समय की करवट (भाग २०)- आत्मपरीक्षण

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं|

आगे चलने से पहले आज थोड़ा रुककर इस लेखमालिका में आज तक हमने किन बातों का अध्ययन किया, वह देखते हैं|

जिस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के माध्यम से अँग्रेज़ों ने व्यापार के बहाने भारत में चंचुप्रवेश करके, उसके बाद असावधान एवं आत्मकेंद्रित भारतीयों को फँसाकर आगे डेढ़सौ साल अपनी ग़ुलामी में रखा, उस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ को एक अनिवासी भारतीय (एनआरआय) ने ख़रीद लिया, इस घटना से इस लेखमालिका की शुरुआत हुई| यहॉं पर समय का एक ‘सर्कल’ पूरा हुआ, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है| जो कंपनी भारत को ग़ुलामी में रखने का साधन बनी थी, उसी कंपनी का उन्हीं भारतीयों में से एक ने अधिग्रहण किया, यह घटना समय की करवट बदलने का ही निदर्शक थी|

सबसे पहले ‘समय की करवट’ यानी क्या, यह हमने देखा| जब दुनिया में, समाजों में कई सैंकड़ों सालों बहुत बड़े परिवर्तन-स्थित्यंतर-संक्रमण होते हैं, तब ‘समय ने करवट बदली’ ऐसा बोलने की परिपाटी है| जब हम नींद में करवट बदलते हैं, तब कई बार करवट बदलने से पहले अपने बदन के नीचे अटकी हुई चीज़े खुली होकर, करवट बदलने के बाद दूसरीं कुछ चीज़ें बदन के नीचे अटकने की संभावना होती है, यह हमने देखा|

आज कुल मिलाकर दुनिया के बारे में सोचा, तो दुनिया, ख़ासकर भारत यह संक्रमण (क्रॉसरोड) के पड़ाव पर खड़ा हुआ दिखाई देता है| डेढ़सौ साल समय की करवट के चंगुल में कुचला जाने के बाद जब समय ने करवट बदली, अर्थात् भारत को आज़ादी मिली, उसके पश्‍चात् के कुछ वर्ष रेंगते हुए प्रगति करने के बाद, आज अपने पैरों पे खड़ा होकर इक्कीसवीं सदी का भारत किस तरह दौड़ लगाने के लिए, एक महासत्ता बनने के लिए सिद्ध है, यह हमने देखा|

लेकिन इस भारत को महासत्ता बनने में रोड़ा बन रहा है, उसीके अंतर्गत हुआ बँटवारा – भारत बनाम इंडिया का यानी शहरी भारत और ग्रामीण भारत का| आज़ादी मिली, भारत का वैज्ञानिक विकास हुआ, ऐसा भले ही ऊपरि तौर पर दिख रहा हो, लेकिन यह विकास मुख्य रूप से किस तरह शहरी इलाक़े में ही हुआ है, इसका भी हमने ‘हरि एवं हॅरी’ के उदाहरण से अध्ययन किया| एक बार यदि ‘हरि’ भारत से शिक्षा अर्जित कर विदेश गया कि किस तरह वहॉं की चकाचौंध रोशनी से मोहित होकर वह अपना ‘हरि’ यह भूतकाल मिटाने के लिए ‘हॅरी’ बनने की कोशिश करता है, यह हमने देखा और उसके पीछे – ‘मॅकॉले’ ने भारत पर थौंपी हुई – रुटिन ऑफिस के लिखापढ़ी के काम करनेवाले और शारीरिक मेहनत मज़दूरी के काम कर सकनेवाले इन्सान बनाने का कारख़ाना रहनेवाली शिक्षापद्धति ने तैयार की हुई पराजित मानसिकता कैसे है, इसका भी हमने अध्ययन किया|

