समय की करवट (भाग १३)– जहाँ संस्कार ‘मिड्लक्लास मेंटॅलिटी’ साबित होते हैं….

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

हमने ‘ग्रेट इंडियन मिड्ल क्लास’ के बारे में जाना। बुरी तरह फँसी जागतिक अर्थव्यवस्था किस तरह अपने आप को बचाने के लिए इस भारतीय मध्यमवर्गीय की ओर उम्मीद से देख रही है, यह हमने देखा। आज तक ‘पूअर मिड्ल क्लास’ इस तरह संबोधित कर नीचा दिखाये गये, बाहर का होटल का खाना खाने से घर की न्युट्रिश्यस दालरोटी अच्छी, यह पहले से प्रतिपादित करनेवाले; और उसकी इस – ‘घर की दालरोटी ही खाने का आग्रह रखने की’ आदत के कारण अमीरों द्वारा हमेशा मज़ाक उड़ाये गये और इसी कारण किसी न किसी तरह का हीनगंड मन में रखकर जीनेवाले मध्यमवर्गीय ने अपनी ‘ताकत’ को पहचानना ज़रूरी है।

बाहर खाने की बात से याद आया – ‘मिड्ल क्लास मेंटॅलिटी’ से संबोधित कर जिन्हें नीचा दिखाया जाता है, उन मध्यमवर्गीय घरों के संस्कारों में – ‘खाना ज़ाया (वेस्ट) करना यह खाने का अपमान है और खाने का अपमान कभी भी नहीं करना चाहिए’ यह एक संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आया है और वह स्वाभाविक रूप में १०८ प्रतिशत सही ही है। लेकिन उदाहरण के तौर पर यदि हम हमारे कॉलेज के दिन याद करें, तो कॉलेज में ग्रुप में घूमतेफिरते समय कई बार ऐसे वाक़ये आ जाते थे, जब अचानक दोपहर को या फिर रात को – ‘आज बाहर होटल में खाना खाने जाते हैं’ ऐसा ग्रुप का ‘फ़ैसला’ हो जाता था – कई बार लोकतांत्रिक….‘मेजॉरिटी विन्स’ पद्धति से! अर्थात् ग्रुप के अधिकांश बच्चों ने यदि बाहर खाना खाने के पक्ष में फ़ैसला किया, तो जो विभिन्न कारणों से बाहर खाना खाने नहीं जाना चाहते थे, उन्हें भी केवल ‘हम कहीं ग्रुप से अलग न हो जायें’ इस डर के कारण ज़बरदस्ती से बाहर खाना खाने जाना पड़ता था। ‘ज़बरदस्ती से’ ही कहना होगा, क्योंकि ‘अपने मध्यमवर्गीय होने का’ हीनगंड मन में रहने के कारण; ‘नहीं, मैं इस तरह अचानक तय करके बाहर खाना खाने नहीं आ सकता’ यह दृढ़तापूर्वक ग्रुप को बताने की और अहम बात यानी उसके पीछे का यह कारण बताने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।

यहाँ पर महज़, जेब में पैसा होने या ना होने का सवाल नहीं रहता था। हम जानते ही हैं कि यदि कॉलेज के ग्रुप में एकाद बार किसी के पास पैसे नहीं होते हैं, तो कुछ भी खानेपीने के समय उसके खर्चे का बोझ अन्य ग्रुपमेंबर्स द्वारा उठाया जाता ही है। इसलिए वह सवाल नहीं रहता था। लेकिन यहाँ पर कई बार, घर में पूर्वसूचना न देते हुए बाहर खाना खाने जाने के लिए आनाकानी करनेवाले ग्रुप के बच्चें मध्यमवर्गीय घरों के रहते थे। उन्हें यह मालूम रहता था कि आज घर में जो खाना बना है, उसमें मेरे हिस्से का खाना भी है। जब मैं इस तरह अचानक, कोई पूर्वसूचना न देते हुए बाहर खाना खाने जाने का प्लॅन करता हूँ, तब घर में पका हुआ वह मेरे हिस्से का खाना जाया होनेवाला है और ऊपर उल्लेखित पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कारों के कारण घर में अनबन होनेवाली है।

