनेवाले ने ही उसे, साशंकता ज़ाहिर करते हुए, उसके साथ निम्न आशय की टिप्पणी लिखकर ही भेजा था कि ‘यह सबकुछ यदि सच है, तो जापान को मेरा सलाम है’। वह मेसेज पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि इस मेसेज में लिखा विवरण सच है या झूठ, जापान के लोगों ने वाक़ई इस तरह का बर्ताव किया था या नहीं; ये सारे मुद्दें यहाँ पर गौण हैं; बल्कि एक आदर्श आचरण का, किसी भी आपत्ति में समाज को कैसे पेश आना चाहिए, यह गाईड करनेवाला आरेखन ही उसमें था, जिसे अपनाने में कोई ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। फिर चाहे वहाँ के लोगों में इस प्रकार का आचरण किया हो या न किया हो, उससे हमें कोई लेनादेना नहीं है; बल्कि किसी भी आपत्ति में किसी भी देश के लोगों ने ‘ऐसा ही’ आचरण करना चाहिए (आयडियल कन्डक्ट), यह अधोरेखित करनेवाला वह मेसेज था। प्रेम, संयम, प्रतिष्ठा, भान, सुव्यवस्था ऐसे हेडिंग्ज के तहत मज़कूर दिया गया था।

मिसाल के तौर पर हम उनमें से कुछ मुद्दों को देखते हैं।

जीवनावश्यक वस्तुओं के लिए लंबी लंबी कतारें होने के बावजूद भी कोई भी दूसरे पर नहीं चिल्लाया, किसी ने भी किसपर गालियाँ नहीं बरसायीं, ‘मुझे मिलेगा कि नहीं’ इस विचार से दूसरे को धक्का मारते हुए कतार तोड़कर आगे घुसने की कोशिश किसी ने भी नहीं की।

प्रेम : पूरे के पूरे घर बह जाने के कारण खाने-पीने की चीज़ों की कमी उत्पन्न हुई। मग़र वहाँ के रेस्टॉरंट्स ने, इसका नाजायज़ फ़ायदा उठाकर रेट बढ़ाने के बजाय उल्टे कम किये। बलवानों ने दुर्बलों का ख़याल रखा।

संयम : इस महाभयानक आपत्ति के कारण जापानी आदमी की पूरी दुनिया उजड़ जाने के बाद भी, अतीव दुख से छाती पीटकर रो रोकर बेहाल होनेवाले एक भी जापानी आदमी की तस्वीर मीड़िया के ज़रिये दुनिया के सामने नहीं आयी।

प्रतिष्ठा : इस आपत्ति के दौरान भी जापानी नागरिकों ने एक-दूसरे की प्रतिष्ठा का खयाल रखा। अनाज-धान के लिए लंबी लंबी कतारें होने के बावजूद भी कोई भी दूसरे पर नहीं चिल्लाया, किसी ने भी किसपर गालियाँ नहीं बरसायीं, ‘मुझे मिलेगा कि नहीं’ यह विचार कर दूसरे को धक्का मारते हुए कतार तोड़कर आगे घुसने की कोशिश किसी ने भी नहीं की।

भान : यह पूरे देश पर आया संकट है, यहाँ मेरे साथ साथ बाक़ी लोगों को भी उसकी ज़रूरत की चीज़ें मिलनी चाहिए, यह भान रखते हुए किसी ने भी ज़रूरत से ज़्यादा सामान की खरीदारी नहीं की, जमा करके नहीं रखा।

सुव्यवस्था : अन्यथा इस प्रकार के संकट में चोरी डकैती जैसी बातें बड़े पैमाने पर होती हैं, लेकिन यहाँ एक भी दूकान नहीं लूटी गयी। यातायात भी अनुशासनपूर्वक शुरू थी।

त्याग : परमाणुप्रकल्प के लगभग पच्चास कर्मचारियों ने अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भाग जाने के बजाय, उल्टे जान की बाज़ी लगाकर, अपनी सेहत पर इसका बुरा असर पड़ सकता है यह जानते हुए भी, परमाणुभट्टी को शांत करने के लिए समुद्र का पानी लाने का काम अविरत रूप से किया।

एहसास : एक दूकान में बिजली चली गयी, तब दूकान में रहनेवाले ग्राहकों ने शांति से, सभी चीजें जिस रॅक से निकाली थीं, उसी रॅक पर वापस रख दीं और वे दूकान के बाहर आकर खड़े हो गये।

इस तरह की बातें रहनेवाला वह मेसेज जब पढ़ा, तब लगा की वाक़ई, एक समाज के रूप में जीना चाहनेवाले हर समूह का आचरण ऐसा ही होना चाहिए। ये बातें तो केवल प्रातिनिधिक स्वरूप की थीं। पूरे समाज के संपूर्ण जीवन में ही यदि इस तरह की – संयम, त्याग, प्रेम आदि बातें दिखायी दें, तो जल्द ही उस समाज का रूपांतरण एक शिस्तबद्ध समूह में होगा। उस समाज के लिए ‘समय की करवट’ कभी भी अनिष्ट नहीं होगी और यदि होगी भी, तो वह बहुत समय तक नहीं टिकेगी।

मेसेज भेजनेवाले ने ‘यह यदि सच हो तो’ ऐसा आशंका ज़ाहिर की थी और एक तरफ़ से वह सही भी है। आज के कलियुग में, जहाँ महज़ स्वार्थ के लिए किसी का भी गला काटने के लिए कई बार लोग झिझकते नहीं, वहाँ क्या ऐसा घटित हो सकता है? यह विचार मन में उठना स्वाभाविक ही है।

लेकिन मुझे लगता है कि वहाँ पर ये बातें वाक़ई घटित हुई थीं या नहीं, इसपर माथापच्ची करने के बजाय, इस मेसेज में लिखीं इन प्रातिनिधिक बातों की ओर, ‘एक आदर्श समाज के लोगों का आचरण’ इस दृष्टि से देखते हुए, उसमें बतायेनुसार अपना आचरण सुधारने की कोशिश करना; यही हमें उस आदर्श जीवनपद्धति तक – ‘रामराज्य’ तक ले जायेगा। जीवन में रामराज्य आने के लिए नागरिक भी मर्यादापुरुषोत्तम-एकवचनी श्रीराम से और मुख्य रूप में उनके गुणों से प्रेम करनेवाले, उन्हें आदर्श माननेवाले ‘सत्य-आग्रही’ होने चाहिए, तभी वहाँ का समाज ‘झुँड़’ न रहते हुए एक अनुशासनबद्ध समूह के रूप में जीवन के सभी क्षेत्रों में सफल होता है, है कि नहीं?

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