समय की करवट (भाग ६) – कठिनाई में फँसा ‘हॅरी’

‘समय ने करवट बदलने के’ भारत पर हो रहे परिणाम देखते हुए हम आगे जा रहे हैं। हमारा देश, आज़ाद हो जाने पर ‘शहरी’ तथा ‘ग्रामीण’ अर्थात् कई विश्‍लेषकों की राय में ‘इंडिया’ तथा ‘भारत’ इनमें किस तरह विभाजित हुआ है, इसका हम अध्ययन कर रहे हैं। उसमें हमने इस तरह विभाजन होने के पीछे के सामाजिक एवं शैक्षणिक कारण देखे।

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‘इंडिया’ की मानसिकता देखी। यह मानसिकता तैयार होने का कारण थोड़ाबहुत हमारी शिक्षापद्धति में भी है, यह भी हमने देखा। आँखों पर पट्टी बाँधकर केवल सौंपा हुआ काम ईमानदारी का साथ करनेवाले, लेकिन स्वतंत्र रूप में विचार करने की कुछ ख़ास क्षमता न रहनेवाले लोग तैयार करनेवाली शिक्षापद्धति अँग्रेज़ों ने अपने स्वार्थ के लिए भारत के सिर पर थोंप दी। आज़ाद भारत में हालाँकि उस शिक्षापद्धति में थोड़ाबहुत बदलाव हुआ है, मग़र फिर भी मूल ढ़ाँचा वही होने के कारण कई छात्रों की अँग्रेज़परस्त मानसिकता तैयार हो जाती है। मूलतः भारतीय रहनेवाला कोई ‘हरि’, देशप्रेम की बालघुट्टी न पिलानेवाली, अँग्रेज़परस्त शिक्षा हासिल कर किस तरह ‘हॅरी’ बन जाता है और मुख्य रूप से पहलेवाले ‘हरि’ से नाता तोड़ने के लिए किस तरह बेसब्र हो जाता है, वह भी हमने देखा। फिर इस तरह की मानसिकता रहनेवाले लोगों को हमारा देश ‘डर्टी और पुअर’ लगने लगता है और उनमें से कई लोग पहला मौक़ा पाते ही चकाचौंध विदेश में भाग जाते हैं।

विदेश की तुलना में अपने देश को गौण माननेवाली अँधी मानसिकता के कारण ‘हॅरी’ हालाँकि ‘हरि’ से नाता तोड़ने की कोशिश करता हो, लेकिन समय की करवट में छिपी हुईं कुछ अजीबोंग़रीब दैवगतियों के कारण नज़दीकी भविष्य में उसे पुनः ‘हरि’ से ही मेल बिठाना होगा ऐसे आसार दिखायी देने लगे हैं; क्योंकि भारत से नाता तोड़कर वह जिस विदेश में पैसा कमाने गया, वही विदेशी लोग अब अपने उत्पाद बेचने के लिए एक बड़े मार्केट के रूप में भारत की ओर….ख़ासकर ग्रामीण भारत की ओर देख रहे हैं। इसलिए ‘हॅरी’ को पसन्द हों या न हों, उसे अब ‘हरी’ के ही पैर पकड़ने होंगे।

१९८०-९० के दशकों में भारत द्वारा अपनायी गयीं कुछ निश्‍चित साहसी नीतियों के परिणाम दिखायी देने लगा और भारत एक विकसित देश बन जाने के मार्ग पर खड़ा रहा। तब तक केवल ‘अमीर देशों की मदद की बैसाखियों पर खड़ा एक ग़रीब विकसनशील देश’ ऐसी ही भारत की दुनिया में प्रतिमा (इमेज) थी। लेकिन पिछले दशक में अपनायी गयी उदार आर्थिक नीति के कारण यह प्रतिमा पूरी तरह बदलकर, दुनिया अब भारत की ओर ‘कल की महासत्ता’ के रूप में देखने लगी है।

लेकिन समय ने करवट बदलने के कारण भारत हालाँकि विकसित देश बनने के मार्ग पल चल रहा है, लेकिन कल तक अमीर माने जानेवाले कई देश दिवालिये बनने के मार्ग पर हैं। सोव्हिएत रशिया के विघटन के बाद अन्य कोई प्रतिस्पर्धी शेष न रहने के कारण कल तक दुनिया के एकमात्र ‘अनभिषिक्त’ महासत्ता मानी जानेवाली अमरीका को भी आर्थिक मंदी की आँच महसूस होने लगी है और केवल ‘कॅपिटॅलिझम’ यही उत्प्रेरक (catalyst) रहनेवाली अमरीका को, अपना फ़ायदा किसमें है, वह बहुत जल्द ही समझ में आ जाता है। इसीलिए अब तक भारती अपेक्षा पाक़िस्तान को क़रिबी स्थान देते रहनेवाली, भारत ने सीमापार के आतंकवाद के बारे में कितनी भी शिकायतें कीं, तो भी उन्हें नज़रअंदाज़ करनेवाली, भारत के बारे में ‘अनचहेती का नमक भी अलोना’ ऐसा रवैया अपनानेवाली अमरीका ने एकदम पैंतरा बदलकर भारत को क़रिबी स्थान दिया है। कल तक जिनके लिए भारत का कोई महत्त्व नहीं था, ऐसे दुनिया के अन्य देश भी भारत के साथ अमरीका जैसी ही नीति अपना रहे हैं।

