समय की करवट (भाग १६)- ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ : झुँड़ का मानसशास्त्र

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

यह समय की करवट कई बार सैंकड़ों-हज़ारों सालों के बाद बदलती होने के कारण और सैंकड़ों-हज़ारों सालों तक वह स्थिति क़ायम रहती होने के कारण (और स्वाभाविक रूप में, उसके नाम में रहनेवाले ‘समय’ इस शब्द के कारण) बहुत ही बड़ी – अमानवी बात प्रतीत होती है। एक ओर से वह है भी वैसी। यह समय की करवट बदलते समय वैश्‍विक स्तर पर; या फिर कम से कम एकाद देश के समाजजीवन पर दूरगामी परिणाम होते हैं। लेकिन कई बार ठीक से अध्ययन करने पर यह बात ध्यान में आती है कि यह समय की करवट बदलने में मानवी घटक का ही अधिक सहभाग है।

मिसाल के तौर पर हम संपन्न पश्‍चिमी देशों का उदाहरण देखते हैं। हमारे आधुनिक इतिहास में पश्‍चिमी देश एवं संपन्नता इनका ऊपरी तौर पर तो अटूट रिश्ता दिखायी देता है। बीसवीं सदी में मानवी जीवन को अलग ही – वैज्ञानिक दिशा देनेवालीं लगभग सभी वैज्ञानिक खोजें पश्‍चिमी देशों में ही लगी हैं। विदेश होकर आये कई लोग वहाँ की संपन्नता का वर्णन करते ही रहते हैं। अर्थात्, संक्षेप में, उन्हें जीवन में किसी भी चीज़ के लिए खर्च करने के लिए दस बार सोचने की ज़रूरत नहीं है, ऐसी ही हमारी धारणा यह सुनकर हो जाती है।

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जब ९९ लोग यहाँ पर कचरा फेंक रहे हैं, तब मेरे अकेले के कचरा ना फेंकने से क्या होगा, ऐसा सोचते सोचते ही ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ बनने लगती है।

(विदेश की संपन्नता का वर्णन करने की बात से एक मज़ेदार बात याद आयी। कई बार इस संपन्नता के साथ ही, वहाँ के समाज में रहनेवाले स्वयं-अनुशासन की बातों का वर्णन भी किया जाता है और उस देश की तुलना हमारे देश के साथ करते समय – ‘नहीं तो हमारे यहाँ के लोग….’ इस प्रकार की जाती है। लेकिन यह बयान करनेवाले, स्वयं यहाँ पर आने के बाद कहाँ तक स्वयं-अनुशासन का पालन करते हैं, भगवान ही जानें। वहाँ हो आये लोगों में से एकाद इन्सान की इच्छा हो भी सकती है कि मैं यहाँ पर भी वहाँ के जैसा स्वयं-अनुशासन का पालन करूँ; लेकिन मेरे ईर्दगिर्द रहनेवाले ९९ लोग जब अनुशासन का पालन नहीं करते, तो मेरे अकेले द्वारा उसका पालन करने से क्या होनेवाला है, ऐसा ‘सब्जेक्टिव्ह’ मायूसीभरा विचार आख़िरकार उनमें से कइयों के मन पर हावी हो जाता है और अन्त में वे भी कदम कदम पर निषेध दर्ज़ करते हुए (‘अन्डर प्रोटेस्ट’) ही सही, लेकिन इस ९९ अनुशासनहीन लोगों के झुँड़ का ही – ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ का ही भाग होकर रह जाते हैं।)

ख़ैर! तो आगे चलकर – ‘खर्च करने के लिए दस बार सोचने की ज़रूरत नहीं है’ इस बात की आदत पड़ जाने से धीरे धीरे यह घटक ‘खर्च करते समय एक बार भी न सोचना’ इसमें परिवर्तित हो जाता है।

इसीमें से फिर समाज अपनी औक़ात (क्षमता) का विचार न करते हुए खर्च करने लगता है और….कर्ज़ के भँवर में फँस जाता है।

ज़ाहिर है, फिर कल तक संपन्न देशों में गिनती होनेवाला वह देश भी कर्ज़ में डूब जाता है….अब अस्तित्व बनाये रखने के लिए संघर्ष शुरू होता है।

अर्थात्, उस देश के लिए समय ने करवट बदली। कल तक दैनंदिन आर्थिक परेशानियों से मुक्त माना जानेवाला वह देश अचानक करवट बदले समय के बोझ तले कुचला जाने के आसार दिखायी देने लगते हैं।

इसीका अर्थ, उस विशिष्ट देश के लिए यह समय की करवट बदलने में मानवी घटक का ही अहम सहभाग है।

यहाँ पर उस समाज ने झुँड़ की तरह बर्ताव किया….केवल अपने खुद का ही विचार उसने किया….देश का विचार पीछे छूट गया।

