परमहंस – ५१

‘मेरी राय में रामकृष्णजी ईश्‍वरीय अवतार ही हैं और इस विषय में मैं किसी भी प्रकांडपंडित से चर्चा-वादविवाद (बहस) करने के लिए तैयार हूँ’ इस भैरवी द्वारा किये गये प्रतिपादन की ख़बर अल्पअवधि में ही दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर में फैल गयी। रामकृष्णजी के असाधारण आचरण के कारण उन्हें पागल क़रार देनेवाले लोगों को आश्‍चर्य का झटका ही लगा था और ऐसे लोग इस वादविवाद के ‘मज़े लेने के लिए’ बेसब्र हुए थे। वहीं, रामकृष्णजी पर अपार श्रद्धा रहनेवाले, लेकिन फिर भी उन्हें एकदम से ईश्‍वरीय अवतार मानने के लिए तैयार न होनेवाले मथुरबाबू को भी यह अपने मन की आशंका दूर करने का अच्छाख़ासा अवसर प्रतीत हुआ और वे ऐसे व्यासंगी पंडित के खोजकार्य में जुट गये।

उस ज़माने में इस प्रकार के शास्त्रार्थों के वादविवाद यह भारतवर्ष में बहुत ही आम बात थी। किसी विषय पर, तात्त्विक मुद्दे पर ऐसे वादविवाद करने के लिए चुनौतियाँ भी जी जाती थीं, ऐसीं चुनौतियों का देशभर के अन्य पंडितों द्वारा स्वीकार किया जाकर, भरी सभा में वादविवाद आयोजित किये जाते थे। चुनौती देनेवाला पक्ष किसी तात्त्विक मुद्दे पर अपना मत शास्त्रार्थों के आधार पर प्रस्तुत करता था; वहीं, चुनौती का स्वीकार करनेवाला पक्ष वह मत पुनः उचित शास्त्रार्थों के आधार पर ही मिटाने की कोशिशें करता था। कभी कभी तो ऐसीं वादविवादों की सभाएँ – दोनों तरफ़ से अपने अपने मत के समर्थन में अनुरोधपूर्वक प्रस्तुतिकरण-प्रतिप्रस्तुतिकरण किया जाने के कारण कई दिनों तक भी चलती थीं। वादविवाद में जीते हुए शास्त्रीपंडित ने ‘सभा जीती है’ ऐसा निर्णय घोषित किया जाता था और फिर विद्वज्जनों में रहनेवाला उसका स्थान अधिक ही ऊँचाई हासिल करता था। ऐसे कुछ, सातत्यपूर्वक सभाओं को जीतनेवाले शास्त्रीपंडितों का नाम तो देशभर में गूँज रहा था।

बंगाल के पंडित वैष्णवचरण एवं पंडित गौरीकांत तारकाभूषण ये ऐसे ही व्यासंगी वैष्णवपंथीय प्रकांडपंडित थे और देशभर के शास्त्रीपंडितों में उनका अच्छाख़ासा दबदबा था। मथुरबाबू ने उन्हें ही वादविवाद के लिए आमंत्रित करने का तय किया।

प्रकांडपंडित से चर्चा-वादविवाद

पहले पंडित वैष्णवचरण अपने बड़े विद्वान शिष्यवृंद के साथ दक्षिणेश्‍वर आये। उनके साथ हुई सभा में भैरवी ने अपना मुद्दा प्रस्तुत किया। उसमें रामकृष्णजी की विलक्षण उपासना पद्धति, उसका उनके शरीर पर हुआ परिणाम यहाँ से लेकर उनकी ईश्‍वर दर्शन के लिए होनेवाली उत्कटता, उनके उसे आये अनुभव इन सबका इत्थंभूत वर्णन था।

उसके बाद उसने अपना निष्कर्ष बताया और ‘मेरी राय में रामकृष्णजी एक ईश्‍वरीय विभूति हैं। मेरी राय यदि आपको अमान्य हो, तो आप अपने मुद्दें प्रस्तुत करें’ ऐसी वैष्णवचरण से विनति की।

यह सारा माजरा जब शुरू था, तब रामकृष्णजी भी वहीं पर थे, लेकिन वे शांतिपूर्वक अपने ही भावविश्‍व में दंग ऐसे एक आसन पर त्रयस्थ रूप में बैठे थे। भैरवी के युक्तिवाद की ओर उनका कुछ ख़ास ध्यान नहीं था। उनका ध्यान केवल – ‘यह यहाँ पर बुलाया गया ज्ञानी मनुष्य भी कहीं मुझे औरो की तरह ही पागल तो क़रार नहीं देगा’ इस ओर लगा था।

