समय की करवट (भाग ३१) ‘ईयू’ संकल्पना- ‘अगला ठोकर खाये, पिछला देखकर कुछ सीखें’

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।
इसमें फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’

हेन्री किसिंजर

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आर्थिक क्षेत्र के सहयोग के पीछे पीछे, राजनीतिक स्तर पर भी एक होने की दृष्टि से युरोपीय राष्ट्रों का ‘युरोपीय महासंघ’ (‘युरोपियन युनियन’-‘ईयू’) यह हालाँकि अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण कदम साबित हुआ, लेकिन उसमें कुछ अकल्पित समस्याओं का भी ‘ईयू’ को सामना करना पड़ा। ख़ासकर एक महासंघ होनेवाला ‘ईयू’ यह एक संघराज्य होने के आड़े, वहाँ के कुछ छोटे देशों के नागरिकों के मन में होनेवाला यह डर आ रहा था कि एक बार हम अपनी राष्ट्रीय पहचान मिटाकर इस महासंघ में शामिल हुए, तो ये प्रबल देश हम पर किसी न किसी बहाने सत्ता जमायेंगे।

साथ ही, ‘ईयू’ के इस प्रवास में – ‘हर एक युरोपीय मनुष्य को रोज़गार’ मिलने के लिए ‘फ़्री मूव्हमेंट ऑफ़ गुड्स अँड लेबर’ इस लक्ष्य को साध्य करने हेतु, महासंघ के सदस्य देशों के अंतर्गत हालाँकि ‘कॉमन इन्टर्नल मार्केट’ स्थापित किया गया, लेकिन अभी भी कई मुद्दें अनुत्तरित हैं।

आदर्श ‘कॉमन इन्टर्नल मार्केट’ साध्य करने के लिए सदस्य देशों में रहनेवालीं करप्रणालियाँ, इमिग्रेशन आदि सभी रोड़े धीरे धीरे नष्ट करने के प्रयास हालाँकि शुरू ही हैं, मग़र फिर भी व्यावहारिक दृष्टिकोण से वे किस हद तक सफल होंगे, इसके बारे में विश्‍लेषकों के मन में संदेह ही है। सदस्य देशों के नागरिकों के लिए ‘इमिग्रेशन चेक’ ख़त्म करने के पीछे, उनका आवागमन आसान होकर उन्हें कहीं पर भी नौकरी के अवसर उपलब्ध हों, यह हेतु था। इसके तहत, किसी भी सदस्य देश के नागरिक किसी भी सदस्य देश में बिना किसी पाबंदी के केवल प्रवास ही नहीं, बल्कि नौकरी के लिए भी आवेदन कर सकते हैं, यह हालाँकि तात्त्विक दृष्टि से (‘थिऑरेटिकली’) सच है और सभी सदस्य देश उस दिशा में प्रामाणिक प्रयास कर रहे हैं, मग़र फिर भी वास्तव में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से शुरू हुई आर्थिक मंदी (रिसेशन) के कारण – ‘हर एक युरोपीय नागरिक को रोज़गार’ यह लक्ष्य साध्य करने में दिक्कतें आ रही हैं।

दूसरी बात – कई राष्ट्र पूर्वानुभव के कारण, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आयी अपनी आपसी दुश्मनी भुलाने के लिए तैयार नहीं हैं। फिलहाल हालाँकि किसी भी देश का किसी के भी ख़िला़फ प्रत्यक्ष युद्ध शुरू नहीं है, मग़र फिर भी ऐतिहासिक समय से चलती आयीं कुछ दुश्मनियाँ वैसी ही जारी रखना कुछ देश पसन्द करते हैं और ऐसे (पीढ़ीजात दुश्मन) राष्ट्र के नागरिकों के लिए तो कम से कम हमें ‘इमिग्रेशन चेक’ रखना ही होगी, ऐसी भूमिका अपनाते हुए दिख रहे हैं। कई देशों में चल रहे गृहयुद्ध (सिविल वॉर्स), अस्थिरता इनके कारण वहाँ के नागरिक इस – ‘ईयू’ के ‘किसी भी सदस्य राष्ट्र में ईमिग्रेशन चेक के बिना प्रवेश मिलने के’ प्रावधान के कारण – दूसरे देशों में स्थानान्तरित हो रहे हैं। ऐसे निर्वासितों के रेलों का करना क्या है, यह यक्षप्रश्‍न भी उस उस देश के सामने खड़ा है। ख़ासकर ‘ईयू’ के सदस्य देशों में, पहले सोव्हिएत संघ से अलग होकर बने जो राष्ट्र हैं, उनके बारे में यह समस्या अधिक ही स्पष्ट रूप में दिखायी दे रही है।

