परमहंस-६६

कामारपुकूर के इस वास्तव्य के दौरान रामकृष्णजी की मुलाक़ात हृदय की माँ हेमांगिनीदेवी के साथ हुई। उस वयोवृद्ध माता ने रामकृष्णजी के बारे में सुना ही था। इस भेंट के दौरान उसने रामकृष्णजी के चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। रामकृष्णजी जब उससे बातें कर रहे थे, तब बातों बातों में उसने, मेरी मृत्यु काशी (बनारस) में हों ऐसी मेरी इच्छा है, ऐसा उन्हें बताया। यह सुनते ही रामकृष्णजी एकदम भावावस्था में चले गये। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उन्हें यह क्या हुआ? और उस भावावस्था में ही थोड़ी देर बात रामकृष्णजी ने उसे – ‘तुम्हारी इच्छा पूरी होगी’ ऐसा आशीर्वाद दिया; और वाक़ई, हेमांगिनीदेवी की मृत्यु से पहले उसका बनारस जाना हुआ और वहीं पर उसकी मृत्यु हो गयी। आख़िरी साँस तक वह होश में थी और अपनी इच्छा के अनुसार अपनी मृत्यु काशी में हो रही है इस सन्तोष को दिल में लेकर उसने देह त्याग दिया।

इस तरह लगभग सात महीने कामारपुकूर में रहकर, स्वास्थ्य पुनः पहले जैसा हो जाने के बाद रामकृष्णजी सन १८६७ के अन्त में पुनः दक्षिणेश्‍वर लौट आये। उनकी बिगड़ी सेहत पुनः सुधरी देखकर मथुरबाबू और अन्यों को बड़ी खुशी हुई।

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इसी दौरान मथुरबाबू ने सहपरिवार उत्तर? भारत के तीर्थस्थलों की यात्रा करने की योजना बनायी थी। परिवार के साथ बहुत बड़ा लवाज़िमा भी होनेवाला था, इस कारण उस यात्रा की तैयारी बड़े ज़ोरों-शोरों से चल रही थी। उसी में रामकृष्णजी के पुनः दक्षिणेश्‍वर लौटने के कारण मथुरबाबू की खुशी दुगुनी हो गयी। रामकृष्णजी यदि हमारे साथ इस यात्रा पर चलें तो कितना अच्छा होगा, ऐसा विचार मथुरबाबू तथा उनकी पत्नी जगदंबादासी दोनों के भी दिल में आया और वैसा उन्होंने रामकृष्णजी से कहा।

लेकिन मेरे साथ हृदय भी होगा, इस रामकृष्णजी की शर्त को मथुरबाबू ने तुरन्त ही मान लिया। मैं अखंडित रूप में रामकृष्णजी की सेवा कर सकूँगा, इसी बात की मथुरबाबू को बहुत खुशी हो रही थी।

२७ जनवरी १८६८ यह प्रस्थान का महूरत तय हुआ था। रामकृष्णजी, हृदय, मथुरबाबू, उनकी पत्नी जगदंबादासी, पुत्र द्वारकानाथ, बहू, अन्य कुछ क़रिबी रिश्तेदार, साथ ही, ख़ानसामें, चौकीदार, अन्य सेवक-सेविकाएँ ऐसा कुल मिलाकर लगभग १२५ लोगों का लवाज़िमा, आवश्यक कपड़ें, तीर्थस्थलों में अर्पण की जानेवालीं वस्तुएँ, बर्तन आदि लेकर इस तीर्थयात्रा के लिए निकलनेवाला था।

यह यात्रा हर एक तीर्थक्षेत्र में कुछ दिन ठहरते हुए आगे बढ़नेवाली थी। उसके लिए रेल्वे की कुल चार बोगियाँ मथुरबाबू ने आरक्षित कीं थीं और ये चार्टर्ड बोगियाँ, जब मथुरबाबू चाहें तब, जिस स्टेशन पर चाहें वहाँ, वे बोगियाँ जिस रेलगाड़ी को जोड़ी होंगीं, उस गाड़ी से अलग करने की सहूलियत; और जब मथुरबाबू चाहें तब उन बोगियों को दूसरी किसी भी रेलगाड़ी को जोड़ने की सहूलियत रेलप्रशासन ने मथुरबाबू को दे दी थी।

