परमहंस-७८

षोडशी पूजा के बाद शारदादेवी रामकृष्णजी के ही कमरे में रहने लगीं।

लेकिन कई बार ऐसा होता था कि रामकृष्णजी भावसमाधि को प्राप्त होते थे और वे कब फिर से सभान होंगे यह कहा नहीं जा सकता था। इस कारण बौखला गयीं शारदादेवी उतने समय तक जागती रहती थीं। समाधिअवस्था में होते समय रामकृष्णजी का शरीर किसी मृतदेह जैसा निश्‍चेष्ट होता था और जिन्दापन की कोई भी निशानी उनके शरीर पर दिखायी नहीं देती थी। एक बार तो रामकृष्णजी, रात ख़त्म होने को आयी फिर भी सभान नहीं हुए थे। इस कारण भयभीत हुईं शारदादेवी, दौड़कर जाते हुए हृदय को नीन्द से जगाकर ले आयीं। हृदय ने रामकृष्णजी के कान में ईश्‍वर के कुछ विशिष्ट नामों का थोड़ी देर उच्चारण किया। उसके बाद रामकृष्णजी धीरे धीरे सभान हो गये। आगे चलकर रामकृष्णजी ने शारदादेवी को भी – उनकी (रामकृष्णजी की) विभिन्न प्रकार की समाधियों में होनेवाले फ़र्क़ को कैसे पहचाना जायें और किस प्रकार का भावसमाधि में से जागृत करने के लिए कौनसा नामस्मरण वा मंत्रोच्चारण किया जाना चाहिए, वह सिखाया।

लेकिन अपने बार बार भावसमाधि में जाने के कारण अपनी पत्नी नाहक तनाव में रह रही है, यह ध्यान में आ जाते ही रामकृष्णजी ने शारदादेवी का रहने का प्रबंध फिर से अपनी माँ के कमरे में ही कर दिया। अब रामकृष्णजी की और उनकी माता की सेवा करना यही शारदादेवी का नित्यक्रम हो गया।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलगभग बीस महीने दक्षिणेश्‍वर में निवास कर शारदादेवी नवम्बर १८७३ के आसपास कामारपुकूर लौट आयीं।

अपनी सभी उपासनाओं का फल, शारदादेवी को देवीमाता मानकर चलते हुए उनकी चरणों में अर्पण करने के बाद रामकृष्णजी की साधना पूर्णत्व को प्राप्त हुई थी। और नया कुछ करने जैसा उस समय तो दिखायी नहीं दे रहा था; हालाँकि उनका ईश्‍वर से प्रेम करना तो शुरू ही था, क्योंकि वह प्रेमप्रवास तो अनन्त ही था।

लेकिन शारदादेवी गाँव लौट जाने के लगभग एक साल में रामकृष्णजी के मन ने एक नया रास्ता ही चुनना चाहा।

वह हुआ यूँ – कोलकाता में ही शंभुचरण मलिक नाम के, रामकृष्णजी को गुरु माननेवाले उनके एक स्नेही थे। दक्षिणेश्‍वर से सटकर ही उनका एक बग़ीचा था। वहाँ कई बार रामकृष्णजी की अपने स्नेहियों के साथ घण्टों तक आध्यात्मिक चर्चाएँ चलती थीं। सभी पवित्र धर्म-पंथ य उन एक ही ईश्‍वर के पास जाने के अलग अलग मार्ग है, यह साबित कर दिखाने की ओर इन चर्चाओं का रूझान रहता था।

शंभुचरण मलिकजी ने पवित्र ईसाई धर्मग्रंथ बायबल का भी अध्ययन किया था। उस समय कभीकभार बीच में ही शंभुचरण के मुख से संदर्भ के रूप में बायबल में से कोई उल्लेख बताया जाता था। वह सुन-सुनकर रामकृष्णजी के मन में ईसा-मसीह (जीझस ख्राईस्ट) और ख्रिश्‍चन धर्म के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और अब इस मार्ग से भी मैं ईश्‍वरप्राप्ति को क्यों न आज़माऊँ, यह बात उनके मन ने ठान ली और उन्होंने शंभुचरणजी को उन्हें बायबल सिखाने के लिए कहा।

पहले ही दिन उन्हें, जिसे शुभशकुन ही कहा जा सकता है ऐसा दृष्टान्त हुआ। उस बग़ीचे में मलिकजी का एक घर भी था। वहाँ का पहरेदार रामकृष्णजी को पहचानने लगा था और मलिक एवं उनकी माँ इन दोनों के भी मन में रामकृष्णजी के बारे में कितनी सम्मान की भावना है, यह भी वह जानता था। उस दिन मलिक आदि लोग अभी तक पहुँचे न होने के कारण उस पहरेदार ने उन्हें घर खुलवाकर दिया और दीवानखाने में बैठने की उनसे विनति की। बहुत ही अभिरुचीपूर्णता से सजाये उस बैठक के कमरे में कई चित्र भी थे, जिनमें ‘बाल जीझस एवं माता मेरी’ इनका चित्र था। रामकृष्णजी उस चित्र की ओर एकटक देख ही रहे थे कि तभी उनकी टकटकी लग गयी और अचानक उन्हें ऐसा दिखायी देने लगा कि वह चित्र सजीव होकर हलचल कर रहा है। थोड़ी ही देर में उस चित्र में से दैवी प्रकाश बाहर आता हुआ उन्हें दिखायी दिया। उस प्रकाश की किरनें ठेंठ उनकी ओर आकर किरण उन्हीं में प्रविष्ट होतीं हुईं उन्होंने महसूस कीं।

उसके बाद मलिक ने रामकृष्णजी को बायबल पढ़कर सुनाने की शुरुआत की। धीरे धीरे जैसे पठन आगे बढ़ता गया, वैसे वैसे रामकृष्णजी के मन में जीझस ख्राईस्ट के बारे में, ख्रिश्‍चन धर्म के बारे में पवित्र भावनाएँ उमड़ने लगीं। हालाँकि सनातन वैदिक धर्म एवं बायबल ये जिस ईश्‍वर के बारे में बताते हैं, वह ईश्‍वर मूलतः एक ही है, इसपर रामकृष्णजी के मन में दृढ़ विश्‍वास था, मग़र फिर भी वे मार्ग, उनके दृष्टिकोण, उनकी धारणाएँ अलग अलग थीं। अतः कुछ ही समय में रामकृष्णजी को यह एहसास होने लगा कि इस नयी सीख के आगे धीरे धीरे अपने वैदिक धर्म की बातें अपने मन से ओझल होती जा रहीं हैं। उन्होंने तिलमिलाकर देवीमाता से यह प्रार्थना भी की कि ‘माता, अरी ये कौनसे बदलाव तुम मुझमें ला रही हो?’ लेकिन व्यर्थ!

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