समय की करवट (भाग १०) – हॅरी को चाहिए – ‘मेड इन (भारत को छोड़कर कुछ भी)’

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।
ग्लोबलायझेशन में हालाँकि दोनो पार्टियों के अच्छे उत्पादों का लेनदेन होकर दोनों पार्टियों का फ़ायदा होगा ऐसी उम्मीद होती है; लेकिन वास्तव में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ऐसी स्थिति होती है। अमीर देशों में रहनेवालीं बड़ीं बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जब ग्लोबलायझेशन की आड़ में, मुक्त व्यापार (फ्री ट्रेड़) की आड़ में अन्य देशों में घुसकर व्यापार करती हैं; तब कई बार वे उस व्यापार का उच्च दर्ज़े (हाय क्वालिटी) के साथ संबंध नहीं रखतीं।

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Image Courtesy: bharatabharati.wordpress.com

इतना ही नहीं, बल्कि जहाँ मुमक़िन हों, वहाँ पर ये कंपनियाँ ‘काँपिटिशन’ को ही ख़त्म कर देने पर तुली हुई रहती हैं। पूँजीवाद (कॅपिटॅलिझम) की दृष्टि से बिझनेस यह एक युद्ध ही होता है और फिर ज़ाहिर है, उसे जीतना तो पड़ेगा ही! फिर ‘एव्हरीथिंग इज फ़ेअर इन लव्ह अँड वॉर’ इस वाक्प्रचार को मुँह पर फेंकते हुए, ये कंपनियाँ अपने व्यवसाय को ‘युद्ध की तरह’ मानती हैं, जिसमें केवल ‘हम तुमसे अच्छा उत्पाद लाकर दिखायेंगे’ इतना ही ‘संकुचित’ विचार नहीं होता है; बल्कि ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ इस कहावत की तरह वे ‘येनकेनप्रकारेण’ (‘बाय हूक ऑर क्रूक’) काँपिटिशन को ही ख़त्म कर देना चाहती हैं।

यह ख़तरा भारत की समझ में आ रहा था, इसलिए सैंकड़ों वर्षों की ग़ुलामी में से आज़ाद हुए भारत ने, अपनी अधिकांश कंपनियाँ अभी भी दुनिया की ‘कटथ्रोट काँपिटिशन’ में उतरने के क़ाबिल नहीं हुई हैं यह जानकर, दुनियाभर में ग्लोबलायझेशन के ढ़िंढ़ोरे पीटे जा रहे होने के बावजूद भी संरक्षित व्यापार की नीति अपनायी।

लेकिन भारत के लिए समस्या बन चुकी उसकी भारीभरकम आबादी, एक ‘मार्केट’ के रूप में इन विकसित देशों का ध्यान आकर्षित कर रही थी। मग़र इस इतनी बड़ी जनसंख्या को अपने उत्पादों के मार्केट में रूपांतरित करने के आड़े एक ही बात आ रही थी – भारत की संरक्षित व्यापार की नीति! इसलिए इन विकसित देशों ने मानो ठान ही लिया कि भारत को जैसे तैसे ‘ग्लोबलायझेशन’ का स्वीकार करने पर मजबूर ही करेंगे। उन्होंने, उस व़क्त केवल अमीर पश्‍चिमी राष्ट्रों के सूर में ही अपना सूर मिलानेवालीं ‘वर्ल्ड बँक’ एवं ‘आंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश’ इन वित्तसंस्थाओं के ज़रिये भारत का हाथ मरोड़ना शुरू किया। भारत अभी भी विकसनशील देश रहने के कारण भारत को अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए तथा अन्य विकासकार्य के लिए आंतर्राष्ट्रीय वित्तसहायता की ज़रूरत थी ही और उसके लिए भारत इन दो वित्तसंस्थाओं पर अच्छाख़ासा निर्भर था। इस कारण – ‘या तो तुम्हारा मार्केट विदेशी उत्पादों के लिए खुला करो या फिर आंतर्राष्ट्रीय वित्तसहायता को अलविदा कहो’ ऐसा सीधा हिसाब खुलेआम भारत के सामने रखा गया और उस विकल्प का स्वीकार करने के अलावा भारत के पास और कोई चारा नहीं था।