शुरुआती दौर में हालॉंकि ‘हॅरी’ विदेश जाकर भौतिक दृष्टि से सुखी हो चुका ज़रूर प्रतीत हुआ, मग़र आगे समय ने अलग ही मोड़ ले लिया| आर्थिक मंदी (रिसेशन) ने दुनिया के हाथपैर जकड़ना शुरू किया| तब तक एकदम ‘क्लासी’ उत्पादनों के लिए पॅरिस, मिलान के अलावा अन्य कहीं पर न देखनेवालीं और भारत तो गिनती में ही न रहनेवालीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों (मल्टिनॅशनल्स) को बदली हुई इस आर्थिक तंगी की परिस्थिति में अचानक भारत यह हराभरा घास का मैदान (‘मीडो’) – ‘मार्केट’ कैसे दिखायी देने लगा और उसका फ़ायदा उठाने के लिए अधिक से अधिक कंपनियॉं अपने उत्पादन आदि व्यवहार भारत में ही करने के पीछे क्यों पड़ी हैं, यह हमने देखा|

इसी कारण, विदेश जाकर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी करने में धन्यता महसूस करनेवाले ‘हॅरी’ को, चूपचाप अपनी ही कंपनी के ‘इंडिया ऑफिस’ में सर्व्ह करने के लिए भारत आकर ग्रामीण भारत का – अर्थात् ‘हरि’ का अनुनय किस तरह करना पड़ रहा है, इस बात को भी हमने जान लिया|

उसके बाद केवल इन हॅरियों को दोष देने के बजाय, यह ‘हरि-हॅरी’ मानसिकता (मेंटॅलिटी) हममें भी सीधे सरल व्यवहारों में भी किस तरह खेलती रहती है, यह हमने देखा| ‘विदेशी होनेवाला सबकुछ अच्छा’ इस परास्त मानसिकता के कारण कोई भी उत्पादन – फिर चाहे वह मोबाईल हो या टीव्ही-फ्रीज, हमारा रूझान विदेशी उत्पादन ख़रीदने की ओर कैसे रहता है, इसका हमने अध्ययन किया|

उसके बाद हमने ‘ग्लोबलायझेशन’ इस संकल्पना का अध्ययन किया, जिसमें ‘ग्लोबलायझेशन’ के तहत अपेक्षित क्या है और वास्तविक रूप में हो क्या रहा है, इसपर हमने ग़ौर किया| ‘ग्लोबलायझेशन’ यह दरअसल भारत के लिए किस तरह नयी बात नहीं है और प्राचीन समय से दुनिया के देशों के साथ भारत का किस तरह व्यापार चल रहा था, जिसमें दुनिया भर की अच्छी चीज़ें किस तरह दुनिया के अन्य भागों में सर्वत्र जाती थीं, यह हमने देखा| वह सही मायने में ‘ग्लोबलायझेशन’ था| लेकिन आधुनिक युग में ‘ग्लोबलायझेशन’ यह शुरुआती दौर में किस तरह भारत का हाथ मरोड़कर भारत पर थोंपा गया, यह हमने देखा| उस समय दुनिया के अमीर देशों ने, ‘ग्लोबलायझेशन’ के बहाने भारत में लायी हुईं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ज़रिये केवल अपना माल भारत में बेचते समय, अपने अपने देशों में केवल उनके स्थानीय उद्योगों को ही किस तरह प्राथमिकता दी, यह हमने देखा|

भारत यह शुरुआती दौर में तो इन मल्टिनॅशनल्स के लिए अच्छाखासा हराभरा घास का मैदान (मीड़ो) साबित हुआ| उसके लिए हमारी ‘हॅरी’ मानसिकता ही इन मल्टिनॅशनल्स के काम आयी|

उसके बाद हमने जागतिक रिसेशन के दौर में इन कंपनियों के लिए आशा की किरण साबित हुए भारतीय मध्यमवर्ग का और उनकी मानसिकता का भी अध्ययन किया| संस्कृतिरक्षा की क्षमता होनेवाले मध्यमवर्ग को जब अपने पारंपरिक मूल्य ‘बोझ’ प्रतीत होने लगकर, वे उन्हें ‘दक़ियानुसी’ क़रार देकर त्यागना चाहता है, तो उसके क्या परिणाम होते हैं, यह हमने इसमें देखा| यहॉं पर मध्यमवर्गीय को सबसे पहले अपना इन्फिरिऑरिटी कॉम्प्लेक्स त्यागकर, अपने ‘मध्यमवर्गीय’ होने पर किस तरह गर्व होना चाहिए, यह हमने जान लिया| बचपन से मध्यमवर्गीय माहौल में पलेबढ़े होने के कारण, दोस्तों-रिश्तेदारों की रईस, चकाचौंध दुनिया में कदम रखते ही मध्यमवर्गीय बच्चें किस तरह हमेशा इन्फिरिऑरिटी कॉम्प्लेक्स में जीते हैं, यह हम अपने खुद के उदाहरण से भी जानते हैं| लेकिन इस रईसी का ही प्रतीक रहनेवालीं मल्टिनॅशनल्स यदि इन मध्यमवर्गियों की ओर ‘अपना त्राता’ इस दृष्टि से उम्मीदपूर्वक देख रहे हैं, तो मध्यमवर्गियों ने अपने मध्यमवर्गियत्व का इन्फिरिऑरिटी कॉम्प्लेक्स नहीं, बल्कि उसपर गर्व ही करना चाहिए, यह हमने सिखा|

