समय की करवट (भाग ९ ) – ग्लोबलायझेशन – तब और अब….

‘समय ने करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

अमरीका शुरू से ही मुक्त व्यापार के पक्ष में थी। ‘सर्व्हायवल ऑफ द फ़िटेस्ट’, ‘प्रायव्हेटायझेशन’, ‘ग्लोबलायझेशन’ ये अमरीका के मूलमंत्र थे, जो अपनी ताकत के बलबूते पर उन्होंने सारी दुनिया के माथे पर थोंप दिये थे। उसके लिए अमरीका को, विकास में अब तक रेंगनेवाले कई विकसनशील देशों के हाथ मरोड़ने पड़े, उन्हें लालच दिखाने पड़े।

‘ग्लोबलायझेशन’ यह संकल्पनास्तर पर वैसी अच्छी बात है। दुनियाभर की अच्छी चीजें हमारे घर तक आती हैं। हमारे देश में तैयार हुईं चीज़ें दुनियाभर में जाती हैं। प्रतियोगिता बढ़ती है और इस कारण, यदि प्रतियोगिता में टिके रहना हो, तो कुल मिलाकर उत्पादों का दर्जा अधिक से अधिक सुधारा जाता है। यह सब यक़ीनन ही अच्छा है, क्योंकि इसमें ग्राहक का फ़ायदा अभिप्रेत है। क्या वास्तव में ऐसा होता है, यह हम बाद में देखने ही वाले हैं। लेकिन उससे पहले, ‘ग्लोबलायझेशन’ यह संकल्पना भारत के लिए नयी नहीं है, यह हमें मालूम रहना चाहिए।

Kaalachi-Kus-009-Silk_route- ‘ग्लोबलायझेशन’

दरअसल ग्लोबलायझेशन के साथ भारत का परिचय हज़ारों साल पुराना है, लेकिन तब उसे ‘ग्लोबलायझेशन’ ऐसा लुभावना नाम दिया नहीं गया था। हज़ारों वर्षों से भारत में पूरी दुनियाभर से यात्री तथा व्यापारी आते रहे हैं। आते समय वे अपने अपने देश की अच्छी चीज़ें लाकर भारत में बेचते थे, भारत में बनीं वस्तुएँ अपने देश में ले जाकर बेचते थे। अगले ऑर्डर्स देकर और लेकर जाते थे। यह एक क़िस्म का ‘ग्लोबलायझेशन’ ही तो था। लेकिन उस ‘ग्लोबलायझेशन’ में दोनों पक्षों का फ़ायदा होता था और दोनों पार्टियाँ खूश रहती थीं। संकल्पना-अवस्था के ‘ग्लोबलायझेशन’ का वह वास्तविक अर्थ से प्रकटीकरण था। इसीसे तो भारतीय मसालें, चंदन, वस्त्र आदि की ख़ासियत के बारे में पूरी दुनिया जान चुकी थी।

लेकिन यही ‘ग्लोबलायझेशन’ उस समय भी भारत के लिए घातक साबित हुआ।

भारत आकर गये यात्रियों ने एवं व्यापारियों ने अपने अपने देश जाकर भारत की समृद्धि का गुणगान किया। ‘सोने का धुआँ’ निकलनेवाले भारत के वैभव के वर्णन सुनकर विदेशी सत्तापिपासुओं के मुँह से लार टपकने लगी। उस समय तक भारतीय भी अपने वैभव में मश्गूल रहने लगे थे। पूजन-अर्चन-व्रत इनमें रहनेवाले कर्मकांड में ज़रूरत से ज़्यादा ही फँसकर अपने क्षात्रतेज को भूल चुके थे। चौकन्ने न रहने के कारण बदलती हवाओं का भारतीयों को अँदाज़ा नहीं हुआ। इससे इन विदेशी आक्रमकों को अच्छाख़ासा मौका मिला और उन्होंने भारत पर किये आक्रमण क़ामयाब होने लगे।