सन १९९९ में युरोपीय महासंघ की खुद की, ऐसी एक मुद्रा अस्तित्व में लायी गयी – ‘युरो’। सन २००१ तक १२ सदस्य राष्ट्र संपूर्णतः ‘युरो’ इसी मुद्रा का स्वीकार करने के लिए राज़ी हो गये और उन्होंने अपनी स्थानीय मुद्राएँ खारिज़ कर दीं।

तीसरी बात – एकसामायिक मुद्रा (करन्सी) की। किसी भी देश की पहचान जिस प्रकार उसका राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रगीत जैसे मानचिह्न होते हैं, उसी प्रकार आर्थिक क्षेत्र में उसकी पहचान उसकी मुद्रा होती है; जैसे कि ब्रिटन का पौंड, फ़्रान्स का फ़्रँक, जर्मनी का मार्क इ. लेकिन जब एक ‘महादेश’ के रूप में एकत्रित होने का तय किया गया, तब ख़ास युरोप का ऐसा एक ध्वज, ख़ास युरोप का ऐसा राष्ट्रगीत यह सब निश्‍चित किया गया, लेकिन मुख्य अड़चन मुद्रा की थी। अभी भी सदस्य राष्ट्रों में उनकी खुद की ही पारंपरिक मुद्राएँ इस्तेमाल की जा रही थीं। किसी भी आंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवहार में, इन सारी मुद्राओं की हररोज़ बदलनेवालीं आपस-सापेक्ष क़ीमतें यह एक दिक्कत रहती ही है।

सन १९९९ में यह रोड़ा दूर हटाने की दृष्टि से युरोपीय महासंघ की खुद की, ऐसी एक मुद्रा अस्तित्व में लायी गयी – ‘युरो’। सन २००१ तक सदस्य राष्ट्रों में ‘युरो’ तथा उस उस देश की स्थानीय मुद्रा ऐसी दो मुद्राएँ समांतर रूप में अस्तित्व में थीं। सन २००१ में १२ सदस्य राष्ट्र संपूर्णतः ‘युरो’ इसी मुद्रा का स्वीकार करने के लिए राज़ी हो गये और उन्होंने अपनी स्थानीय मुद्राएँ खारिज़ कर दीं। लेकिन ब्रिटन, डेन्मार्क जैसे देशों ने संपूर्णतः ‘युरो’ मुद्रा का स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। ‘ईयू’ का यह सारा क्रियाकलाप और प्रवास ‘आर्थिक स्थिरता में से राजनीतिक स्थिरता’ इस संकल्पना पर आधारित था। राजनीतिक दृष्टि से एक महा‘देश’ होने की दिशा में एक अहम कदम के तौर पर हालाँकि ‘युरो’ का निर्माण हुआ था, लेकिन यहीं पर से कई समस्याओं की शुरुआत हो गयी।