उसके बाद, ये मल्टिनॅशनल्स भारत के मध्यमवर्ग की ओर ‘हमारे उत्पादन ख़रीदने की ताकत रहनेवाला एक समूह’ इस दृष्टि से देख रहे होने के कारण, हमने ‘समूह की मानसिकता’ का – ‘मास मेंटॅलिटी’ का भी थोड़ा अध्ययन किया| यह मास मेंटॅलिटी यदि सुचारू रूप से अभिव्यक्त हुई और समाज एक अनुशासनबद्ध समूह की तरह आचरण करने लगा, तो क्या चमत्कार हो सकता है, यह भी हमने देखा; और यदि वह बुरी तरह अभिव्यक्त हुई यानी यदि समाज में झुँड़प्रवृत्ति बढ़ गयी, तो क्या होता है इसका भी हमने अध्ययन किया| यह झुँड़प्रवृत्ति (हर्ड मेंटॅलिटी) हममें भी किस तरह रहती है और सीधीसादी बातों में भी हम स्वतंत्र फैसले न करते हुए औरों को देखकर ही किस तरह फैसलें करते हैं, यह भी हमने देखा|

एक अनिवासी भारतीय
जब जब किसी देश का समाज झुँड़ की तरह बर्ताव करने लगता है….केवल खुद के बारे में ही सोचता है और देश का विचार पीछे छूट जाता है, तब तब उस समाज के लिए समय अनिष्ट दिशा में करवट बदलता है| भारत में तो यह गत हज़ारों वर्षों में कई बार हुआ है; और आज भी इतिहास की पुनरावृत्ति (रिपिटिशन) होती हुई दिखायी दे रही है| यदि हम वक़्त पर चौकन्ने नहीं हुए, तो फिर वही बातें दोहरानेवाली हैं| इसलिए हममें से हर एक को ‘आत्मपरीक्षण’ करना ज़रूरी है|

इस समूह की मानसिकता का अध्ययन करने का कारण भी हमने जान लिया| ‘समय की करवट’ यह कभीकभार भले ही सैंकड़ों वर्षों की गतिविधि है, मग़र फिर भी किसी देश के लिए यह समय की करवट बदलने में, उस देश के मानवों के आचरण का ही किस तरह महत्त्वपूर्ण सहभाग होता है, यह हमने देखा| जब जब वह समाज झुँड़ की तरह बर्ताव करने लगता है….केवल खुद के बारे में ही सोचता है और देश का विचार पीछे छूट जाता है, तब तब उस समाज के लिए समय अनिष्ट दिशा में करवट बदलता है| भारत में तो यह गत हज़ारों वर्षों में कई बार हुआ है; और आज भी इतिहास की पुनरावृत्ति (रिपिटिशन) होती हुई दिखायी दे रही है| जीवन के बारे में आँखें खुली रखकर विचार न करना, सावधानता न रहना, देशाभिमान का कम हो जाना, केवल अपने खुद के बारे में ही सोचना और अपने आगे देश का विचार ही न रहना, ऐसी कई बातें गत समय की तरह ही हममें दिखायी देने लगी हैं|

यदि हम वक़्त पर चौकन्ने नहीं हुए, तो फिर वही बातें दोहरानेवाली हैं| इसलिए हममें से हर एक को ‘आत्मपरीक्षण’ करना ज़रूरी है|

Leave a Reply

Your email address will not be published.