परमहंस-६२

तीन दिन बीत जाने के बावजूद भी रामकृष्णजी निर्विकल्प समाधिअवस्था में से बाहर नहीं आ रहे हैं, यह दृश्य तोतापुरी विस्मयचकित होकर देखते ही रहे थे।

उन्हें चालीस सालों की कठिन उपासनाओं के बाद जो प्राप्त हुआ था, उसे रामकृष्णजी ने अद्वैतसाधना के मार्ग पर कदम रखने के एक ही दिन में प्राप्त किया था!

फिर तोतापुरी ने धीरे धीरे रामकृष्णजी को इस निर्विकल्प समाधिअवस्था में से पुनः सभान करने की शुरुआत की। उसके लिए उन्होंने ‘हरि ॐ’ इस मंत्र का घनगंभीर आवाज़ में जाप शुरू किया। जैसे जैसे ‘हरि ॐ’ के सूर की पट्टी चढ़ती गयी, वैसे वैसे वह कमरा उस आवाज़ से भर गया।

तभी धीरे धीरे रामकृष्णजी पुनः इस भौतिक विश्‍व में लौट रहे होने के लक्षण ज़ाहिर करने लगे। उनका श्‍वासोच्छ्वास पुनः शुरू हुआ। थोड़ी देर बाद शरीर की हलचल भी शुरू हुई और उन्होंने आँखे खोलीं। सामने बहुत ही प्रेमपूर्वक तथा कौतुक के साथ उनकी ओर देखनेवाले अपने गुरु को देखकर उन्होंने गुरु के चरणों में माथा टेक दिया। तोतापुरी ने उन्हें उठाकर कसकर गले लगाया।

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अपने इस शिष्य की यह प्रगति देखकर तोतापुरी बहुत ही आनंदित हुए थे। वैसे तो किसी भी स्थान पर ३ दिन से अधिक समय न रहनेवाले तोतापुरी ने दक्षिणेश्‍वर में, अपने इस शिष्य को इस सर्वोच्च स्थान पर स्थिर करने के उद्देश्य से, पूरे ग्यारह महीने वास्तव्य किया।

‘रूढ अर्थ से हालाँकि तोतापुरी गुरु और रामकृष्ण उनके शिष्य थे, मग़र फिर भी इस सहवास में से अधिक फ़ायदा रामकृष्णजी से अधिक तोतापुरी को ही हुआ। तोतापुरी ने हालाँकि अद्वैत साधना में बहुत बड़ा मुक़ाम हासिल किया था, मग़र फिर भी उनकी साधना भी पूर्णत्व को प्राप्त नहीं हुई थी। उसे पूर्णत्व तक ले जाने के लिए ही वह दयालु कालीमाता तोतापुरी को रामकृष्णजी के सहवास में ले आयी’ ऐसा भी मत कई लेखकों ने इस तोतापुरी-रामकृष्ण भेंट के बारे में व्यक्त किया है।

क्योंकि अद्वैत साधना में निर्गुण निराकार परब्रह्म का अनुसंधान करते समय, ईश्‍वर के सगुण रूपों को नकारनेवाले तोतापुरी को, रामकृष्णजी को पाठ पढ़ाते पढ़ाते स्वयं को ही यह एहसास हुआ कि ईश्‍वर का निर्गुण निराकार रूप और सगुण साकार रूप ये ज़रा भी अलग नहीं हैं; और यह एहसास जब उन्हें हुआ, तब वे उसी वत्सल कालीमाता की शरण में गये, जिसका रामकृष्णजी को अद्वैतसाधना के ध्यान में होनेवाला दर्शन उन्हें ‘साधना में अड़ंगा’ प्रतीत हो रहा था;

