समय की करवट (भाग १२) – गर्व से कहो, हम मध्यमवर्गीय हैं

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

आंतर्राष्ट्रीय मार्केटों में ईंधन की भड़कतीं क़ीमतों के लिए भारत के मध्यमवर्गियों को ‘ज़िम्मेदार’ ठहराते हुए भी, अमरीका में नौकरियाँ पैदा करने के लिए पुनः इसी भारतीय मध्यमवर्ग को अधिक से अधिक उत्पाद बेचो (जिनमें ईंधन का उपयोग बढ़ानेवालीं गाड़ियाँ भी शामिल हैं), ऐसा मशवरा अमरिकी कंपनियों को दिया जा रहा है।

swasthi_family_img- मध्यमवर्गीय
Photo Courtesy: healthy-india.org

तो ऐसा है यह मध्यमवर्गीय – बड़े बड़े ख़्वाब देखनेवाला, मग़र फिर भी होश में रहकर ‘रिअ‍ॅलिटी’ का एहसास रखते हुए, ख़ामख़ाँ बड़े बड़े तीर न मारते हुए, उन सपनों को सच बनाने के लिए अच्छी शिक्षा लेने के प्रयास करनेवाला, अधिकांश बार पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आया कोई धंधा-व्यवसाय न होने के कारण अच्छी नौकरी की तलाश रहनेवाला और वह पाने के बाद जानतोड़ मेहनत करनेवाला, चटाई देखकर उतने ही हाथपैर फैलानेवाला, लेकिन अधिकांश बार इसी कारण सबसे तुच्छतापूर्णक सलूक़ पानेवाला।

दरअसल संख्या से बड़ा रहने के कारण यह सबसे बड़ा ‘ग्राहक’ है, इसलिए दरअसल ‘बिझनेसवालों की’ रोज़ीरोटी चलानेवाला भी वही है। लेकिन इसका एहसास उसके मन में जागृत न होने देने के लिए उसे हमेशा तुच्छतापूर्वक नीचा दिखाते रहना, यह तथाकथित (सो-कॉल्ड) ‘उच्चवर्ग’ का एक फेवरिट ‘उद्योग’ रहता है।

जब जब इसने ख़्वाब और सच इनमें ग़लती की और अपने ख़्वाबों को पूरा करने के लिए, चटाई जितने ही हाथपैर फैलाने के बजाय, उससे अधिक फैलाये, तब तब उसके कदम विनाश की ओर पड़े हैं। अमरीका का मध्यमवर्ग यह इस बात की बेहतरीन मिसाल है, ऐसा विश्‍लेषक कहते हैं। आज जिस प्रकार भारतीय मध्यमवर्गीय यह अर्थव्यवस्था का बॅकबोन माना जाकर, उसकी ओर उम्मीदभरी निगाहों से देखा जा रहा है, उसी प्रकार किसी ज़माने में अमरिकी मध्यमवर्गीय की ओर देखा जाता था। लेकिन ऐशोआराम के ख़्वाबों को पूरा करने के चक्कर में वह ‘प्लास्टिक मनी’ (क्रेडिट कार्ड्स) में उलझ गया। ‘आज’ की वास्तविकता में जीने के बजाय ‘कल’ (फ्युचर) के ख़्वाबों में जीने लगा और न सँभले जानेवाले कर्ज़ों के फेरे में उलझ गया। अर्थव्यवस्था का वही बॅकबोन रहने के कारण, जब उसीका दीवाला निकल गया, तब अमरिकी अर्थव्यवस्था भी टूट जाने में व़क्त नहीं लगा। ये उदाहरण हमारी आँखों के सामने के ही हैं; इसलिए यदि वैसी हमारी अवस्था न हों ऐसा हमें लगता है, तो उससे हमें भी सबक सीखना चाहिए। हमारी क्षमताओं और हमारी मर्यादाओं को जानना ही पड़ेगा।

यह हुई आर्थिक दृष्टि से मध्यमवर्गीय होनेवालों की बात। लेकिन दरअसल, प्रायः झगड़ा टालनेवाला – ‘तुटे वाद संवाद तो हितकारी’ (‘जो विवाद मिटायें, वही संवाद हितकारक’) इस वचन पर अटूट भरोसा रहनेवाला यानी प्रवृत्ति से मध्यमवर्गीय, यही अधिकांश बार संपूर्ण राष्ट्र का बॅकबोन होता है। इन्सानों में बहुत बड़ी संख्या सामान्यतः इस वर्ग की होती है। साधारण तौर पर इसे अपनी असली क्षमताओं का एहसास नहीं होता है। हम हमेशा देखते हैं कि जब तक सबकुछ हमारी इच्छा के अनुसार होते रहता है, तब तक हमारी असली क्षमता को इस्तेमाल करने की बारी ही हमपर नहीं आती। कभी कभी तो जानबूझकर, ऊपरी तौर पर ऐसे हालात निर्माण किये जाते हैं कि हमें हमारी इस असली क्षमता को इस्तेमाल करने की इच्छा भी न हों। जब सबकुछ हमारी इच्छा के अनुसार घटित हो रहा है, तो हम क्यों अतिरिक्त मेहनत करें? और फिर हम उसमें इतने मश्गूल हो जाते हैं कि वाक़ई हमें हमारी क्षमता का विस्मरण होता है और यही बात देश के बारे में भी उतनी ही सही है।

