समय की करवट भाग १९- हम कब होंगे….क़ामयाब?

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

किसी देश के लिए, समाज के लिए ‘समय की करवट’ बदलने में, उस देश के लोग कितनी एकता की भावना से पेश आते हैं, इसका अहम हिस्सा होता है और यह बात केवल देश के लिए ही नहीं, बल्कि किसी भी समूह के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस संघभावना को वेदकाल से ही महत्त्व दिया गया है। संघभावना का महत्त्व जानकर वेदकर्ता ऋषियों ने भी वेदों में सांघिक प्रार्थनाओं का समावेश किया। (वेदों की कई प्रार्थनाओं में ‘मैं’ के बजाय ‘हम’ शब्द का उपयोग किया गया है।) इसके पीछे उनका उदात्त उद्देश – यह सुंदर विश्‍व ईश्वर ने हमें रहने के लिए दिया, इसके लिए उनका ऋण मान्य करने हेतु, समाज के लोग एकत्रित होकर प्रार्थना करें, प्रार्थना करते समय निर्माण हुए पवित्र स्पंदनों का लाभ सांघिक रूप में प्रार्थना करनेवाले सभी को मिलें और सभी लोग पुरुषार्थी श्रद्धावान बनें; यह था।

लेकिन हुआ उलटा ही! आदिमकाल की टोलियों के हालाँकि आगे चलकर समाज बन गये, लेकिन फिर भी सांघिक भावना को विकसित करके उसका समाज को कई गुना फ़ायदा करा देने के बजाय, झुँड़ का मानसशास्त्र ही समाज में व्यक्त होने लगा; और आधुनिक युग में नयीं नयीं वैज्ञानिक खोजों के कारण इन्सान की भौतिक दृष्टि से प्रगति हुई दिखायी दी, लेकिन सामाजिक दृष्टि से पतन ही दिखायी देने लगा। मूलतः मानव ने टोली बनाकर रहना शुरू किया अपनी सुरक्षा के लिए और वह सही ही था। बाहर से आये संकट का प्रतिकार अकेले करने के बजाय सांघिक रूप में करना ही अधिक प्रभावी साबित होता था। ‘युनायटेड वी स्टँड, डिव्हायडेड वी फॉल’ इस तत्त्व का बीज उसी दौर में समाज में बोया गया।

लेकिन आगे चलकर इस एकत्रित रहने के पीछे ‘संकट का सांघिक रूप में प्रतिकार करना’ यह बात है, इसका विस्मरण मानव को होने लगा। संघशक्ति के माध्यम से अपना खुद का विकास करना है, यह विचार पीछे छूट गया और किसी भा बात में, ‘वह बात उसने की इसलिए मैंने की’ ऐसा विचार प्रबल हो गया।

इसका एक सीधासादा उदाहरण दैनंदिन जीवन में हम हमेशा देखते हैं – वह है किसी भी होटल में खाने के लिए होटल के बाहर लगी लंबी कतार। उस होटल का खाना वाक़ई अच्छा भी हो सकता है। लेकिन कई बार ऐसे होटलों के आसपास देखें, तो अन्य भी होटल रहते हैं, लेकिन वहाँ न जाते हुए हम इसी होटल के बाहर कतार में घण्टों खड़े रहेंगे। क्यों? इसका कारण है – ‘इस होटल के बाहर इतनी कतार है यानी इतने लोगों का वह होटल फ़ेव्हरिट है; अर्थात् वह यक़ीनन ही अच्छा होगा’ ऐसी हमने ही अपनायी हुई धारणा। हाँ, यदि हम इस होटल में हमेशा जाते हैं और इस होटल का खाना हमें वाक़ई पसन्द है, तो बात अलग है। लेकिन यदि हम उन अन्य, इस होटल की तुलना में खाली दिखनेवाले होटलों में (केवल वे खाली दिखते हैं इसलिए) एक बार भी नहीं जायेंगे, दूसरों से उन होटलों के बारे में फ़ॅक्ट्स की जानकारी न लेते हुए उन्हें नकारकर इसी होटल में जाते रहे, तो हमारे मन में रहनेवाली झुँड़प्रवृत्ति थोड़ीबहुत तो इस मामले में सिर उठा रही है, ऐसी आशंका ली जा सकती है।