….और यह अंतिम एहसास होने की उनकी ‘घड़ी’ जब आयी, तब एक घटना घटित हुई। तोतापुरी कदकाठी से ऊँचे और मज़बूत कद के थे। बीमारी क्या होती है, यह मानो वे जानते ही नहीं थे। उनका मन, उनका शरीर, उनकी इंद्रियाँ मानो उनके कब्ज़े में ही थीं। लेकिन दक्षिणेश्‍वर के वास्तव्य में उन्हें एक बार दस्त (जुलाब) की बीमारी ने त्रस्त किया। बहुत ईलाज़ कराके देखे, लेकिन दस्त रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इस कारण उस दिन साधना में एकाग्रता प्राप्त करना भी उन्हें संभव नहीं हो रहा था। दस्त की पीड़ा से भी – ‘इस कारण से मैं ध्यान में एकाग्रता प्राप्त नहीं कर पा रहा हूँ’ यह बात उन्हें अधिक पीड़ादायी प्रतीत हो रही थी।

अपने शरीर पर, अपनी इंद्रियाँ पर अब अपना पहले जैसा नियंत्रण नहीं रहा, यह सोचकर तोतापुरी खिन्न हुए और ‘फिर ऐसे शरीर का क्या उपयोग है? उसका त्याग ही करना बेहतर है’ ऐसा विचार कर पवित्र गंगानदी में देहविसर्जन करने का उन्होंने निश्‍चय किया।

तय कियेनुसार उन्होंने गंगानदी के पानी में कदम रखा और चलते चलते वे धीरे धीरे अधिक से अधिक गहरे पानी में जाने लगे। लेकिन उनका ध्यान शुरू ही था। बहुत समय तक वे चल ही रहे थे। थोड़ी देर बाद जब वे सभान हुए, तब वे गंगानदी के दूसरे क़िनारे पर पहुँच गये थे। ‘कैसे संभव है यह? चन्द कुछ कदमों मे ही नदी ने मुझे अपने पेट में समा लेना चाहिए था…. वह तो हुआ ही नहीं, लेकिन मैं यहाँ पर…. दूसरे क़िनारे पर….? कैसे संभव है यह?’

यह सच है या आभास, इसका इतमीनान करने के लिए उन्होंने पुनः पुनः आँखें मल-मलकर देखा और एक विलक्षण ही बात घटित हुई। धीरे धीरे सामने का दृश्य धूसर होते होते थोड़ी ही देर में ओझल हो गया… और उस अँधेरे में तोतापुरी को अब ‘वह’ दिखायी देने लगी…. वह ‘वही’ थी रामकृष्णजी की देवीमाता…. वह हल्के से मुस्कुराते हुए उनकी ओर देख रही थी!

उसी पल उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे मानो मस्तिष्क में अनगिनत दीये जले हों। यही वह एहसास था – ‘वह निर्गुण निराकार ब्रह्म और यह आदिमाता इनमें कुछ भी फ़र्क़ नहीं है। दोनों भी एक ही हैं। मुख्य बात, इस पूरे विश्‍व पर, उसमें होनेवाली तमाम जीव-अजीव सृष्टि पर केवल उसी का अधिकार चलता है। उसी की इच्छा से सबकुछ घटित होता है। इसी कारण, मैं हालाँकि देहत्याग करने नदी में उतरा, मग़र फिर भी पूरी नदी चलते चलते पार हुआ तो भी मैं ज़िन्दा ही हूँ। क्यों?…. ‘उसकी’ इच्छा!’

उसीके साथ अब यह भी उनकी समझ में आया कि उनकी बीमारी कबकी थम गयी है। दूसरे दिन सुबह ही उन्होंने सर्वप्रथम दक्षिणेश्‍वर मंदिर जाकर माता के दर्शन किये। उसके सामने लोटांगण किया। उनकी साधना पूर्णत्व को प्राप्त होने में रहनेवाला आख़िरी अड़ंगा अब दूर हो गया था। उस ईश्‍वर तक पहुँचने के लिए केवल ‘ध्यानधारणा’ यह एक मार्ग नहीं है, बल्कि प्रेमपूर्वक किया हुआ पूजन, अर्चन, सेवा, गुणसंकीर्तन ऐसे अन्य भी कई मार्गों से उस तक पहुँचा जा सकता है, यह उनकी समझ में आ चुका था।

इस प्रकार, रामकृष्णजी को अद्वैत सिद्धांत साधना के पाठ पढ़ाते पढ़ाते उनकी स्वयं की ही साधना पूर्णत्व को प्राप्त हुई और फिर वे रामकृष्णजी से अनुमति लेकर अपनी अगली यात्रा के लिए चले गये।

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