फिर समय ने करवट बदली। भारत पर आक्रमकों का शासन शुरू हुआ। ऐसे सात-आठ सौ साल बीत गये।
आगे चलकर प्रखर क्षात्रतेज से ओतप्रोत भरे शिवाजी महाराज ने अपने मुल्क को ज़ुल्मी मुघलों के चंगुल से मुक्त किया और स्वराज्य की स्थापना की। प्रधानमंत्री पेशवा की मदद से अपने लोकाभिमुख शासन को स्थापित कर जनता को सुखी किया। सात-आठसौ साल बाद पुनः समय ने करवट बदली थी।

छत्रपति की सहायता करने के लिए नियुक्त किये गये प्रधानमंत्री ने – पेशवा ने तो आगे चलकर, छत्रपति की ओर से ‘राज्यप्रमुख’ का दर्जा प्राप्त होने के बाद अटक (अटक=आज के पाक़िस्तान के वायव्य सरहदी प्रांत (प़ख्तूनिस्तान) का एक गाँव) के पार अपना झँड़ा फ़हरा दिया। सन १७४९ से पूरी सत्ता हाथ में आये पेशवा ने सन १७६० तक वैभव की बुलन्दी को छू लिया। लेकिन आगे चलकर इस स्वराज्य का पतन शुरू हुआ। उन्नीसवीं सदी शुरू होने तक हम फिर से जाप-अनुष्ठान, व्रत आदि के कर्मकाण्डों में फँस गये। इसका फ़ायदा, व्यापार की आड़ में भारत में चंचुप्रवेश किये अँग्रेज़ो ने उठाया। इस व्यापार के उपलक्ष्य से युरोपीय वस्तुओं की पहचान हालाँकि भारत को हुई (फिर एक बार ग्लोबलायझेशन), मग़र अँग्रेज़ों के ईरादें नेक़ नहीं थे।

भारत यह अँग्रेज़ों को ‘सोने का अंड़ा देनेवाली मुर्ग़ी’ प्रतीत हो रही थी। उन्होंने असावधान भारतीय मानसिकता का फ़ायदा उठाया। वैसे देखा जाये, तो सन १७५७ की प्लासी की लड़ाई के बाद अँग्रेज़ों ने यहाँ पर अपना तंबू गाड़ दिया ही था। अब उन्होंने ‘येनकेनप्रकारेण’ यहाँ के रियासतकारों को अपने मांडलिक बनाते हुए भारत पर एकछत्री अमल स्थापित किया।

समय ने फिर से करवट बदली। भारत अब एक-दो नहीं, बल्कि पूरे डेढ़-सौ सालों तक अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में फँस गया।

अँग्रेज़ों के साथ का भारत का यह ‘ग्लोबलायझेशन’ का पूर्वानुभव भी बुरा ही साबित हुआ। यहाँ पर अँग्रेज़ों ने भारत का इस्तेमाल स़िर्फ इंग्लैंड़ को कच्चे माल की आपूर्ति करनेवाला देश और उस कच्चे माल का रूपांतरण इंग्लैंड़ में पक्के माल में होने के बाद उस पक्के माल की बिक्री करने का मार्केट इतना ही किया। यह अनुभव भुलाते भी भुलाया नहीं जा रहा था।

इसीलिए अँग्रेज़ों की ग़ुलामी से स्वतंत्र हो जाने के बाद भारत ने चौकन्ने कदम उठाते हुए ‘संरक्षित व्यापार नीति’ (प्रोटेक्टेड़ ट्रेड़ पॉलिसी) का स्वीकार किया। अधिकांश व्यापारी नीतिनियम के निर्णय, ये लायसन्सेस और परमिट्स के माध्यम से सरकारी नियंत्रण में रखे।

इसी कारण दुनियाभर में भारत का उल्लेख ‘परमिट राज एवं लायसन्स राज’ ऐसा कुत्सिततापूर्वक किया जाता था।

भारत की प्रचंड जनसंख्या यह इन विकसित देशों को अपने उत्पाद बेचने के लिए एक लुभावने हरेभरे घास के मैदान की तरह प्रतीत हो रही थी और उस मैदान में घुसने के आड़े भारत की संरक्षित व्यापारी नीति आ रही थी। उन्होंने भारत को ‘ग्लोबलायझेशन’ का स्वीकार करने पर मजबूर करने का फ़ैसला किया।
कैसे? वह देखेंगे अगले भाग में।

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