हम भी कई बार ऐसा ही बर्ताव करते हैं। पड़ोसी घर में फलाना फलाना चीज़ ले आया, इसलिए मैं भी वह लाऊँगा ही, फिर चाहे मेरी उतनी क्षमता हों या ना हों। मेरी क्षमता न रहते हुए भी मैं केवल मेरे गाँव के/रिश्तेनाते के/बिरादरी के लोग क्या कहेंगे इस डर से धूमधड़ाके से बेटी की शादी करूँगा; या फिर कल तक मैं बड़े शानोशौकत में रहता था और आज यदि बेटी की शादी सादगी से की, तो कल तक जिनपर मैं मेरा रोंब जमाता रहा, वे सगेसंबंधी क्या कहेंगे, इस संकोच की वजह से कर्ज लेकर मेरी बेटी की शादी करूँगा और अहम बात यह है कि इस बात से किसी का भी कोई भी लेनादेना नहीं रहेगा;

मुझे पैसों की फिक्र नहीं है, इसलिए मैं ऐयाशी में ज़िन्दगी गुजारूँगा, गाड़ियाँ ख़रीदूँगा, ज़रूरत न रहने पर भी हॉटेलिंग करूँगा;

आज पृथ्वीस्थित प्राकृतिक ऊर्जासाधनों की राशि तेज़ी से ख़त्म होने की कगार पर रहने के कारण, हमें चाहिए की उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करते समय सावधानी बरतें। हम आजूबाजू के हज़ारों लोगों को देखते हैं कि उन्हें ऐसी आदत ही नहीं है। या फिर कई बार हम स्वयं ने भी उस प्रकार का बर्ताव किया होता है। उदा. कमरे से बाहर जाते समय पंखा बंद करके न जाना, घर में एक ही समय चार चार एअरकंडिशनर्स चालू रखना आदि अनगिनत बातें हैं। और इनमें से किसी को भी यदि कोई मशवरा देने जायें, तो ‘अरे, बिजली का बिल मैं भर रहा हूँ ना, फिर तेरा क्या जाता है?’ ऐसा मुँह पे सुनाने भी कई लोग बाज़ नहीं आते;

ये सब ‘झुँड़’ मानसिकता की ओर मुड़ने के लक्षण हैं।

पहले जब ऐसी बातें देखता था, तब ‘क्यों इस तरह पैसा बरबाद करते हैं ये लोग?’ ऐसा विचार मन में आ जाता था। लेकिन अब बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती, बल्कि वह उससे बहुत आगे निकल गयी है। ‘पैसे तुम्हारे हैं, तुम जैसे चाहो उड़ाओ, हमें उससे कुछ भी लेनादेना नहीं है। लेकिन देश के ऊर्जासंसाधनों को बरबाद क्यों करते हो’ ऐसा सवाल आजकल दिमाग में आता है। यहाँ पर किया गया मितव्ययिती का उपदेश यह उनके पैसे बचाने के लिए न होकर, देश के संसाधनों का नाश न हों, इसलिए होता है।

यहाँ पर हम स्वयं-अनुशासन-बद्ध देशवासियों के एक समूह के रूप में बर्ताव नहीं कर रहे, बल्कि केवल अपना स्वार्थ ही देखनेवाले सदस्य रहे एक झुँड़ जैसा बर्ताव कर रहे हैं।

किसी भी समाज में जब बहुत समय तक यह इसी तरह चालू रहता है, तब वहाँ के समाज के लिए समय करवट बदलना शुरू कर देता है।
इतिहास के बारे में दो बातें हमें हमेशा ही सुनायी जाती हैं –

एक यानी ‘इतिहास की पुनरावृत्ति होती है’ (हिस्टरी रिपीट्स इटसेल्फ) और

दूसरी यानी ‘इतिहास से हम कुछ भी नहीं सीखते।’

दरअसल इतिहास को खुली आँखों से देखें, तो यह हमारी समझ में आयेगा कि कई बार हम इतिहास से कुछ भी नहीं सीखते, इसीलिए इतिहास की पुनरावृत्ति होती है।

आँठवीं-नौंवीं सदी के बाद भारत पर विदेशी आक्रमण हुए, तब रहनेवाली सामाजिक स्थिति और अठारहवीं सदी में पेशवाई के अस्त के समय में जब अँग्रेज़ों ने हमारा घात किया, तब हमारे देश में रहनेवाली सामाजिक स्थिति, इनमें बहुत ही साम्य (सिमिलॅरिटी) दिखायी देगा। जीवन के बारे में खुलीं आँखों से न सोचना, सावधानता न रहना, देशाभिमान कम होना, केवल खुद के बारे में सोचना और स्वयं के सामने देश के विचार को कोई स्थान ही न रहना ऐसी कई बातें दोनों दौर में समान थीं।

क्या वर्तमान में भी वैसा ही हो रहा है?

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