परमहंस-११०

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

एक बार रामकृष्णजी से मिलने कुछ व्यापारी लोग आये थे। वे रामकृष्णजी के लिए फल, क़ीमती मिठाइयाँ आदि चीज़ें ले आये थे। लेकिन रामकृष्णजी ने उनमें से किसी चीज़ को नहीं खाया। कुछ देर बाद उन व्यापारियों के चले जाने के बाद रामकृष्ण ने अपने शिष्यों से कहा कि ‘ये सारे व्यापारी अप्रामाणिकता से धंधा कर रहे हैं, पैसों के लिए लोगों को लूटने से भी उन्हें ऐतराज़ नहीं है। फिर ऐसी पद्धति से कमाया पैसा, कमायी वस्तु ईश्‍वर को अर्पण करने का भला क्या उपयोग? उससे ना देनेवालों का पाप कम होगा और ना ही उसे ईश्‍वर की प्राप्ति होगी! क्योंकि ईश्‍वर को तुम्हारी अमिरी से, संपत्ति से कुछ भी लेनादेना नहीं है, वे केवल भाव के ही भूखे हैं और ये ईश्‍वर केवल सत्य के मार्ग से ही प्राप्त हो सकते हैं। आज के दौर में धंधे की बात करें, तो किसी की कितनी भी इच्छा हों, वह १००% प्रामाणिकता से करना बहुत ही कठिन है, यह सच है; लेकिन उसे भी मर्यादा होने चाहिए, जो इनके पास नहीं थी। अतः उनके द्वारा लायी गयीं ये मिठाइयाँ, ये फल आदि मैं न खा सका।

इससे उल्टी बात भक्तिमार्ग पर प्रामाणिकता से चलने की इच्छा होनेवाले श्रद्धावानों की होती है। उनके हाथों छोटी सी भी ग़लती भी यदि हो जाये, वह उसके बारे में सोचते ही रहते हैं…. अपने आपको कोसते रहते हैं – ‘मैं पापी हूँ, मैं ऐसा ही हूँ और वैसा ही हूँ, मैं लायक ही नहीं हूँ’ वगैरा वगैरा। लगातार ये रटते रहने के कारण, अपने मुख से ईश्‍वर का जाप होने के बजाय एक तरह से उसी का जाप होते रहता है और फिर उसके फलस्वरूप उस मनुष्य के हाथों सच में ही पाप हो सकते हैं। अरे, ईश्‍वर पर भरोसा कर रहे हो ना? फिर उसी भरोसे के हक़ से कहो ना, कि ‘मेरे हाथों यक़ीनन ही पाप हुआ है, लेकिन मेरे ईश्‍वर उससे भी बड़े हैं और वे ही मेरे मातापिता हैं। मुझे अभी भी उनका नाम लेने की इच्छा हो रही है, उनका नाम ले सकता हूँ, फिर मैं पापी हो ही नहीं सकता!’ और फिर नाम लेते हुए आगे बढ़ो। वह ग़लती, वह पाप पुनः न करने का निग्रह कर, सातत्यता से लिया हुआ वह नाम मन की ही नहीं, बल्कि तन की अशुद्धता भी निकाल देगा। निरन्तर नाम लेने से जीभ भी शुद्ध होगी।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णउस ज़माने में बहुत ही बढ़ चुके जातिभेद के बारे में बात करते हुए रामकृष्णजी ने कहा,

‘जातिपाति का पालन मत करो, ऐसा महज़ उपदेश करने से वह साध्य नहीं होगा, बल्कि ईश्‍वर से प्रेम करने से ही साध्य हो सकता है। ईश्‍वर का नामस्मरण और ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन इस मार्ग से ही ईश्‍वर के प्रति प्रेम दृढ़ हो सकता है। जब ‘ईश्‍वर ही कर्ता-धर्ता-हर्ता हैं’ यह ज्ञान मनुष्य को हो जाता है, तब धीरे धीरे अन्य सारे बन्धन टूट जाने लगते हैं। फिर ‘मेरा धर्म बड़ा या तुम्हारा, मेरी जाति श्रेष्ठ या तुम्हारी’ ये सभी विचार अपने आप ही पीछे छूट जाते हैं। जो ईश्‍वर से सचमुच का प्रेम करते हैं, उनके लिए ‘ईश्‍वर के भक्त’ यही ‘जाति’ बच जाती है; बाकी सभी उच्चनीच भाव उनके जीवन से निकाल बाहर कर दिए जाते हैं, क्योंकि मूलतः ईश्‍वर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते।’

ऐसे ही एक बार रामकृष्णजी अपने कुछ शिष्यों समेत, उस समय कोलकाना आयी उस ज़माने की सुविख्यात ‘विल्सन सर्कस’ देखने गये। सर्कस में विदूषकों के, जानवरों के, साथ ही घोड़ों पर के विभिन्न कसरत के खेल दिखाये गये। उसमें भी, सर्कस के अखाड़े में गोल गोल दौड़नेवाले घोड़े की पीठ पर एक पाँव पर खड़ी रहकर, हवा में उल्टी-पुल्टी छलाँगें लगाते हुए एक महिला-अ‍ॅथलीट ने कीं चित्तथरारक कसरतें लोगों के विशेष ध्यान में रहीं।

उसके बाद घर लौटते समय सबकी उस विषय पर बातचीत हुई। उसमें उस महिला-अ‍ॅथलेट की मिसाल देते हुए रामकृष्णजी ने – ‘गृहस्थाश्रमी मनुष्यों को अपने कर्तव्य किस तरह निभाने चाहिए’ यह सबको समझाया –

‘वह स्त्री कैसे उस बहुत ही तेज़ी से दौड़नेवाले घोड़े की पीठ पर केवल एक पैर पर संतुलन कर खड़ी थी, देखा ना! यह किसी नौसीखे का काम हरगिज़ नहीं है। कितना लगन से अभ्यास किया होगा उसने और उस अभ्यास का उपयोग भी वह कितनी एकाग्रता से कर रही थी वह! केवल एक ग़लती….और वह हाथ-पैर टूटकर, सिर फूटकर हमेशा के लिए बिस्तर पकड़ी रहती, शायद मौत के मुँह में भी जा चुकी होती।

सांसारिक मनुष्यों का भी ऐसा ही होता है। सांसारिक समस्याओं के सामने अधिकांश लोग नौसीखे खिलाड़ियों की तरह गिर ही जाते हैं या फिर समस्याओं को साथ लड़ने में उनका सारा जीवन बीत जाता है। लेकिन वहीं, गृहस्थाश्रमी गाड़ी खींचते हुए भी जैसे मुमक़िन हो वैसे ईश्‍वर का अनुसंधान करनेवाले लोग आख़िर भौतिक और परमार्थ इन दोनों क्षेत्रों में सफल हो जाते हैं। लेकिन ऐसे लोग बहुत ही थोड़े…. बाकी सब, इस दुनिया में आने के बाद खुद ही बढ़ाये हुए अपने सांसारिक मामलों में मश्गूल हो जाते हैं। इसी कारण, इस सांसारिक दुनिया में रहते हुए भी भक्ति आवश्यक है, तभी उस महिला-अ‍ॅथलीट जैसे हम सफल हो सकते हैं।’

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