परमहंस-१००

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख :
एक बार रामकृष्णजी कोलकाता के नंदनबागान में सम्पन्न हुए ब्राह्मो समाज के एक सत्संग में, उन्हीं के निमन्त्रण पर सम्मिलित हुए थे। सत्संग के बाद रामकृष्णजी उपस्थितों से बातें कर रहे थे। इस सत्संग के लिए कोलकाता के कुछ विख्यात डॉक्टर, सब-जज्ज, लेखक आदि लोग आये थे, जो सत्संग के बाद उनके दर्शन करने पर, मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उनसे आध्यात्मिक जिज्ञासा से प्रश्‍न पूछ रहे थे।

किसीने उनसे पूछा कि ‘हम ठहरे गृहस्थाश्रमी लोग, हम और कितने समय तक गृहस्थी में उलझे रहें? क्या हमें कभी ईश्‍वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती?’

उसपर रामकृष्णजी ने जवाब दिया, ‘‘गृहस्थाश्रमी मनुष्यों को अपने परिवार का खयाल अन्त तक रखना चाहिए, वह भी प्रेमल कर्तव्यभावना से, महज़ शुष्क कर्तव्यभावना से नहीं; अन्यथा वह क्रूरता साबित होगी। पत्नी और बच्चों का रूझान सत्त्वगुणी आचरण की ओर, ईश्‍वर की ओर कैसे बढ़ेगा, इसके लिए प्रयास करने चाहिए। बच्चें बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े रहने तक परिवारप्रमुख ने उनके पालनपोषण की ज़िम्मेदारी उठानी ही चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि पति के परलोक सिधारने के बाद उसकी पत्नी को जीवन जीने में तक़ली़ङ्ग उठानी न पड़ें इसके लिए पति को प्रावधान कर रखना चाहिए।

लेकिन ये सारीं ज़िम्मेदारियाँ निभाते समय यदि किसी का मन तीव्रता से ईश्‍वर की ओर खींचा चला जा रहा है, तो उसका सारा खयाल वे ईश्‍वर ही रखते हैं;

….और अब रहा सवाल – गृहस्थाश्रमी लोग ईश्‍वरप्राप्ति कैसे कर सकते हैं? तो हममें से ही कई गृहस्थाश्रमी लोग ऐसे हैं, जिन्होंने गृहस्थी में होकर भी ईश्‍वरप्राप्ति का ध्यास लिया है और जो सांसारिक ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाकर इस भक्तिमार्ग पर चलते हुए, अध्यात्म और गृहस्थी ऐसे दोनों छोरों में संतुलन बनाते हुए मार्गक्रमणा कर रहे हैं। ईश्‍वर के नाम की ताकत ही ऐसी है। शुरू शुरू में नाम लेने के लिए थोड़े से प्रयास करने पड़ते हैं, लेकिन एक बार उसकी आदत पड़ गयी, तो ङ्गिर अपने आप ही धनसंपत्ति आदि भौतिक बातों के मोह में से मन मुक्त होने लगता है, ईश्‍वरप्राप्ति अधिक से अधिक नज़दीक आने लगती है।’’

‘जीवन के अन्तिम क्षण में यदि मुख में ईश्‍वर का नाम हो, तो उस मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा कहा जाता है। किसी ने यदि जनमभर ईश्‍वर का नाम लिया हो, लेकिन कुछ कारणवश यदि आख़िरी क्षण में उसके मुख में ईश्‍वर का नाम न आ सका, तो क्या वह पुनः जन्ममरण के फ़ेरों में अटका रहेगा?’ इस प्रश्‍न के लिए रामकृष्णजी ने निम्नलिखित आशय का उत्तर दिया –

‘‘जीवन के अन्तिम पल में मुख में ईश्‍वर का नाम होना यह आसान बात नहीं है, उसके लिए जीवनभर अभ्यास करने पड़ता है। लोग जब ऐसा कहते हैं कि ‘हम नाम लेते हैं’, तो कई बार वे स़िर्फ़ मुँह से रट लगाते हैं; उसमें उनका मन नहीं होता, वह भौतिक-वैषयिक बातों में उलझा हुआ रहता है। आखिरी क्षण में मुख में ईश्‍वर का नाम होने के लिए, महज़ नाम रटना उपयोगी नहीं है; बल्कि मन को उसकी आदत डालने के लिए जीवनभर दिल से, समरस होकर नाम लेना पड़ा है। किसी तोते को यदि रटवाकर ईश्‍वर का नाम लेना सिखाया भी; मग़र जब उसे किसी बिल्ली ने पकड़ने के कारण उसकी जान पर बीतती है, उस समय वह तोता ईश्‍वर का नाम नहीं लेता, बल्कि उसके नैसर्गिक ‘कीर्र….कीर्र’ इसी आवाज़ में चिल्लाता है। उसी तरह, यदि जीवनभर – महज़ रट्टा न मारते हुए – प्यार से, प्रामाणिकता से ईश्‍वर का नाम लेते रहें, तभी भौतिक बातों का मोह नष्ट होकर वह नाम हमारे मन में घुलमिल जायेगा और तभी वह नाम जीवन के अन्तिम क्षण में स्वाभाविक रूप से हमारे होठों पर होगा।

इसीलिए हर एक को चाहिए कि वह जीवनभर ईश्‍वर की ध्यानधारणा और उनके चिन्तन के साथ ही ईश्‍वर का नाम-रूप-गुण-संकीर्तन करते रहें, उनका गजर गाते रहें। मुख्य बात, ‘भौतिक विषयों के प्रति होनेवाली आसक्ति को कम कर हमें तुम्हारे चरणों से प्रेम होने दो और उसे निरन्तर बढ़ते रहने दो’ ऐसी उन ईश्‍वर से ही प्रार्थना करते रहें।’’

ऐसे जिज्ञासु भक्तों के कई सवालों के रामकृष्णजी ने जवाब दिये और उपस्थित लोग इस संस्मरणीय दिन की स्मृतियाँ अपने साथ लेकर तृप्त होकर अपने अपने घर लौट गये।

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