अ‍ॅडवान्स्ड तंत्रज्ञान के लिए हम हमेशा ही पश्‍चिमी देशों के मुँह की तरफ़ देखते आये हैं। लेकिन जब जब भारत को गौण बताकर उसे अपमानित किया गया है, तब तब भारतीयों ने ‘चमत्कार’ कर दिखाया है और उसे नीचा दिखानेवाले को मात दी है।

१९८० के दशक में जब भारत अभी भी प्रायः कृषिप्रधान देश था और अधिकतर मान्सून पर ही निर्भर रहता था, उस समय उसे अनिश्चित मान्सून का अगाऊ अँदाज़ा होने के लिए मदद हों, इसलिए उसने अमरीका के पास ‘क्रे’ इस अमरिकी सुपरकाँप्युटर की और साथ ही, उसके ‘तंत्रज्ञान हस्तांतरण’ की भी (‘टेक्नॉलॉजी ट्रान्स्फ़र’) माँग की। लेकिन अमरीका ने पहले क़बूल करके भी बाद में तंत्रज्ञान का हस्तांतरण करने से इन्कार कर दिया और इस ‘क्रे’ सिरीझ का भी लेटेस्ट कॉम्प्युटर नहीं मिलेगा, उसका पुराना संस्करण मिलेगा, ऐसी अपमानकारी शर्तें रख दीं।

ऐसे इस अपमानजनक बर्ताव से भारतीय वैज्ञानिकजगत में गुस्से की लहर फैल गयी। सौभाग्यवश उस समय सरकार ने भी भारतीय वैज्ञानिकों को समर्थन दिया और भारत ने इस अपमानजन्य शर्त को ठुकरा दिया और उस पुराने कॉम्प्युटर का स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। उसके बाद भारतीय शास्त्रज्ञों ने अथक परिश्रम करके पूरी तरह भारतीय बनावट का ‘परम’ कॉम्प्युटर बनाया, जो दर्जे से ‘क्रे’ कॉम्प्युटर से भी बेहतरीन था और अहम बात यह थी कि उसकी क़ीमत ‘क्रे’ कॉम्प्युटर की तुलना में बहुत ही कम थी। इस कारण हमें इस ‘परम’ के लिए अफ़्रिका के कई गरीब देशों से (जो ‘क्रे’ खरीदने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते थे) ऑर्डर्स भी मिले। ‘परम’ के अगले संस्करण तो रशिया, कॅनडा, सिंगापूर एवं जर्मनी जैसे अ‍ॅडवान्स्ड देशों ने भी खरीद लिया

इसी प्रकार, जब भारत पर अमरीका द्वारा आण्विक निर्बंध लगाये गये थे और भारत को समृद्ध युरेनियम बेचने से अमरीका ने इन्कार कर दिया, तब भारत ने अपने शास्त्रज्ञों को उसके लिए कोई अन्य विकल्प (आल्टरनेटिव) ढूँढ़ने के लिए कहा। तब भारतीय शास्त्रज्ञों ने अथक परिश्रमों से युरेनियम के बदले, भारत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होनेवाले थोरियम का इस्तेमाल करके परमाणुऊर्जाप्रकल्प को क़ामयाब बनाकर दिखा दिया।

उसी प्रकार जब अमरीका ने रशिया पर दबाव डालकर, उपग्रह कार्यक्रम में आवश्यक रहनेवाले रशियन बनावट के ‘क्रायोजेनिक’ इंजिन्स भारत को न मिलें इसलिए प्रयास किये, तब भारतीय वैज्ञानिकों ने पूरी तरह भारतीय बनावट के ‘पीएसएलव्ही’ रॉकेट का निर्माण कर उपग्रह को अंतरिक्ष में छोड़ा।

ऐसे उदाहरण, ये महज़ ‘उदाहरण’ हैं। ऐसी अनगिनत बातें भारत के इतिहास में हुई हैं, जिसमें भारतीयों ने अपनी ‘भारतीयता’ का झटका दुनिया को दिया है। भारत के पास यक़ीनन ही क्षमता है, लेकिन ‘लॉर्ड मेकॉले’ ने भारतीयों की ग़ुलामी मानसिकता तैयार हों इसलिए विशेष मशागत करके बोयी हुई हमारी भारतीय मनोभूमि को हमेशा, पश्‍चिमी देशों की तुलना में अपने आपको कम समझने की आदत पड़ गयी है और उस कारण हमें अपनी क्षमता का एहसास नहीं रहता है। किसी देश ने हमारे साथ अपमानकारी सलूक़ किया, तो उसके बाद ही हमारी क्षमता का एहसास हमें हो जाता है और फिर अंतिमतः जो उत्पाद भारतीयों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, वह उस ‘मूल’ विदेशी उत्पादन से कई गुना अधिक अच्छा रहता है।

इसीसे हमें पता चलता है कि हम भले ही मध्यमवर्गीय हों (आर्थिक दृष्टि से या फिर प्रवृत्ति से भी) और उसको लेकर किसी ‘बिझनेसवाले ने’ हमें नीचा दिखाने की कोशिश की, तो हमें उसके ‘अबे’ का जवाब ‘क्यों बे’ इस तरह देने आना ही चाहिए।

‘गर्व से कहो, हम मध्यमवर्गीय हैं।’

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