परमहंस-१४४

रामकृष्णजी की महासमाधि के पश्‍चात् उनके शिष्यों को, ख़ासकर नित्यशिष्यों को निराधार होने जैसा प्रतीत हो रहा था। काशीपुरस्थित जिस घर में, जहाँ रामकृष्णजी के आख़िरी कालखण्ड में उनका निवास रहा, उसमे वे अभी भी रह रहे थे, क्योंकि उस घर की नियत अवधि (काँट्रॅक्ट) के कुछ दिन और बाक़ी थे।

लेकिन उस कालखण्ड में खर्चे का खयाल रख रहे गृहस्थाश्रमी शिष्यों में से कुछ लोगों ने इसके आगे खर्च करने के लिए असमर्थता दर्शायी थी; वहीं, कुछ लोगों ने इन संन्यासी शिष्यों को अपने अपने घर लौट जाने का मशवरा दिया था। स्वयं की आध्यात्मिक प्रगति करना चाहनेवाले और अब तक बैरागी वृत्ति अच्छीख़ासी बढ़े हुए उन संन्यासी शिष्यों के लिए, पुनः व्यवहारी जग में जाकर रहना यह बड़ा ही संकट लग रहा था, लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं था।

उन सबके मन में आध्यात्मिक प्रगति कर ईश्‍वर की प्राप्ति कर लेने की और बाद में भक्तिप्रसार करने की इच्छा प्रखर थी। उनमें से अधिकांश लोगों को रामकृष्णजी ने कुछ महीने पूर्व ही भगवे वस्त्र और रुद्राक्षमाला देकर मानो संन्यास की दीक्षा ही दी थी। उसके बाद कुछ लोगों ने अपने परिजनों से पूरी तरह रिश्ता ही तोड़ दिया था, तो कुछ लोगों के घरवालों के साथ केवल औपचारिक संबंध बचे थे। लेकिन फिर भी एक एक करके, उनमें से अधिकांश लोग, मन मान न रहा होने के बावजूद भी मजबूरन अपने अपने घर गये। लेकिन दोतीन लोगों को तो जाने के लिए घर भी नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णक्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रामकृष्णजी के पार्थिव के रक्षावशेष जतन कर रखने का मसला भी था। उसके लिए गंगातट पर कोई जगह खरीदकर, उसमें उनकी समाधि का निर्माण कर उसमें उन रक्षावशेषों को जतन किया जाये, इस प्रकार के कई प्रस्ताव सामने आ रहे थे। लेकिन निधि के बिना ऐसे प्रस्तावों के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। फिलहाल उन अवशेषों को रामकृष्णजी के शिष्य बलराम बोसजी के घर रखा गया था।

रामकृष्णजी की संकल्पना में होनेवाला ‘रामकृष्ण संप्रदाय’ साकार होने की संभावना दिनबदिन अधिक से अधिक अस्पष्ट होती जा रही थी। लेकिन ‘गुरुजी ही कुछ करेंगे और इस समस्या का हल निकालेंगे’ ऐसा रामकृष्णजी के नित्यशिष्यों का दृढ़विश्‍वास था।

ऐसी मुश्किल घड़ी में रामकृष्णजी के क़रीबी शिष्य सुरेंद्रजी (सुरेंद्रनाथ मित्रा) दौड़े चले आये। सुरेंद्रनाथ हालाँकि गृहस्थाश्रमी थे, वे रामकृष्णचरणों में बहुत ही लीन थे और ‘रामकृष्णजी’ यही उनका और उनके परिवारवालों का ‘जग’ था। उनके मन में रामकृष्णजी के, संन्यस्तवृत्ति धारण किये शिष्यों के बारे में ख़ास ममत्व था और जितनी हो सके उतनी आर्थिक सहायता उन शिष्यों को करते थे। रामकृष्णजी के आख़िरी कालखण्ड में उनका वास्तव्य होनेवाले इस काशीपुर के घर का किराया भी सुरेंद्रनाथ ही अदा करते थे और उसीके साथ, वहाँ के सेवाकर्मियों के हररोज़ के खर्चे के लिए भी ऊपर से थोड़ेसे पैसे देते थे।

उन्होंने रामकृष्णजी के इन नित्यशिष्यों के सामने एक प्रस्ताव रखा – ‘बंधुओं! तुम लोग अब कहाँ जाओगे? मुझे लगता है, कोलकाता में ही हम कोई मक़ान देखते हैं, जहाँ तुम लोग एकसाथ रह सकोगे और तुम्हारी ध्यानधारणा, उपासना आदि को शान्त चित्त से आसानी से कर सकोगे। केवल तुम ही नहीं, बल्कि इस व्यवहारी दुनिया के दावानल में सांसारिक चरकों से झुलसनेवाले हम जैसे गृहस्थाश्रमी शिष्य भी बीच बीच में वहाँ तुम्हारे साथ रहने के लिए आ सकेंगे और थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन उपासना आदि कर शान्ति प्राप्त कर सकेंगे। उस मक़ान का किराया आदि खर्चे की चिन्ता तुम मत करना, उसका प्रबन्ध मैं कर दूँगा।’

अन्य कोई विकल्प सामने न होते हुए, अचानक सामने आया यह प्रस्ताव यानी हमारे गुरु द्वारा ही दिखाया गया मार्ग है, ऐसा सोचकर नित्यशिष्यों ने यह प्रस्ताव मान्य किया। अब मक़ान की खोज करना शुरू हुआ। कोलकाता के ही बारानगर (बारणगोर) इला़के में एक मक़ान उन्हें पसन्द आया। इस मक़ान की हालत दरअसल बहुत ही ख़राब थी और वह उसके मालिक से दुर्लक्षित था। लेकिन इस कारण उसका किराया भी कम था। इस वजह से यह मक़ान किराये पर लिया गया।

इन लोगों ने उसे ठीक से साफसुथरा कर दिया। उसी के एक बड़े क़मरे को ‘प्रार्थना हॉल’ क़रार देकर रामकृष्णजी के पार्थिव के रक्षावशेष वहाँ स्थापित किये गये।

रामकृष्ण संप्रदाय के ‘पहले मठ’ की स्थापना हो गयी थी….

Leave a Reply

Your email address will not be published.