समय की करवट (भाग ४) – ‘हरी पुत्तर’

हमारे देश पर डेढ़सौ साल शासन करते हुए अँग्रेज़ों ने जो फूट के बीज हमारे बीच बोये थे, उनका, अँग्रेज़ यहाँ से चले जाने तक वृक्ष बन चुका था।samay-ki-karvat-title-blockइसीलिए हमारे देश को बँटवारे का दुख सहना पड़ा। अब आज़ादी पाकर साठ से भी अधिक साल बीत चुके हैं। लेकिन वह बँटवारा बहुत ही छोटा प्रतीत हों, ऐसा बँटवारा हमारे देश को विभाजित करने की कगार पर है – ‘इंडिया बनाम भारत’ यही है वह बँटवारा।

इनमें से ‘इंडिया’ का ब्योरा हमने संक्षेप में लिया। अब जरा ‘भारत’ की ओर मुड़ते हैं।

यह ‘भारत’ छः लाख से भी अधिक देहातों से बना है और गत साठ साल में उनकी स्थिति में कुछ ख़ास फर्क़ नहीं पड़ा है। यदि उदाहरण ही देना है, तो सन १९५९ में हमारे देश में जब सर्वप्रथम दूरदर्शन शुरू हुआ, तब हमारे दीवानखाने में परदे पर हलते हुए चित्र देखकर हम जितने अचंभित हुए होंगे, उतना अचंभित होना भी, आज साठ साल के बाद भी इन देहातों के कइयों को नसीब नहीं हुआ है; अर्थात् कई देहातों में टीव्ही अभी तक नहीं पहुँच पाया है। जहाँ हररोज़ के पीने के पानी के लिए कई मील पैदल जाना पड़ता है, वहाँ टीव्ही वगैरा बातें तो कल्पना से भी परे हैं, फिर उसे देखकर अचंभित होना तो दूर की ही बात है। नहीं, विकास का एक एक मुक़ाम हासिल करते जा रहे स्वतंत्र भारत में ‘अन्यों की स्थिति और अपनी स्थिति’ इनकी तुलना करके ही वे इतने और हमेशा के लिए अचंभित हो चुके होंगे कि अन्य किसी भी बात से अचंभित होने की उन्हें ज़रूरत ही नहीं।

अमिरी-नवअमिरी, उच्चशिक्षितता, तथाकथित (सो-कॉल्ड) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जीवनावश्यक वस्तुओं की विपुलता इनके अतिरेक के कारण अपनी चौखट के बाहर की दुनिया के लिए संवेदना खो चुका ‘इंडिया’; और ग़रीबी, निरक्षरता, अंधश्रद्धा, व्यसनाधीनता, अकाल इन संकटों से जूझते जूझते संवेदना शुष्क हो चुका ‘भारत’; इनका मेल बिठाने जाओ, तो भी बैठता नहीं।

शहरों में या तो लोग सोने की थाली में खाना खाते हैं या फ़िर वह सोने की थाली पाने के लिए ही सारे क्रियाकलाप करते हैं। साधनों की विपुलता, उच्चशिक्षितता और स्वाभाविक रूप में परिश्रम इनके ज़रिये वे उन्हें मनचाहा सबकुछ हासिल कर ही लेते हैं; लेकिन जिस पल वे अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं, उसी पल से अपने ग़रीब भूतकाल से नाता तोड़ देना चाहते हैं – फ़िर पहले बिलकुल सीधेसादे मध्यमवर्गीय ग़रीब घर का ‘हरि पुत्तर’ एकदम अँग्रेज़परस्त ‘हॅरी पॉटर’ बन जाता है। पहले के ‘हरि पुत्तर’ से नाता तोड़ देना चाहता है। यहाँ पर कम से कम ‘इंडिया’ के (शहर के) ‘हरि’ का ‘हॅरी’ बन तो सकता है, लेकिन ग्रामीण भारत में तो उसकी भी गुंजाईश नहीं है। उसके लिए जो संसाधन, जो अवसर लगते हैं, वे ग्रामीण ‘हरि’ के लिए उपलब्ध ही नहीं हैं; किंबहुना अपनी किमान (मिनिमम) ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उसे इतने सारे प्रचण्ड परिश्रम करने पड़ते हैं, उसके अलावा अन्य कुछ इच्छाएँ रखने के लिए उसके जीवन में जगह ही नहीं है।

हॅरी के पास लेटेस्ट ब्रँडेड़ मोबाईल है, चमकती कार है, ब्रँडेड कपड़े, पर्फ्युम्स हैं; हरि के पास क्या है?

