समय की करवट (भाग ७ ) – ‘गाँव की ओर चलो’

‘समय ने करवट’ बदलने पर क्या क्या हो सकता है, इसके परिणाम देखते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं। कल के ग़रीब आज के अमीर बनते हुए दिखायी दे रहे हैं और कल के अमीर आज के ग़रीब; और आज जो ग़रीब बनते जा रहे हैं, उन्हें अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, उन्हीं लोगों की ओर आशा से देखना पड़ रहा है, जिनपर कल तक उन्होंने हु़कूमत चलायी था; यही वह विचित्र दैवगति है, ‘समय का करवट बदलना’ है।

samay ki karvatलेकिन ‘वे विजेता’ और ‘हम पराजित’ यह पराभूत मानसिकता जब तक हमारे जद्दोजहन से नहीं जाती, तब तक हम चाहे कितनी भी तरक्की क्यों न कर लें, वह ‘छाननी में पानी भरने’ का ही क्रियाकलाप साबित होगा। मतलब – भारतीय कंपनियाँ जानतोड़ कोशिशें करके अच्छे उत्पाद निर्माण करेंगी, हमें उनपर गर्व भी महसूस होगा, लेकिन उत्पाद ख़रीदते व़क्त खरीदेंगे विदेशियों के ही; और भारतीयों की ऐसी मानसिकता रहने के कारण विदेशी हमपर हमेशा ही भारी रहेंगे। फिर चाहे वे हमपर प्रत्यक्ष रूप में शासन न करते हों, हम भले ही आज़ाद हों, लेकिन यह भी एक क़िस्म की मानसिक और आर्थिक गुलामी ही है।

‘हरी’ को धुतकारकर उसने गधापन किया है, यह जान चुके ‘हॅरी’ को अब किस तरह हरी के चरण पकड़ने हैं, यह हमने पिछली बार देखा। क्योंकि विदेशी उद्योजकों को अब अपने उत्पाद बेचने के लिए, सॅच्युरेट हुआ शहरी इंडिया का मार्केट नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत का हराभरा मार्केट दिखायी दे रहा है। यह ग्रामीण भारत कितनी अनगिनत समस्याओं से घिरा हुआ है, उससे इन विदेशी कंपनियों को कुछ भी लेनादेना नहीं है। महज़ ग्लॅमरस मॉडेल्स को लेकर चकाचौंध विज्ञापन तैयार करके ग्रामीण भारत, ख़ासकर वहाँ का युवावर्ग हमारे ही उत्पाद कैसे ख़रीदेगा, यही एकमात्र विचार इसके पीछे है और वह धीरे धीरे क़ामयाब होता जा रहा है, यह भी दिखायी दे रहा है।

आज ग्रामीण भारत में भी नव-तंत्रज्ञान की हवाएँ बहने लगी हैं। यहाँ पर पीने के पानी की समस्या भले ही हों; (वह तो क्या, कल भी थी, आज भी है और कौन जानें, शायद कल भी होगी) लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि हम मोबाईल्स इस्तेमाल ही न करें? अच्छे कपड़ें पहने ही नहीं?

हरगिज़ नहीं, ऐसा भला कौन सोचेगा? उलटे समस्याओं के भँवरों में डूबनेवाले को यदि कोई अच्छी चीज़ प्राप्त होती है, तो हमें यक़ीनन खुशी ही होगी। लेकिन यहाँ सवाल केवल अच्छे-बुरे का नहीं है, बल्कि अपनी ‘मनी पॉवर’ के बल पर भारत में घुसकर, भारतीय कंपनियों पर ही हावी होना चाहनेवालीं विदेशी कंपनियों का तथा भारतीय उत्पादों को नापसंदगी की खाई में धकेलनेवाले, ऐसी कंपनियों के उत्पादों का है।