लेकिन जिस बच्चे के मन पर यह संस्कार बचपन से उचित रूप से, प्यार से समझाकर किया जाता है, अर्थात् उसे स्वयं को अपने मध्यमवर्गीय संस्कारों की शर्म महसूस न होते हुए उल्टा उसने उन संस्कारों का प्यार से स्वीकार किया हो, उस बच्चे को ‘घर में अनबन होगी’ इसका डर होने की अपेक्षा, ‘घर में पका हुआ खाना जाया होगा’ इस बात का दुख होगा।

जेब में पैसे हैं या नहीं, इससे भी ज़्यादा मध्यमवर्गीय बच्चों को टेन्शन रहता है, वह इस बात का। इसी कारण वे इस तरह अचानक, पूर्वसूचना न देते हुए बाहर खाना खाने का प्लॅन बनाने के लिए आनाकानी करते हैं। जो बच्चें बार बार इस तरह अचानक हॉटेलिंग के प्लॅन्स करते हैं; इतना ही नहीं, बल्कि उस बात को अपनी जीवनपद्धति का एक हिस्सा ही मानकर चलते हैं, वे प्रायः अमीर वर्ग के या फिर उच्च मध्यमवर्गीय घर के रहते हैं। यदि अमीर हों, तो उनपर ऐसे संस्कार हुए ही होंगे ऐसा नहीं या फिर वे बच्चे इन संस्कारों को अहमियत देते होंगे ही, ऐसा नहीं है। या फिर उनमें से कइयों के घर में खाना पकाने के संदर्भ में कुछ प्रॉब्लेम भी हो सकता है। वह अपवाद (एक्सेप्शन) है।

लेकिन कई बार ऐसे ग्रुप्स में रहनेवाले उच्च मध्यमवर्गीय श्रेणि के बच्चों को देखकर हैरानी होती थी कि ‘इनके घर का कोई वंशपरंपरागत (बपौती) कारोबार वगैरा तो है नहीं, इनके माँ-बाप दोनों मेहनत से, नौकरी करके ही पैसा कमा रहे हैं; उन माँ-बाप ने भी इन बच्चों पर बचपन में ऐसे ही मध्यमवर्गीय संस्कार किये थे। फिर वे इस तरह कैसे अचानक, घर में अगाऊ ‘नोटिस’ न देते हुए बाहर खाना खाने जा सकते हैं?’

Indian-middle-class-tied-up-  ‘ग्रेट इंडियन मिड्ल क्लास’
जब जेब में पैसे नहीं रहते थे, तब हमपर किये गये मध्यमवर्गीय संस्कार, जो दरअसल समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं, कई बार जेब में पैसे आने लगने के बाद हमें – ‘ज़बरदस्ती से पालन करने पड़े हुए कालबाह्य संस्कार’ प्रतीत होने लगते हैं और इन संस्कारों ने हमें बाँधकर रखा है, ऐसा लगने लगता है।

लेकिन इस सवाल का जवाब कई बार उनके माँ-बाप से बात करने का अवसर मिलते ही प्राप्त हो जाता था। वे माँ-बाप ही प्रायः यह कहते थे कि ‘हमने हमारी ज़िन्दगी ‘मध्यमवर्गीय’ के तौर जी है, लेकिन कम से कम हमारे बच्चों को तो ऐशोआराम करने दो; कम से कम हमारे बच्चें तो ‘मध्यमवर्गीय संस्कारों में’ कुढ़ते हुए ज़िन्दगी न जियें।’ यानी जेब में ज़रासे पैसे क्या आये, ज़िन्दगी भर के संस्कार अब ‘ज़बरदस्ती से पालन करने पड़े हुए कालबाह्य संस्कार’ प्रतीत होने लगे थे और यहीं पर हम दरअसल ग़लती कर बैठते हैं। फिर, पैसे न रहते समय किया हुआ – ‘होटल के खाने से घर का न्युट्रिश्यस खाना अच्छा’ यह संस्कार, पैसे आने पर कई बार भुलाया जाता है।