वैष्णवचरण, भैरवी के युक्तिवाद पर ध्यान देने के साथ साथ रामकृष्णजी की ओर भी बारिक़ी से देख रहे थे। जैसे जैसे भैरवी का युक्तिवाद, अपने मुद्दे की पुष्टि करने के लिए शास्त्रों के संदर्भ देते हुए अपने निष्कर्ष की ओर बढ़ने लगा, वैसे वैसे वैष्णवचरण के मन में खलबली मचने लगी। वे हालाँकि ज्ञानमार्गी थे, मग़र फिर भी भक्तिमार्ग से जुड़ी उनकी नाल टूटी नहीं थी। अतः जो मैं कहता हूँ वही सही, ऐसी उनकी वृत्ति नहीं बनी थी। इसी कारण भैरवी ने अपना निष्कर्ष ज़ाहिर करने के बाद, उसके युक्तिवाद का विरोध करना तो दूर की बात, वे स्वयं ही रामकृष्णजी के व्यक्तित्व से पूरी तरह भारित हो चुके दिखायी दे रहे थे…. उनका स्वयं का मन भी वही युक्तिवाद करने लगा था – रामकृष्णजी यक़ीन न ही ईश्‍वरीय अवतार हैं!

वैष्णवचरण ने सबके समक्ष ज़ाहिर रूप में भैरवी का युक्तिवाद मैं मान्य करता हूँ यह क़बूल किया और अपने में आये ये विचार भी प्रकट किये।

ऐसी ही कुछ बात पंडित गौरीकांत तारकाभूषण के बारे में भी घटित हुई। गौरीकांत भी वादविवाद में कभी नहीं हार जाते, ऐसी उनकी ख्याति देशभर में फैली थी। उपरोक्त घटना घटित होने के कुछ दिन बाद गौरीकांत दक्षिणेश्‍वर में आये। वे भी कई सभाएँ जीत चुके थे। सभा में प्रवेश करने की उनकी विशिष्ट ऐसी एक पद्धति थी। कालीमाता को आवाहन करनेवाले एक विशिष्ट मंत्र का ऊँचे स्वर में उच्चारण करते हुए वे सभा में प्रवेश करते थे। दक्षिणेश्‍वर में प्रवेश करते समय भी उन्होंने उसी पद्धत का अवलंबन किया था।

रामकृष्णजी उस समय अपने कमरे में थे। यह मंत्र सुनायी देने के बाद, कौन इस मंत्र का उच्चारण कर रहा है, इस कौतुहल से वे बाहर आये और गौरीकांत को देखने के बाद न जाने उन्हें क्या हुआ, वे गौरीकांत से भी बड़ी आवाज़ में उसी मंत्र का उच्चारण करने लगे। गौरीकांत को यह अनपेक्षित था। अब तक इस पद्धति से उनके द्वारा इस मंत्र का उच्चारण किया जाने पर प्रतिस्पर्धी हड़बड़ा जाता है, यही उन्होंने देखा था। इस कारण वे स्वयं ही थोड़ेसे हड़बड़ा गये। लेकिन खुद को सँभलकर उन्होंने रामकृष्णजी से भी बड़ी आवाज़ में उस मंत्र का उच्चारण करने की शुरुआत की, तब रामकृष्णजी ने उससे भी अधिक ऊँचे स्वर में उच्चारण करना शुरू किया। कुछ देर यह सिलसिला जारी रहा।

आख़िरकार गौरीकांत की आवाज़ बढ़ाने की क्षमता ख़त्म हो गयी और उन्होंने मन ही मन अपनी हार मान ली। वहाँ कुछ दिवस निवास करने के बाद उन्होंने भी भैरवी का युक्तिवाद मान्य किया।

इस प्रकार, रामकृष्णजी की परीक्षा करने आये प्रकांडपंडित उल्टे उनके भक्त बनकर उनके चरणों में लीन हो गये थे। मथुरबाबू को बड़ा ही झटका लगा था। लेकिन रामकृष्णजी ने – ‘अच्छा हुआ, कम से कम इन्होंने तो मुझे पागल नहीं समझा’ इतना ही मथुरबाबू से कहा था!

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