….और अब भारत से फ़ायदा रहने के कारण ‘उसका सबकुछ अच्छा’ ऐसा दुनिया को लगने लगा है। इसी कारण, पूरी दुनिया में चीन के बाद दूसरे नंबर पर रहनेवाली भारत की प्रचंड जनसंख्या यह भारत के लिए भले ही एक समस्या हों, मग़र यही प्रचंड जनसंख्या विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए आकर्षित कर रही है।

इसी कारण, भारत ने एक बार ग्लोबलायझेशन को ‘हाँ’ कर देने के बाद, भारत में अपने उत्पाद बेचने के लिए दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों में होड़ शुरू हुई। तब तक ऐसा था कि केवल अपने रिश्तेदारों-मित्रों में से कोई विदेश जाता था, तब जाकर कहीं उसके साथ भारत आनेवाले, अन्यथा आम जनता की पहुँच के बाहर रहनेवाले विदेशी ब्रँड अब ठेंठ उसका दरवा़ज़ा खटखटाने लगे और वह भी डॉलर-रुपये में रहनेवाला फ़र्क़ ध्यान में रखकर, ख़ास ‘इंडियानाईझ’ की हुई क़ीमतों में। ‘उसका दरवाज़ा’ यानी ‘इंडियावासी’ का दरवाज़ा; गरीब ‘भारत’ का अभी भी इन कंपनियों के लिए कोई महत्त्व नहीं था।

बचपन से लोगों के मुँह से जिनके केवल नाम ही सुने थे और केवल वर्णन ही ज्ञात हुआ करते थे, वे मानो स्वर्गलोक के ही प्रतीत होनेवाले विख्यात विदेशी ब्रँड्स हाथ में आने से ‘इंडिया’वासी उनके पीछे पागल हो गया। ‘मैं शूज् फ़लाना फ़लाना कंपनी के ही इस्तेमाल करता हूँ, मुझे डिओ इसी कंपनी का ही रास आता है, मैंने ‘डॅडी’ को बोला है कि मुझे अगले जन्मदिन पर उसी ब्रँड का मोबाईल चाहिए’ वगैरा वगैरा गप्पें हाँकने लगा।

ऐसे ही ८-१० साल गुज़र गये। अब भारतीय मार्केट खुला हो जाने के कारण और वैश्‍विक मंदी के कारण अन्य देशों के मार्केट्स की हालत नाज़ूक होने के कारण, भारतीय मार्केट में अपना शेअर बढ़ाने के लिए दुनियाभर की सभी कंपनियाँ आगे आने लगीं। प्रतियोगिता कई गुना बढ़ी। ग्राहक का तो थोड़ाबहुत फ़ायदा हुआ, लेकिन कंपनियों का अपेक्षित फ़ायदा नहीं हुआ।

क्योंकि ये सारी कंपनियाँ केवल ‘इंडिया’ को ही लक्ष्य बनाकर कदम?उठा रही थीं। हमारे देश में शहरी भाग और ग्रामीण भाग का प्रमाण ३०:७० प्रतिशत रहने के कारण इन कंपनियों का मार्केट सीमित ही था। इन ८-१० सालों में केवल उनके नाम के बलबूते पर, भारतीय ब्रँड्स की तुलना में बहुत ही महँगे रहनेवाले उनके ब्रँड्स लोग ख़रीदकर भी कितना ख़रीदनेवाले थे? और भारतीय जीवनस्तर के हिसाब से उन्होंने क़ीमतें चाहे कितनी भी ‘इंडियनाईज्ड’ कीं, मग़र तब भी उससे होनेवाली बिक्री को भी मर्यादाएँ थीं। मोबाईल की दस विख्यात कंपनियाँ अपने दस नये प्रॉडक्ट्स लेकर आयीं, इस कारण ‘डॅडी’ थोड़े ही हर साल दस मोबाईल अपने कुलदीपक को ख़रीदकर देनेवाले थे? आगे चलकर तो जागतिक मंदी की आँच भारत को भी थोड़ीबहुत महसूस होने लगी थी, इस कारण, पहले ५-७ सालों में सेल का जो ग्राफ़ ऊपर चढ़ता दिखायी दे रहा था, उसे ये कंपनियाँ बरक़रार नहीं रख सकीं।

अब क्या किया जाये? क़ीमतें और कितनी कम करेंगे? और वैश्‍विक दर्ज़े की इतनी आंतर्राष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश होने के कारण मार्केट ‘सॅच्युरेट’ हो जाने के बाद अब क्या किया जाये, ऐसा सवाल इन कंपनियों के सामने खड़ा हुआ।

फिर क्या, ‘गाँव की ओर चलो’ इस गाँधीजी के संदेश पर उस समय भारतीयों ने भले ही ग़ौर न किया हों, मग़र उस संदेश को अब इन विदेशी कंपनियों नें अच्छी तरह से मन पर अंकित किया हुआ दिखायी दे रहा है।

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