हाँ, कुछ लोग इसपर ऐसा आर्ग्युमेंट कर सकते हैं कि हमारे बजेट के अनुसार हम महीने में एकाद बार होटेलिंग के लिए बाहर जाते हैं। अब ‘इस’ होटल का खाना अच्छा है, यह हमें अनुभव से यक़ीनन ही मालूम है। लेकिन हम समझो यहाँ पर भीड़ है, इसलिए उन अन्य होटलों में से किसी होटल में गये और वहाँ का खाना निम्न दर्जे का हो तो? हमारा महीना तो जाया ही हुआ ना! यानी कि ‘हमारा नुकसान होगा’ यह कई बार बेबुनियाद होनेवाला डर हमें झुँड़ के बीचोंबीच आने के लिए मजबूर करता है – ‘इस होटल के बाहर इतने लोग कतार में खड़े हैं और वे होटल खाली पड़े हैं अर्थात् यहाँ पर अच्छे रिझल्ट की (मुझे अच्छा खाना मिलने की) संभावना अधिक है, तो मुझे भी इसी होटल में खाना होगा।’

वही बात शेअर मार्केट के व्यवहारों की। शेअर मार्केट के ‘ट्रेन्ड्स’ पर कई नियतकालिकों, अख़बारों में विस्तृत रूप में चर्चा की जाती है। वह भी कई बार झुँड़प्रवृत्ति ही होती है। जो इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं, विश्‍लेषण करने के बाद ही अपने शेअर-खरीदारी-बिक्री के निर्णय लेते हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना नहीं है। लेकिन शेअरक्षेत्र में पैसा कमाने की इच्छा से व्यवहार करनेवाले आम लोगों के विषय में तो झुँड़प्रवृत्ति ही काम करती है। किसी फ़ील्ड के शेअर्स बिकना एक बार शुरू हुआ कि फिर सामान्य गुंतवणूकदार ‘इतने सारे लोग इस कंपनी के शेअर्स बेच रहे हैं यानी इन्हें बेचकर मुझे भी यक़ीनन ही फ़ायदा होगा’ इस धारणा से, उस कंपनी के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त किये बिना शेअर बेच डालते हैं। हाँ यह बात भी सच है कि इस मामले में कई बार आम लोगों के आँकलन के बाहर रहनेवाले कई फ़ॅक्टर्स इन ट्रेन्ड्स के पीछे काम करते हैं, जो बात किसी को अभ्यास करने पर ही मालूम हो सकती है।

एकता की भावना
यही झुँड़प्रवृत्ति हमें चीज़ें या कपड़े ख़रीदते समय भी प्रभावित करती है और कंपनियाँ भी हमारी इसी मनोवृत्ति का फ़ायदा उठाती हैं। फिलहाल यदि कोई मोबाईल फोन चर्चा में है और हमारे पहचानवाले दस लोगों के हाथ में वह हमें दिखायी दिया कि बस्स, फिर हमें वही चाहिए। इसी फोन के सेम फीचर्स हमें किसी, तुलना में कम मशहूर रहनेवाली कंपनी के फ़ोन में मिल भी सकते हैं और वह भी कम क़ीमत में, इसकी ओर हम ध्यान नहीं देते।

यही झुँड़प्रवृत्ति हमें चीज़ें या कपड़े ख़रीदते समय भी प्रभावित करती है और कंपनियाँ भी हमारी इसी मनोवृत्ति का फ़ायदा उठाती हैं। फिलहाल यदि कोई मोबाईल फोन चर्चा में है और हमारे पहचानवाले दस लोगों के हाथ में वह हमें दिखायी दिया कि बस्स, फिर हमें वही चाहिए। वह फ़ोन अच्छा हो भी सकता है, लेकिन सेम फीचर्स हमें किसी, तुलना में कम मशहूर रहनेवाली कंपनी के फ़ोन में मिल भी सकते हैं और वह भी कम क़ीमत में। लेकिन प्रचलित (‘इन-व्होग’) फ़ोन के बजाय अन्य फ़ोन ख़रीदने का निर्णय लेने के लिए हिम्मत लगती है, जो कई बार हममें नहीं होती। ‘सेम फ़ीचर्स उस फोन में भी हैं यह बात सच है, लेकिन पता नहीं उस कंपनी की सर्व्हिस कैसी होगी?’ आदि हमारे मन में ‘असुरक्षितता’ की भावना उत्पन्न करनेवाले कई विचार हमारा दिमाग चाटते हैं और अन्त में हम ‘वही’ फ़ोन खरीदते हैं।