इसी ऊपर-उल्लेखित उदाहरण पर यदि हम ग़ौर करते हैं, तो -‘खाने का अपमान कभी मत करना’ यह हमारी भारतीय संस्कृति ने प्रतिपादित किया हुआ त्रिकालाबाधित सत्य रहते हुए भी; केवल ‘लोग हँसेंगे, मैं ग्रुप से अलग पड़ जाऊँगा, ‘मिड्लक्लास’ कहकर मेरा मज़ाक उड़ायेंगे’ इस तरह हमने ही बना रखी हुईं हमारी ग़लत धारणाओं के कारण हम कुढ़ते हुए गतानुगतिक (आगेवाला गया इसलिए मैं भी गया) की तरह अन्यों के साथ घसीटते हुए जाते रहते हैं। यदि ग्रुप में मेरी भावनाओं की क़दर नहीं की जा रही है, तो क्या ग्रुप में मेरा स्थान ‘इक्वल’ – अन्य ग्रुपमेंबर्स की बराबरी का है, यह सीधासादा सरल विचार भी हमारे मन को छूता नहीं है और इसी तरह हमेशा औरों के इशारों पर नाचते रहने के कारण हमें हमेशा ही मानकर चला जाता है (‘टेकन फॉर ग्रान्टेड’)। कितने मज़े की बात है ना – हमें कोई ‘मिड्ल क्लास मेंटॅलिटी’ संबोधित करते हुए नीचा न दिखायें इसलिए हम हमें रास न आनेवालीं या फिर आर्थिक दृष्टि से न बन पते हुए भी कई बातें करते रहते हैं और फिर यही ‘हमें लोग मानकर चलने का’ कारण बन जाता है और उसी से हमारे लिए इस्तेमाल किया जानेवाला यह बिरुद (संबोधन) पक्का हो जाता है।

ख़ैर! यह बात शुरू किससे हुई? ‘मिड्ल क्लास मेंटॅलिटी’ पर से। ‘पैसा ज़ाया मत करो, खाने को फ़ेंको मत, सेव्ह फ़ॉर द रेनी डे’ इन जैसे, समय की कसौटी पर खरे साबित हुए संस्कार यदि हमें दक़ियानुसी प्रतीत होते हैं, तो ग़लती उन संस्कारों की नहीं, बल्कि हमारी है, इस बात पर हमें ग़ौर करना चाहिए और समय ने यह बात साबित भी की है। दुनिया के जिस प्रदेश के समाज ने वास्तविकता का भान न रखते हुए, कल के लिए सेविंग न करते हुए पैसों को उड़ाना शुरू किया, वह ऋणग्रस्त (क़र्ज़दार) हो ही गया। अमरिकी मध्यमवर्ग का उदाहरण हमारी आँखों के सामने है। अर्थात् उसने भी इन ‘मध्यमवर्गीय’ संस्कारों का पालन न करने के कारण उसकी यह दशा हुई है, यह ज़ाहिर है; फिर हमें शर्म क्यों महसूस होती है? तो तुलना के कारण। इस बात को यदि टालना हो, तो आज जो अमीर हैं, वे भी किसी ज़माने में – उनके पास जब आज के जितने पैसे नहीं होते थे, तब हमारे जैसे ही जीते थे, इस मुद्दे पर भी हमें ग़ौर करना चाहिए।

प्रगति करने की इच्छा बुरी हरगिज़ नहीं है और मेहनत से अर्जित किये हुए पैसों का अच्छे मार्ग से उपभोग करना भी यक़ीनन ग़लत नहीं है। लेकिन ऐसा करते समय, जब आर्थिक दृष्टि से तंगी थी, तब जो ‘संस्कार’ प्रतीत होते थे, वे संस्कार उस तंगी के दूर होने के बाद अचानक ‘मिड्लक्लास मेंटॅलिटी’ क्यों प्रतीत होने लगते हैं, यह मुद्दा है।

यदि हमें ऐसा नहीं होने देना है और दुनिया के हमपर हो रहे आक्रमण का सबलतापूर्वक मुक़ाबला करना है, तो सर्वप्रथम हमारा खुद पर रहनेवाला विश्‍वास बढ़ना चाहिए। तब ही – ‘हाँ, हूँ मैं मिड्लक्लास! तो?’ यह सवाल दुनिया से कर सकते हैं।

आज जब भारत के बाहर की दुनिया की नज़रें, भारत के मध्यमवर्गीय को ‘ग्राहक’ के रूप में देख रही हैं, तब भारत के मध्यमवर्ग को चाहिए कि वह अपनी संस्कृतिरक्षा की क्षमता और कुल मिलाकर सारी ताकत को पहचानें और इसमें अपना फ़ायदा कर लें।

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