परमहंस-१२४

रामकृष्णजी की स्त्री-भक्त

अघोरमणीदेवी बहुत ही सीधासादा जीवन जीतीं थीं। उनके दिवंगत पति के परिवारवालों से पतिनिधन के बाद उन्हें कुछ रक़म मिली थी, जिसका निवेश कर उसके ज़रिये जो प्रतिमाह ५-६ रुपये ब्याज आता था, उसपर वे अपने पूरे महीने का गुज़ारा कर लेती थीं।

अघोरमणीदेवी ‘बालकृष्ण’ तो अपना आराध्य बनायें, यह मार्गदर्शन भी उन्हें उनके दिवंगत पति के घराने के गुरु से प्राप्त हुआ था। एक बार बालकृष्ण को अपना आराध्यदैवत मानने के बाद उन्होंने उससे अपनी संतान की तरह प्रेम किया।

ऐसीं अघोरमणीदेवी ने जब अपनी उम्र के साठ साल पार किये, उस दौरान रामकृष्णजी की किर्तिसुगंध दक्षिणेश्‍वर से अब सब जगह महकने लगी थी। उनसे अगला आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के हेतु से अघोरमणीदेवी अपने कमरे की मालकिन के साथ दक्षिणेश्‍वर आयीं।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णरामकृष्णजी ने उनका प्रेमपूर्वक स्वागत किया। उन्होंने उन दोनों से भक्ति पर चर्चा की। कुछ भजन गाये। उससे अघोरमणीदेवी मंत्रमुग्ध हो गयीं। ‘मैं सही जगह आयी हूँ’ यह उन्होंने मन ही मन कहा। रामकृष्णजी ने भी उनके बारे में अपने भक्तों के साथ बात करते हुए – ‘अघोरमणीदेवी के आचरण की हर एक बात उनकी प्रामाणिक भक्ति को दर्शाती है’ ऐसे कौतुकोद्गार कहे थे।

उसके बाद अघोरमणीदेवी पुनः दक्षिणेश्‍वर आयीं। दूसरे बार आते समय उन्होंने रामकृष्णजी के लिए, आने के रास्तें में स्थित एक हलवाई की दूकान से २-३ पैसों की सादी मिठाई लायी थी। लेकिन उन्होंने वह रामकृष्णजी को देने से पहले ही रामकृष्णजी ने – ‘तुम आज मेरे लिए जो ले आयी हो, वह मुझे दे दो’ ऐसा उनसे कहा। हैरान होकर उन्होंने वह सादी मिठाई रामकृष्णजी को दी और उसे रामकृष्णजी ने इतने चाव से खाया कि जैसे कोई पंचपकवान खा रहे हो; ऊपर से उसे कहा कि ‘क्यों तुम इतना खर्चा उठाकर बाहर की मिठाइयाँ ले आती हो? घर में सादी खोबरे की मीठीं बड़ियाँ कर ले आयी, तो भी मुझे चलेगा; या ङ्गिर तुमने घर में पकाया कोई पदार्थ भी मुझे चलेगा। मुझे तुम्हारे हाथ का खाना खाने की इच्छा है।’

जो आध्यात्मिक गुरु के रूप में विख्यात हैं और मैं जिनसे आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए आयी हूँ, वे अध्यात्म पर-ईश्‍वर-धर्म पर चर्चा करने के बजाय ये खाने की ही बातें कर रहे हैं, यह देखकर अघोरमणीदेवी मन ही मन साशंकित हुई – ‘ये कहाँ के योगी? केवल खाने की ही बातें कर रहे हैं। उसपर मैं ठहरी ऐसी ग़रीब स्त्री….मैं भला इन्हें कहाँ से हर बार खाना ला सकती हूँ! नहीं! मैं यहाँ फिर से हरगिज़ कदम नहीं रखूँगी।’ ऐसा अघोरमणीदेवी ने निश्‍चय किया। लेकिन उनका ‘निश्‍चय’ जैसे तैसे दक्षिणेश्‍वर के बाड़ तक जाने तक ही टिका। आगे भी वे पुनः पुनः, कई बार आती रहीं। एक दिन उनकी रामकृष्णजी के प्रति होनेवाली श्रद्धा और भी मज़बूत करनेवाला एक अनुभव उन्हें हुआ, जिसका निम्न आशय का वर्णन उन्होंने बाद में रामकृष्णजी के शिष्यों से बात करते हुए किया –

‘एक दिन मैं मेरे कमरे में हमेशा की तरह बैठी थी। रात २ बजे मेरा दिन शुरू हो जाने पर लगभग ३ बजे मैंने हररोज़ की तरह जापमाला पूरी कर दी। अब हमेशा की तरह मैं उस जाप को बालकृष्ण के चरणों में अर्पण करने ही वाली थी कि तभी मुझे मेरे पास रामकृष्णजी बैठे हुए दिखायी दिए, जो मेरी ओर देखकर शरारतीपन से मुस्कुरा रहे थे। अब इतनी रात गये ये यहाँ कैसे आये, ऐसा विचार करते हुए मैं उनका हाथ पकड़ने गयी, तो वे अंतर्धान हो गये और उनकी जगह मुझे बालकृष्ण दिखायी देने लगा। वह घुटनों के बल चलते हुए मेरे पास आया और एक हाथ ऊँचा उठाकर मेरे पास मक्खन माँगने लगा – ‘मैय्या….मुझे मक्खन दे दो’! वह वास्तविक रूप से ही था, उसे मैंने अपनी गोद में उठा भी लिया। मेरे पास मक्खन तो था नहीं, लेकिन सूखे नारियल की बड़ियाँ थी, जिन्हें मैंने उसे देने पर उसने झट से खा लीं। उस दिन मैं आगे कुछ भी जाप नहीं कर सकी, क्योंकि उस नटखट कान्हा ने मेरी जपमाला ही उठायी और मुझे उसके पीछे पीछे दौड़ाया।

मैं सुबह होने की ही प्रतीक्षा कर रही थी, बेसब्र थी। कब जाकर मैं यह सब रामकृष्णजी से कहती हूँ, ऐसा मुझे हुआ था। भोर होने के बाद मैं दक्षिणेश्‍वर जाने निकली। साथ में वह था ही – नटखट बालकृष्ण।’

ऐसी अवस्था में बाहरी जगत् से संपर्क टूट चुकीं अघोरमणीदेवी, गोपाल के साथ खेल खेलते ही दक्षिणेश्‍वर पहुँचीं, तब उन्होंने रामकृष्णजी को भावसमाधि अवस्था में पाया। रामकृष्णजी ने उस भावविभोर स्थिति में ही अघोरमणीदेवी को देखने पर उनसे छोटे बालक की तरह खेलना शुरू किया। लेकिन वे तो – ‘गोपाला….गोपाला….देखो कैसे दौड़ रहा है….क्यों इस बुढ़िया को थका रहा है’ ऐसा बार बार दोहराती रहीं।

रामकृष्णजी हँस रहे थे, लेकिन कमरे में स्थित अन्य लोगों को तीसरा कोई दिख ही नहीं रहा था! उस दिन से अघोरमणीदेवी को ‘गोपालर माँ’ यह नामाभिधान प्राप्त हुआ।

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