परमहंस-७९

अब रामकृष्णजी ने जो ईसाईधर्म की उपासना शुरू की? थी, उसके पहले ही दिन उन्हें ‘बालक जीझस एवं माता मेरी’ इनके चित्र में से दैवी साक्षात्कार होने के बाद रामकृष्णजी बायबल-अध्ययन में रममाण हो गये। इतने कि उनके दिलोदिमाग में अब केवल जीझस ख्राईस्ट ही था और ख्रिश्‍चन धर्म की सीख के सामने उनके मन में वैदिक धर्म की बातें ओझल होती जा रही हैं ऐसा एहसास उन्हें होने लगा था।

यह अवस्था तीन दिन तक टिकी। ये तीन दिन रामकृष्णजी दक्षिणेश्‍वर मंदिर में देवीमाता के दर्शन के लिए जाना भी भूल चुके थे। तीसरे दिन जब वे पंचवटी में गये थे, तब उन्हें एक दृष्टान्त हुआ। उन्होंने देखा कि सामने से एक लंबाचौड़ा आदमी चलते चलते उनकी दिशा में आ रहा है। उसकी नज़र रामकृष्णजी पर ही केंद्रित थी। कौन हो सकता है यह, इसके बारे में रामकृष्णजी सोच रहे थे; लेकिन उसके कपड़ों से ‘वह विदेशी ही होगा’ ऐसा अंदाज़ा उन्हें हुआ। उसकी आँखे बहुत ही सुन्दर एवं बड़ी थीं; लेकिन उसकी नाक ज़रासी चपटी थी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णअब वह आदमी उनके ठीक सामने आकर खड़ा हो गया। उसी पल रामकृष्णजी के भीतर से गहराई से यह प्रेरणा उठी कि ‘यही है वह जीझस….जिसने समूची मानवजाति के लिए अपरंपार कष्ट उठाये और अपना खून भी बहाया….यही है वह प्रेम का मूर्तिमंत पुतला होनेवाला जीझस….’

उसी पल उस आदमी ने मुस्कुराते हुए रामकृष्णजी को अपनी बाहों में समेट लिया और वह रामकृष्णजी में ही विलीन हो गया।

इस दृष्टान्त के बाद रामकृष्णजी गहरी समाधि अवस्था में गये और काफ़ी देर तक वे सभान नहीं हुए। अब तक उन्होंने अद्वैत साधना करते हुए उस निर्गुण ब्रह्म के साथ एक होने का अनुभव किया था, लेकिन अब सगुण साकार ब्रह्म के साथ एक होने का अनुभव वे कर रहे थे। उनको यक़ीन हो गया था कि जीझस भी उन ईश्‍वर का ही अवतार है और उसके द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर प्रामाणिकता से चलने पर भी उन्हीं ईश्‍वर की प्राप्ति की जा सकती है। उसीके साथ उन्हें यह भी साक्षात्कार हुआ था कि उन्हें स्वयं को भी एक विशिष्ट कार्य के लिए यह जन्म दिया गया है और उनकी सारी उपासनाएँ, ये आम लोगों के लिए ही हैं।

ख्रिश्‍चन धर्म की उपासना के बाद रामकृष्णजी ने बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का भी अध्ययन किया। इस सारे अध्ययन के बाद उनकी यह धारणा अधिक ही दृढ़ हो गयी कि सभी पवित्र धर्म ये ईश्‍वरप्राप्ति के ही विभिन्न मार्ग हैं।

इसी दौरान रामकृष्णजी का मँझला भाई रामेश्‍वर, जो बड़े भाई रामकुमार की मृत्यु के बाद दक्षिणेश्‍वरस्थित राधाकृष्णमंदिर में पुरोहित बना था, वह जब कामारपुकूर में विश्राम करने गया था, तब उसका वहीं पर निधन हो गया। वह बहुत ही धार्मिक वृत्ति का एवं दिलदार होने के कारण आसपास के गाँवों में लोकप्रिय था। वह गाँव में ज़रूरतमन्दों को कुछ न कुछ मदद करता ही था; साथ ही, घर आये संन्यासी-बैरागियों को वह कभी भी खाली हाथ नहीं जाने देता था, उन्हें हमेशा ही कुछ न कुछ दानधर्म करता था। ज़ाहिर है, उसकी मृत्यु से कामारपुकूर तथा आसपास के गाँव के लोगों को अपरंपार दुख हुआ था।

दक्षिणेश्‍वर में यह ख़बर पहुँचने के बाद रामकृष्णजी को भी बहुत दुख हुआ। लेकिन उन्हें मुख्य चिन्ता अपनी बूढ़ी माँ की थी। अब इस उम्र में वह भला अपने दूसरे बेटे के भी निधन का सदमा कैसे बर्दाश्त करेगी, इसको लेकर वे ज़रासे दुविधा में ही पड़ गये थे। लेकिन माँ को बताना भी ज़रूरी था। आख़िरकार उन्होंने अपनी देवीमाता से ही प्रार्थना की कि ‘मेरी बूढ़ी माँ को यह प्रचंड दुख सहने की ताकत दो।’

देवीमाता पर सारा बोझ डालने के बाद वे वैसे ही उठकर माँ के पास गये। माँ को गले लगाया और हल्के से उसे यह समाचार कथन किया। फिर वे साँस थामकर माँ की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे।

लेकिन….जिसका उन्हें डर था, वैसा कुछ भी विपरित नहीं हुआ। माँ दुखी ज़रूर हुई….मग़र तुरन्त ही वह सँभल गयी, ‘क्या कर सकते हैं? यह दुनिया नश्‍वर ही है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी कभी न कभी तो मृत्यु होनी ही है….उसका कितना शोक मनायेंगे?’

रामकृष्णजी हैरान ही रह गये। माँ की भक्ति से उसका मन इतना सबल हुआ वे प्रत्यक्ष रूप में ही देख रहे थे। लेकिन उसी के साथ, ‘माँ को यह समाचार सुनाने से पहले मैंने देवीमाता से जो प्रार्थना की थी, वह उसने सुनी और उसके अनुसार उसने माँ के मन को यह सदमा बर्दाश्त करने जितना सबल बनाया’ यह भी रामकृष्ण जानते थे और उसको लेकर उन्होंने देवीमाता के पास पुनः पुनः कृतज्ञता व्यक्त की।

रामेश्‍वर के बेटे रामलाल के पास दक्षिणेश्‍वरस्थित मंदिरों के पौरोहित्य की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.