एक वक़्त की रोटी पाने के लिए भी का़फ़ी सारे परिश्रम, हररोज़ धोकर पहनने पड़नेवाले वही कपड़ें, पसीने का पर्फ्युम। (यह ‘इतना सारा’ रहने के कारण शायद वह उस ‘दीवार’ सिनेमा की तरह ‘मेरे पास माँ है’ यह बोलना भूल भी गया होगा)।

‘हरी’ यह ‘हॅरी’ का ही भाई है, वे दोनों भी एक ही देश की सन्तानें हैं। लेकिन हॅरी इस तथ्य को भूल चूका है, वह अपनी ही दुनिया में मस्त है। अपनी मातृभाषा छोड़कर पॉश अँग्रेज़ी में बात करना ही वह पसन्द करता है। किसी भी देश के नागरिक की मूलभूत ज़रूरत रहनेवालीं स्वास्थ्यसेवाओं का भी उदाहरण ले लें, तो एक तरफ़ ‘इंडिया’ की स्वास्थ्यसेवाएँ सफ़लता की नयी नयी बुलन्दियों को छू रही हैं, नित नये शिखरों पर कदम रख रही हैं, ‘मेडिकल इन्श्युरन्स’, ‘कॅशलेस ट्रान्झॅक्शन’ की ड़ींगें हाँक रही हैं; वहीं, ग्रामीण ‘भारत’ यह अधिकांश रूप में ‘कॅशलेस’ ही रहने के कारण वह कोई ट्रान्झॅक्शन ही कर नहीं सकता, वैद्यकीय सेवा समय पर न मिलने के कारण अपनी जान गँवानेवालों संख्या कम होते हुए दिखायी नहीं देती। हॅरी उच्चशिक्षितता के अधिक से अधिक ऊँचे पायदानों पर चढ़ा जा रहा है, लेकिन दुनिया में सर्वाधिक निरक्षरता रहनेवाले देशों में भारत की गिनती की जाती है। स्कूली शिक्षा पाना ही जहाँ दूर की बात है, वहाँ अँग्रेज़ी में बात करना हरि के लिए संभव ही नहीं है।

मग़र आज ‘हॅरी’ को ‘हरि’ के प्रति कुछ भी संवेदना नहीं है; यदि कुछ प्रतीत होता ही है, तो वह है नफ़रत। लेकिन यदि यह सब ऐसा ही चलता रहा और इन सभी दुर्लक्षित ‘हरियों’ की बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो आज दुर्बल प्रतीत होनेवाली इन हरियों की आवाज़ इतने ज़ोर के साथ हॅरी के कान में आघात करेगी कि अँग्रेज़ी तो दूर की बात है, किसी भी भाषा के शब्द समझना हॅरी के लिए मुश्किल हो जायेगा।

इसीलिए हमारा यह भाई ‘हरी’ सम्मान का जीवन कैसे जी सकेगा, इसकी ओर यदि हर ‘हॅरी’ आत्मपरीक्षण करके देखें, तब ही….

….तब ही उस भारतमाता को ‘माँ’ कहने का हमें अधिकार होगा, अन्यथा नहीं!

One Response to "समय की करवट (भाग ४) – ‘हरी पुत्तर’"

  1. onkar wadekar   July 21, 2016 at 1:39 pm

    र्मुख कराने वाले इस लेख की गहराई नापना मुश्किल है। अगर आज इस लेख के माध्यम से मुझ में उचित बदलाव लाने की लहर सी उठ सकती है, तो फिर भारत के हरएक शहरी जीवन व्यतीत करने वाले नागरिक मे यह वैचारिक भावना को जगाने की क्षमता जरूर है। आज इंडिया को जरुरत है भारत बनने की और उसकी और इस लेख के जरिए मैने अपना पहला कदम उठाया है। सोच बदलो देश बदलो।

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