परिणामस्वरूप सन १९९० के दशक में भारत का मार्केट खुला कर दिया गया। उसीके साथ भारत ने कई साहसी कदम उठाये। रुपये का अवमूल्यन, रुपये की ‘कन्व्हर्टेबिलिटी’, ठेंठ विदेशी निवेश (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट-एफडीआय)  की योजनाएँ आदि निर्णय भारत ने लिये। लायसन्स और परमिट की पाबंदियाँ धीरे धीरे शिथिल की गयीं।

उसीके परिणामस्वरूप ‘दर्जेदार’ विदेशी ब्रँडेड उत्पादन शहरी भारतीयों के तो दरवाज़े तक आये। अब तक अधिकांश भारतीयों ने चमक़ीलें मॅगझिनों में जिनके केवल विज्ञापन ही देखे थे, ऐसे उत्पाद ख़रीदने का विचार भी अब भारतीय कर सकने लगे। केवल पैदाइशी रईस एवं नवअमीर हीं नहीं, बल्कि उच्चमध्यमवर्गीय ‘हॅरी’ मानसिकता रहनेवाली युवा पीढ़ी भी इस ग्लोबलायझेशन की नयी धारा में बह ही गयी। फिर चाहे?वह कोल्ड ड्रिंक हो या टीव्ही-फ्रिज-मोबाईल, हमें अब भारतीय वस्तुएँ नापसन्द होने लगीं। केवल ‘मेड इन (भारत छोड़कर कोई भी देश)’ है, इस कारण कई उत्पाद, उनके दर्ज़े की जाँच किये बिना ही ख़रीदे जाने लगे। कोल्ड ड्रिंक्स के क्षेत्र में यह काँपिटिशन बहुत ही ग़र्म हुआ। तब तक दस-पंद्रह सालों से, भारत में विदेशी कोल्ड ड्रिंक्स कुछ ख़ास न रहने के कारण भारतीय कोल्ड ड्रिंक्स कंपनियों ने अपना अच्छाख़ासा डेरा जमा दिया था। लेकिन अब समय बदल चुका था। इस कारण कई भारतीय कोल्ड ड्रिंक्स की कंपनियाँ या तो इन विदेशी कंपनियों द्वारा अधिग्रहित की गयीं या फिर बंद पड़ गयीं।

कई देशों के लिए, ख़ासकर अमरीका के लिए अपने उत्पाद बेचने के लिए लगभग कोई भी मार्ग निषिद्ध नहीं था। ‘येनकेनप्रकारेण’ (‘बाय हूक ऑर क्रूक’) अमरिकी कंपनियों ने अपना आर्थिक साम्राज्य का दुनियाभर में निर्माण किया। लेकिन अधिकांश बार, दुनिया के कई उत्पादों की तुलना में दर्ज़े में उनके उत्पाद यक़ीनन ही अच्छे थे, यह नकारा नहीं जा सकता। मग़र वे किसी भी मार्केट में अपने पैर जमाने के लिए केवल अपने उत्पाद के दर्ज़े पर निर्भर नहीं रहती थीं, यह बात भी उतनी ही सच है।

विदेशी उत्पाद और भारतीय उत्पादन इनके दर्ज़े के बारे में तो हमेशा ही, किसी भी समारोह आदि में, यहाँ तक की घरेलु समारोहों में भी ‘चर्चासत्र’ होते हैं। ‘उनकी’ क्वालिटी और हमारी ‘क्वालिटी’ इनकी निरन्तर तुलना की जाने के दौर की वह शुरुआत थी, फिर चाहे वह बँकिंग सेवा हो या अन्य कोई सेवा!