देवघर इस स्थान पर इन लोगों का पहला पड़ाव हुआ। वहाँ पर उन्होंने वहाँ के देवता वैद्यनाथ के जी भरकर दर्शन किये। यहाँ पर एक लक्षणीय घटना ऐसी घटित हुई – वैद्यनाथमंदिर के मार्ग में होनेवाले एक गाँव ने रामकृष्णजी का ध्यान आकर्षित किया। उस गाँव के ग्रामस्थों की परिस्थिति बहुत ही ग़रिबी की थी। भूख़ेप्यासे और फटे-पुराने कपड़े पहनकर घूमनेवाले उन लोगों को देखकर रामकृष्णजी के मन में उनके बारे में अपरंपार करुणा उत्पन्न हुई। उन ग्रामस्थों के पेट की भूख को रामकृष्णजी महसूस कर रहे थे। उन्होंने मथुरबाबू को बुलाकर, उस गाँव के हर एक को एक बार का भोजन और पोषाक़ के लिए कपड़े भी देने के लिए कहा।

वे लोग वैसे संख्या में कम नहीं थे। स्वाभाविक रूप में खर्चे के बारे में सोचते हुए मथुरबाबू पहले टालमटोल कर रहे थे कि ‘इससे कहीं हमारी तीर्थयात्रा के खर्चे के लिए पैसे कम न पड़ जायें।’ यह सुनकर रामकृष्णजी की आँखों में पानी आ गया; लेकिन उन्होंने उस समय मथुरबाबू से साफ़ साफ़ कहा कि ‘अरे, तुम तो साक्षात् देवीमाँ के व्यवस्थापक हो। तुम्हें किस बात की कमी होगी! और यदि तुमने यह नहीं किया, तो मैं तुम्हारे साथ आगे तीर्थयात्रा के लिए नहीं चलूँगा, यहीं इन्हीं के साथ बैठा रहूँगा;’ और ऐसा कहकर वे किसी नन्हें बालक की तरह रूठकर सचमुच ही गाड़ी से उतर गये और उन ग्रामस्थों के साथ जा बैठे। रामकृष्णजी की इस करुणा को देखकर मथुरबाबू भी गद्गद हो उठे और उन्होंने उन सारे लोगों के भोजन का तथा कपड़ों का प्रबंध किया। रामकृष्णजी खुश हो गये और उनके कहेनुसार, अगली यात्रा में कहीं पर भी मथुरबाबू को खर्चे के लिए पैसों की कमी महसूस नहीं हुई।

उसके आगे का अगला पड़ाव ठेंठ बनारस होनेवाला था। लेकिन उस इतने छोटे प्रवास से भी एक झटका दिये बगैर नहीं रहा गया।

बीच के एक छोटे स्टेशन पर गाड़ी कुछ मिनटों के लिए रुकी थी, तब रामकृष्णजी और हृदय किसी कारणवश गाड़ी से नीचे उतर गये और वे पुनः गाड़ी में चढ़ने से पहले ही गाड़ी शुरू हुई। जब यह मथुरबाबू के ध्यान में आया, तब मानो उनके दिल की धड़कन ही रुक गयी। उन्होंने वाराणसी पहुँचते ही इस स्टेशनमास्तर को टेलिग्राम भेज सारी हक़ीगत बयान की और अगली गाड़ी से इन दोनों को वाराणसी भेज देने की विनति की। लेकिन अगली गाड़ी आने तक रुकना नहीं पड़ा। थोड़ी ही देर में राजेंद्रलाल बंडोपाध्याय नामक रेल्वे के एक बड़े अधिकारी, मुआयने के कुछ काम के सिलसिले में एक विशेष रेलगाड़ी से वहाँ पर आ गये और जब उन्हें पूरी हक़ीगत ज्ञात हुई, तब वे इन दोनों को उस विशेष रेलगाड़ी से ही अपने साथ वाराणसी ले गये।

इस प्रकार रामकृष्णजी का, सर्वोच्च तीर्थक्षेत्र मानी जानेवाली इस प्रकाशनगरी में प्रवेश हुआ था!

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