परमहंस-१०५

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख :

एक बार रामकृष्णजी उनके एक शिष्य बेणीमाधव पाल के निमंत्रण पर सत्संग के लिए उनके फार्महाऊस पर गये थे। बेणीमाधवजी पहले ब्राह्मो समाज से संलग्न होने के कारण ब्राह्मो समाज के कई साधक भी इस समय उपस्थित थे। हमेशा की तरह ही सत्संग के दौरान साधक रामकृष्णजी को जिज्ञासु वृत्ति से प्रश्‍न पूछ रहे थे और रामकृष्णजी उन प्रश्‍नों के उत्तर दे रहे थे।

साधकों के प्रश्‍न कुल मिलाकर इस प्रकार थे – ‘गृहस्थाश्रमी लोगों के लिए ईश्‍वरप्राप्ति के मार्ग कौनसे हैं?…. ईश्‍वरप्राप्ति के लिए क्या हमें संन्यास धारण करना पड़ेगा?…. निष्कामवृत्ति को कैसे मन पर अंकित किया जाये? सभी को निष्कामवृत्ति क्यों प्राप्त नहीं होती?…. ईश्‍वर का सगुण साकार रूप सच्चा है या निर्गुण निराकार?….’

इन प्रश्‍नों को रामकृष्णजी ने हमेशा की तरह ही, रोज़मर्रा के जीवन के उदाहरण देते हुए निम्न आशय के उत्तर दिये –

‘….आम सांसारिक लोगों के लिए, ‘ईश्‍वर से प्रेम करना’ और ‘प्रार्थना’ (नामस्मरण, गुण-लीला-अनुभवसंकीर्तन), ये ही ईश्‍वरप्राप्ति के सीधे-सरल, आसान मार्ग हैं। उनमें भी, ईश्‍वर से प्रेम करना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार धातु के पुराने बर्तनों पर पुनः चमक लाने के लिए उन्हें बीच बीच में क़लई करना आवश्यक है, वही काम यहाँ पर नामस्मरण करता है। हमारे मन में होनेवाले ईश्‍वरविषयक सुप्त प्रेम को ये नामस्मरणादि बातें जगाती हैं।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘….लेकिन इसके लिए उन्हें संन्यास लेने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जिन्हें अभी भी भौतिक बातों से आसक्ति है, ऐसे लोगों को संन्यास लेकर भी कुछ फ़ायदा नहीं होगा। लेकिन जिन गृहस्थाश्रमी लोगों को ईश्‍वरप्राप्ति की इच्छा है, वे जीवन में निष्कामबुद्धि से कर्म करने के प्रयास करें। निरन्तर नामस्मरण करने से और हर बात ईश्‍वर को याद करके करने से ही यह धीरे धीरे संभव होगा। जिस प्रकार कटियल काटते समय उसका चेप (लासा) हाथ को न लगें इसलिए हाथ को तेल लगाते हैं, वही काम यहाँ पर – ‘कोई भी काम करते समय ईश्‍वर को याद करना’ और ‘नामस्मरण’ ये बातें करती हैं। यह नियमित रूप से करने से विवेक (सदसद्विवेकबुद्धी, नीरक्षीरविवेक) जागृत होगा, जिसमें से ही आगे चलकर निष्कामवृत्ति विकसित होगी।’

‘….किसी बालक को खिलौना देकर आसानी से मग्न किया जा सकता है। जब तक उस बालक को उस खिलौने में दिलचस्पी लग रही है, तब तक उसे माँ की याद नहीं आयेगी। लेकिन जिस पल उस खिलौने में होनेवाली उसकी दिलचस्पी समाप्त हो जाती है, उसे माँ ही याद आती है और फिर हाथ में वह खिलौना भी क्यों न हों, उसे फेंककर माँ से मिलने के लिए वह बालक कोलाहल मचाता है। वैसा ही यह है। जब तक इन्सान को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती, तब तक वह भौतिक बातों में ही उलझा रहेगा। एक बार जब उसका मन भौतिक विषयों से उड़ जायेगा, तभी उसका प्रवास निष्काम होने की दिशा में शुरू होगा।’

‘….निर्गुण निराकार और सगुण साकार ये दोनों भी सच हैं, दरअसल ये दोनों एक ही हैं। जो निर्गुण निराकार की उपासना करना चाहता है, वह बेशक़ करें, उसमें कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन भक्ति के शुरुआती दौर के लिए वह बहुत कठिन साबित होती है। जो ईश्‍वर मुझे दिखायी ही नहीं देता, उसकी भक्ति मैं क्या ख़ाक़ करूँगा? इसी कारण, सगुण साकार रूपों की उपासना करनेवालों की आर्तता, उनका उन रूपों से होनेवाला प्रेम, यह बात निर्गुण निराकार की उपासना करनेवालों के पास होगी ही, ऐसा नहीं है। अतः निर्गुण निराकार भजक सगुण साकार भजकों की आर्तता का अनुसरण यक़ीनन ही करें।

साथ ही, निर्गुण निराकार का वर्णन भला तुम कैसे और कितने प्रकारों से करोगे? जैसे बाँसुरी में से सप्तसुर बजने के लिए उसे सात स्वररंध्र होते हैं; लेकिन मान लो, कोई बाँसुरीवादक यह तय करना है कि उसकी बाँसुरी को सातों स्वररंध्र होने के बावजूद भी वह उनमें से एक ही स्वररंध्र से संगीत बजायेगा, तब क्या होगा? उसका संगीत नीरस हो जायेगा। उस बाँसुरी के सातों स्वररंध्रों का सुयोग्य उपयोग करनेवाला माहिर वादक ही मधुर संगीत का निर्माण कर सकता है। वैसा ही इस निर्गुण निराकार की उपासना का भी है। सगुण साकार के उपासक अपने आराध्यदेवता का वर्णन कितने अलग अलग तरीक़ों से करके आनंद ले और दे सकते हैं! कोई उसके गुणों का संकीर्तन करेगा, तो कोई उसके रूपों का; कोई उसके अनुभवों का, तो कोई – कैसे वह ईश्‍वर श्रद्धावानों की माँ, बाप, मित्र, मार्गदर्शक, दास ऐसीं अनेकों भूमिकाएँ निभाता है, उनका संकीर्तन करेगा; फिर उसमें से मिलनेवाला आनंद कई गुना होगा, जो बात निर्गुण निराकार के बारे में संभव नहीं है।’

इतना जटिल ज्ञान इतने आसान शब्दों में सुनते हुए उपस्थित मंत्रमुग्ध हुए थे।

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