इन्सान की ऐसी थोड़ीबहुत बाग़ी मानसिकता को ही ये कंपनियाँ शिकार बना रही हैं और अपने उत्पाद ग्रामीण भारत के माथे पर थोंपना चाह रही हैं। इसके लिए ग्रामीण भारत की व्ययशक्ति के अनुसार, उस अनुपात में अपने अपने प्रॉडक्ट्स में, उनकी क़ीमतों में तबदीली लाने को भी वे तैयार हैं। जब वस्तु बहुत ही सस्ती क़ीमत में बेचनी है, तो ज़ाहिर है, अधिकांश बार उत्पादन के दर्ज़े के साथ समझौता किया जाता है। ‘वह तुम जो चाहे करो, लेकिन दिया हुआ टार्गेट पूरा करो’ इस एक ही बॉटमलाईन का टेप, उस कंपनी के विदेशस्थित हेड ऑङ्गिस द्वारा बार बार बजाया जाता है।

भारत में यदि सारा ऑपरेशन नये सिरे से शुरू करना है, तो मॅनेजमेंट से लेकर कर्मचारियों तक सारा स्टाफ नये सिरे से ही भर्ती करना पड़ेगा। अरे, फिर हमारे ऑफिस में रहनेवाला वह ‘हॅरी’ किस काम का? वह भी ‘इंडियन’ ही है ना? तो भेज दो उसे ‘इंडिया’, कंपनी के इस इंडिया-ऑपरेशन का ‘इन-चार्ज’ बनाकर!

और इसी तरह, भारत से विदेश में शिक्षा हासिल करने गये और बाद में वहीं की बड़ी कंपनियों में नौकरी ढूँढ़कर वहीं पर सेटल हुए कई ‘हॅरियों’ को; उनकी मल्टिनॅशनल कंपनियों के इस ‘इंडिया ऑपरेशन’ के लिए भारत में पोस्टिंग मिल रही है, आकर्षक वेतनश्रेणि तथा अन्य भी लाभ (पॅकेज) मिल रहे हैं; और फिर अपने ‘घरवालों के नज़दीक’ भी रह सकता है ना वह! इसके बदले उसे करना क्या है, तो जिस विदेशी कंपनी के ‘इंडिया-ऑपरेशन’ के लिए उसे भारत भेजा गया, उस कंपनी के उत्पाद उसी के गरीब देशबन्धुओं के गले बाँधने हैं और विदेशस्थित अपने हेडऑफिस की जेब भरने के लिए भारत का पैसा भारत के बाहर ले जाना है, बस्स!

मग़र ‘घी देखा, लेकिन बड़गा नहीं देखा’! इस आकर्षक पॅकेज के साथ दिया जाता है, वह है टार्गेट; और विदेशी कंपनियों में केवल परफॉर्मन्स ही देखा जाता होने के कारण, यदि ‘हॅरी’ ग्रामीण भारत में अपनी विदेशी कंपनी के उत्पाद बेचने में नाक़ाम हुआ, तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाने ही वाला है। अतः कुछ भी करके ‘हॅरी’ को इस ग्रामीण भारत का यानी ‘हरी’ का अनुनय करना ही पड़नेवाला है।

यानी उसे करना क्या है, तो ‘हरी’ के ‘गुड बुक्स’ में रहना है, उसे उसकी कंपनी का उत्पाद ‘उसका अपना’ लगें इस तरह पेश करना है। आजकल हम देखते हैं कि कई विज्ञापनों में ग्रामीण इलाक़ा दिखाया जाता है या फिर ग्रामीण पार्श्‍वभूमि पर चित्रित किये हुए विज्ञापन ज़्यादा रहते हैं, वे – ‘हरी’ को वह विज्ञापन और वह प्रॉडक्ट ‘अपना’ लगें इसलिए ही।

मतलब, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी का – ‘गाँव की ओर चलो’ यह सुविख्यात संदेश अब अलग संदर्भ में हमारे सामने आ रहा है।

ऐसा यह ‘हरी-हॅरी’ का रिश्ता! एक तरफ़ से भावनिक और दूसरी तरफ़ से क्रूर कमर्शियल। हम लोग भी भले विदेश न गये हों, मग़र हमारी मानसिकता भी कई बार इस ‘हरि-हॅरी’ के खेल में फँसी हुई रहती है।

कैसे, वह देखते हैं अगले भाग में।

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