कपड़ों के बारे में भी वैसा ही कुछ है। कोई कपड़ें किसी मॉडेल को सूट करते होंगे, लेकिन क्या हम उन कपड़ों में अच्छे दिखते हैं और मुख्य बात, क्या हम उन कपड़ों में ‘कम्फ़र्टेबल’ हैं, इसका विचार कई बार हम नहीं करते और हमें ‘वे’ कपड़ें खरीदकर भी पूर्ण रूप में खुशी नहीं मिलती।

लेकिन हमारी यह झुँड़प्रवृत्ति जानकर, उसके अनुसार अपने प्रॉडक्ट का विज्ञापन करनेवाली कंपनियाँ हम पर हुकूमत चलाती हैं। कहने का मतलब यह नहीं है कि ये प्रॉडक्ट्स बुरे होते हैं। लेकिन उन्हें खरीदते समय झुँड़प्रवृत्ति का शिकार न होते हुए, सर्वांगीण विचार करके ही उसके बारे में निर्णय लेना सर्वोत्तम है। कुछ साल पहले की बात है। मेरे एक दोस्त का फ़्रिज बिगड़ गया इसलिए उसने कई दूकानों में पूछताछ की। वह भारतीय कंपनी का ही फ़्रिज खरीदना चाहता था। लेकिन सभी जगह उसे, दूकानों में भारतीय फ़्रिज होते हुए भी, अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फ़्रिज का ही गुणगान सुनाया गया। वह भी ज़िद पर उतर आया – ‘अब तो मैं भारतीय फ्रिज लेकर ही रहूँगा’। एक दुकानदार ने तो गुस्सा होकर उससे कहा, ‘अरे सब लोग यह इम्पोर्टेड फ़्रिज ही लेते हैं आजकल, इस इंडियन कंपनी के फ़्रिज में क्या रखा है? इस फ़्रिज के बारे में कई सारे प्रॉब्लेम्स की रिपोर्ट है।’ लेकिन फिर भी दोस्त ने ज़िद नहीं छोड़ी। उसने पहले से ही इंटरनेट पर से, दोस्तों से जानकारी हासिल की थी। आख़िरकार उसने उस भारतीय कंपनी का ही फ़्रिज खरीद लिया और आज इतने साल हो गये, वह अच्छा चल रहा है। उस दूकानदार ने इस इंडियन फ्रिज के बारे में जो प्रॉब्लेम्स की बातें बतायी थीं, उनमें से एक भी तक़रार उसके फ्रिज के बारे में नहीं आयी। वह खुश है। यानी यहाँ पर दूकानदार भी झुँड़प्रवृत्ति से ही पेश आ रहा था और अपने कस्टमर को भी उस झुँड़ में खींच रहा था। महज़ २६ जनवरी, १५ अगस्त इन ‘राष्ट्रीय’ दिनों को दूकान में ‘वैसा’ देशभक्ति का डेकोरेशन करना, इससे अलावा उस दूकानदार का देश के साथ कोई संबंध दिखायी नहीं दे रहा था। यह दोस्त यदि उस दूकानदार द्वारा सिफ़ारिश किया फ्रिज खरीदता, तो शायद वह अच्छा साबित होता भी। लेकिन ‘मुझे जो चाहिए वही चीज़ मैं खरीदूँगा; जो मुझे नापसन्द है उस चीज़ को क्यों तुम मेरे माथे पर थोंप रहे हो?’ इस झुँड़प्रवृत्ति को त्यागने के निग्रह से ही उसने निर्णय लिया और वह क़ामयाब हुआ; हम कब होंगे?

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