परमहंस-९५

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

रामकृष्णजी अपने शिष्यों को हमेशा ही ईश्‍वरप्राप्ति हेतु प्रयास करने के लिए कहते थे, ‘‘जब तक तुम ईश्‍वरप्राप्ति के लिए प्रयास शुरू नहीं करते, तब तक तुम इस भौतिक विश्‍व में, उसके सुखोपभोगों में मश्गूल होकर रहते हो। तुम्हारी वास्तविक पहचान के बारे में, मानवजन्म लेने के बाद तुम्हारा क्या ध्येय है इसके बारे में तुम अनभिज्ञ ही रहते हो। फिर उन ईश्‍वर को ही तुम्हारी दया आती है और वे तुम्हारे जीवन में ‘गुरु’रूप में कार्य शुरू करते हैं। गुरु फिर तुम्हारे मन पर, बुद्धि पर जमीं परतों को हटाकर तुम्हें तुम्हारी वास्तविक पहचान करा देता है, तुम्हारे जीवन में होनेवाले ध्येय को तुम्हारी नज़रों के सामने ले आता है।’’

‘महेंद्रनाथ गुप्ता’ रामकृष्णजी के बिलकुल क़रिबी शिष्यों में से एक थे। (ये आगे चलकर ‘एम’ संबोधन से विख्यात हुए। रामकृष्णजी के हररोज़ के वार्तालाप में से मिलनेवाली सीख को लिखकर रखने की इनकी आदत थी और इसी दस्तावेज़ के ज़रिये यह बोधामृत आगे चलकर आम लोगों तक पहुँच सका।) ऊपरोक्त मुद्दे के समर्थन में रामकृष्णजी ने उन्हें एक कथा सुनायी –

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘एक बार एक बाघिन एक शिकारी द्वारा मारी गयी। उसका हाल में जन्मा एक बछडा था। वहाँ पास ही में एक बक़रियों का झुँड़ चर रहा था। माँ का साया उठ चुका यह बाघिन का बछडा अब उन बक़रियों के झुँड़ में ही रहने लगा, उन्हीं के साथ खेलने-कूदने लगा। जन्म से लेकर उन बक़रियों के झुँड़ में ही रहने के कारण वह बछडा अपने आप को भी उन्हीं में से एक मानने लगा था; इतना कि अब वह उनके साथ घास भी चरने लगा था। उसका चिल्लाना भी उन बक़रियों जैसा ही हुआ था। इतना ही नहीं, बल्कि यदि भक्ष्य पकड़ने हेतु कोई जंगली जानवर उस झुँड़ पर हमला करता, तो अन्य बक़रियों की तरह वह बाघ का बछड़ा भी अपनी जान बचाने चारों दिशाओं में भागता था।

कुछ दिन बाद एक बाघ ने अपना भक्ष्य प्राप्त करने उस झुँड़ पर हमला किया। लेकिन उस बाघ के बछडे को अन्य बक़रियों की तरह घास चरते हुए देखकर वह हैरान हो गया और उसने बक़रियों को पकड़ने के बजाय उस बछडे को ही पकड़ लिया। बछडा उस बाघ की चपेट से अपने आपको छुड़ाने की जानतोड़ कोशिश कर रहा था, लेकिन उससे वह संभव नहीं हो रहा था। बाघ सीधे उस बछड़े को पास ही में बह रही एक नदी पर ले गया और उसे अपनी बगल में खड़ा किया और नदी के पानी में उसका और खुदका ऐसे दोनों के प्रतिबिंब को देखने को कहा; और ङ्गिर उसने उस बछडे को खरी खरी सुनायी, ‘‘देख, हम दोनों भी एक जैसे दिखते हैं। तुम भी मेरी तरह बाघ ही हो, लेकिन वह भूलकर तुम भेड़बक़रियों की तरह घास खा रहे हो। लानत है तुमपर!’’

और फिर उस बाघ ने उस बछडे को थोड़ासा मांस खिलाया। शुरू शुरू में वह उसे नहीं भाया, लेकिन धीरे धीरे वह उसे भाने लगा। इस प्रकार उस बाघ ने उस बाघ के बछडे को ‘स्व’त्व का एहसास करा दिया।’

यह कथा बताकर रामकृष्णजी ने महेंद्रनाथजी से कहा कि ‘उस बाघ के बछडे का उन बक़रियों की तरह घास चरने में मश्गूल होना यानी बाकी दुनिया का भान भुलाकर सुखोपभोग में मश्गूल होना, गृहस्थी-फ़ायदा-नुकसान आदि से परे कुछ मालूम न होना, वह मालूम करा लेने की इच्छा भी न होना।

वह नया आया हुआ बाघ यानी गुरु, जो उस बाघ के बछडे को स्वत्व का एहसास करा देता है; अर्थात् सत्त्वगुणी लोगों को भक्तिमार्ग से परिचित करा देता है, मानवी जीवन के सर्वोच्च ध्येय के लिए यानी ईश्‍वरप्राप्ति करा लेने के लिए उद्युक्त करता है।

उस बछडे का उस बाघ के साथ जाना अर्थात् श्रद्धावानों ने, अपने मन को प्रकाश से उजागर करनेवाले गुरु की पनाह लेना, ‘यही एकमात्र ‘मेरा अपना’ है यह अपने मन पर अंकित करना, भक्तिमार्ग पर चलने की शुरुआत करना।

उस बाघ के बछडे का नदी के पानी में अपना खुद का प्रतिबिंब देखना अर्थात् उसे ‘स्व’ का परिचय होना, जो गुरु कराता है।’

महेंद्रनाथजी का स्वभाव तर्कसंगत विचार करने का है, यह जानकर रामकृष्णजी ने उनकी तर्कबुद्धि को जँचे इस प्रकार से उनके लिए इन आध्यात्मिक तत्त्वों का विवरण किया था, जिससे स्वाभाविक रूप में महेंद्रनाथजी प्रभावित हुए और रामकृष्णजी के चरणों में लीन हुए।

लेकिन महेंद्रनाथजी की इस तर्कशुद्ध विचारधारा के कारण उन्हें तर्कविसंगत (‘इल्लॉजिकल’) बात रास ही नहीं आती थी और इस कारण उनके कई जगह झगड़े हो जाते थे और रिश्तों में दरार पड़कर नुकसान भी हो जाता था। इसलिए वादविवाद की इस अपप्रवृत्ति को त्याग देने के लिए रामकृष्णजी ने उन्हें दृढ़तापूर्वक समझाया था, जिसपर अमल करने की उन्होंने तुरन्त ही ईमानदारी से शुरुआत भी की।

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