उनमें से सबसे स्पष्ट रूप में दुनिया के सामने आयी, वह ग्रीस की समस्या। युरो का ‘मुद्रा’ के रूप में स्वीकार करने से पहले ग्रीस की मुद्रा ‘ड्राचमा’ यह थी, जो कि कमज़ोर थी। उसीके साथ, ग्रीस की अर्थव्यवस्था बहुत ही अनुशासनहीन थी। प्रचंड बढ़ता हुआ सरकारी खर्चा, लेकिन उसके सामने सरकारी तिजोरी में आनेवाली आय में लगातार घटौती (इसका कारण : वहाँ के नागरिकों द्वारा बढ़ती कर की चोरी और सरकार का उसके खिला़फ़ निष्प्रभ रवैया), उसके कारण गत कई वर्षों से ग्रीस का बजट बढ़ते घाटे का था। जब तक ‘ड्राचमा’ मुद्रा अमल में थी तब तक, कम पड़ रही मुद्रा की अतिरिक्त छपाई करके ऐसा दिखाया जाता था की यह घाटा पूरा हो गया! लेकिन वास्तव में यह अर्थव्यवस्था के नियमों से विपरित था, इस कारण यह घाटा बढ़ता ही गया। आगे चलकर ‘युरो’ का स्वीकार करने के बाद हालाँकि नया कर्ज़ा लेने में आसानी हो गयी, लेकिन कुछ समय बाद सारी पोल खुलना शुरू हुआ। सन २००४ में अर्थव्यवस्था पूरी तरह डूब चुकी होने के बावजूद भी ‘अथेन्स ऑलिंपिक्स’ का बड़े ही ठाटबाट से आयोजन किया गया। इसका अतिरिक्त बोझ ग्रीस की अर्थव्यवस्था पर पड़ गया और सन २०१० में ग्रीस बँकरप्सी की दहलीज़ पर खड़ा हुआ। लेकिन उस समय ‘ईयू’ के सदस्यों ने ‘संघवृत्ति’ दिखाकर सन २०१० के मई महीने में ग्रीस के लिए ११० अरब युरो का ‘बेलआऊट पॅकेज’ घोषित किया, लेकिन ग्रीस पर एक नियत कालमर्यादा में अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने की शर्त रखी गयी। मग़र उसका कुछ भी उपयोग नहीं हुआ। ग्रीस के राष्ट्राध्यक्ष द्वारा घोषित किये गये – सरकारी नौकरों के वेतन में कटौती करना, कुल मिलाकर पूरे सरकारी खर्चे में ही कटौती करना और नागरिकों के करों में वृद्धि करना – ये उपाय वहाँ के नागरिकों के असंतोष का कारण बन गये हैं; और आर्थिक अनुशासनहीनता के कारण, बेशुमार सरकारी खर्चा करने की प्रवृत्ति के कारण सन २०११ में ग्रीस पुनः बँकरप्सी की कगार पर खड़ा हुआ। लेकिन ‘ईयू’ के अन्य सदस्यदेश अभी भी अपने ‘भाई को’ डूबता देखने के लिए तैयार नहीं थे। इस कारण एक और १०९ अरब युरो का पॅकेज उनके लिए घोषित किया गया। लेकिन जब तक ग्रीस के नागरिकों में स्वयं-अनुशासन तथा राष्ट्रीय भावना नहीं आयेगी, तब तक ऐसे कितने भी पॅकेजेस उन्हें दिये गये, फिर भी उसका कितना उपयोग होगा, पता नहीं!

लेकिन इस सारे प्रॉब्लेम्स के बावजूद भी, ‘ईयू’ यह सामूहिक संघभावना का यक़ीनन ही प्रतीक साबित होगा, ऐसा विश्‍वास कई लोग ज़ाहिर कर रहे हैं। उन देशों में से जो प्रामाणिकता से, संघभावना से प्रयास कर रहे हैं, उन्हें इस तरह समूह में बने रहने से यक़ीनन ही फ़ायदा हुआ है। लेकिन एक समूह के तौर पर काम करने के प्रवास में उनसे हुईं गलतियाँ भी हमारे सामने हैं, उन्हें हम अनदेखा न करें।

‘अगला ठोकर खाये, पिछला देखकर कुछ सीखें’ यह कहावत केवल स्कूल में रटने तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए!

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