कुछ महीनें पहले एक घरेलु समारोह के लिए एक रिश्तेदार के यहाँ गया था। काफ़ी दिनों बाद मिले होने के कारण गपशप को रंग चढ़ गया। उनमें से एकाद-दो जन कुछ साल विदेश में रहकर आये थे। गप्पें हाँकते हाँकते बीच में ही बँकिंग सिस्टिम पर चर्चा शुरू हुई। हमारे भारतीय बँक्स और ख़ासकर ग्राहकों को कौड़ी जितनी भी क़ीमत न देने की बँक कर्मचारियों की वृत्ति इसपर चर्चा शुरू हुई। ‘कस्टमर सॅटिस्फ़ॅक्शन’, ‘नो युवर कस्टमर’ वगैरा वगैरा सब महज़ टॉप मॅनेजमेंट के शब्दों के बुलबुल्ले हैं, प्रत्यक्ष ब्रँचों में ये चेअरमन, एमडी आदि लोग थोड़े ही जाते हैं, इस कारण वहाँ ग्राहकों के साथ कैसा सुलूक़ किया जाता है, इसके बारे में उन्हें कहाँ से अँदाज़ा होगा, वगैरा वगैरा भारतीय बँकों को ‘नवाज़ा’ जाने लगा। उस दौरान कुछ विदेशी बँक भारत में अपनी शाखाएँ शुरू करनेवाले होने के विज्ञापन हर जगह चमक रहे थे। ‘जब ये विदेशी बँक यहाँ पर आयेंगे, तब तो भारतीय बँकिंग का ऩक्शा ही बदल जायेगा’ ऐसे चर्चा की शुरुआत होकर, उन विदेशी बँकों की तारीफ़ों के पूल बाँधे गये। ‘कोअर बँकिंग’ किसे कहते हैं यह हमारे बँकों को मालूम भी नहीं होगा, वगैरा वगैरा वगैरा।

विदेशी बँकों की कार्यपद्धति और हमारे बँकों की कार्यपद्धति इनके दर्ज़े में रहनेवाला फ़र्क़, यह मुद्दा जायज़ हो भी सकता है। विदेशी बँक अपने ग्राहकों के साथ कैसा सुलूक़ करते हैं, वैसा सुलूक़ ज्यों कि त्यों करना भारतीय बँकों के लिए भले ही मुमक़िन न हों, मग़र उनमें से जो की जा सकनेवालीं बातें हैं, उसका अनुकरण करने में हमारे बँकों को या अन्य ऑफ़िसेस को कोई भी हर्ज़ नहीं होना चाहिए। कई बार बँक में ग्राहक को कौड़ी जितनी भी क़ीमत नहीं दी जाती, इस  परिस्थिति में तो सुधार ला सकते हैं। कई बँकों ने उसकी शुरुआत भी की है। ‘कोअर बँकिंग’ यानी बिलकुल मूलभूत स्तर पर ऐसी व्यवस्था, जिसमें हमारा अकाऊंट भला बँक की किसी भी ब्रँच में हों, हम उस बँक की अन्य किसी ब्रँच में जाकर भी व्यवहार कर सकते हैं। यह अब हमारे यहाँ भी कई बँकों ने शुरू किया है। अतः विदेशी बँकों की तारीफ़ों के पूल बाँधने के मुद्दों में से कम से कम यह मुद्दा तो निकाला जाना चाहिए।

यहाँ पर इन लोगों का दावा प्रायः सच भी हो, मग़र वे स़िर्फ शहर की परिस्थिति को ही देख रहे थे। शहरों के बाहर का भारत किन हालातों में से गुज़र रहा है, इसकी उन्हें भनक तक नहीं थी; और ऐतराज़ इसी बात से है – ‘विदेशियों का, वह सबकुछ अच्छा’ इस गॉगल में से सबकुछ देखने को। ये लोग दरअसल मजबूरन भारत वापस लौट आये थे। ‘वहाँ’ अधिक समय रहने का मौक़ा मिलता, तो वे यक़ीनन ही यहाँ वापस लौट नहीं आते।

यह हो गया एक पहलू। अपितु, ‘यह भारत है और हम ऐसे ही रहेंगे’ ऐसी अड़ियल भूमिका अपनाने का भी कोई मतलब नहीं है – आलोचनाकारों ने भी और जिनकी आलोचना की जाती है, उन्होंने भी – फिर चाहे वे बँक हो या अन्य कोई ऑफ़िसेस! पश्‍चिमी लोगों ने गत कई शतकों से दुनिया पर जो राज किया, वह उनके द्वारा स्वयं-अनुशासनबद्ध जीवनपद्धति अपनायी जाने के कारण ही मुमक़िन हुआ, इस बात को भी भूलना नहीं चाहिए। समय के साथ न चलनेवाले साम्राज्य नामशेष हुए, यह बात इतिहास हमें स्पष्ट रूप में दर्शाता है। इसलिए आज भारत को ऐसा सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ होते समय, यदि हम नहीं सुधरेंगे, तो यह अवसर हाथ से छूट सकता है, इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिए।

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