परमहंस-१२५

रामकृष्णजी की स्त्रीभक्त

अब रामकृष्णजी ने गोपालर माँ को धीरे धीरे शारदादेवी की सेवा में भी प्रविष्ट कर दिया। दक्षिणेश्‍वर आने पर, रामकृष्णजी के दर्शन करने के बाद शारदादेवी के कमरे में जाकर वे उनकी सेवा में लगी रहती थीं।

उनका बहुत ही पसंदीदा काम – प्रेमपूर्वक अपनी जपमाला खींचते रहना चालू ही थी। लेकिन बालकृष्ण का ‘वह’ दृष्टान्त हुए दिन के बाद रामकृष्णजी ने उन्हें – ‘अब तुम्हें स्वयं के लिए जपमाला खींचने की ज़रूरत नहीं है’ ऐसा बताकर उनका जपमाला खींचना रोक दिया था। दरअसल उनकी जपमाला यह उनके लिए प्राणप्रिय चीज़ थी और जपमाला खींचना यह बहुत ही पसंदीदा कार्य! लेकिन जिस पल रामकृष्णजी ने – ‘अब जाप करने की ज़रूरत नहीं है’ ऐसा कहा, उसी पल उन्होंने उस जपमाला को फेंक दिया। उन्हें अब साधनों की ज़रूरत नहीं रही थी। लेकिन अब वे अपने गुरु के लिए अर्थात् रामकृष्णजी के लिए जाप करती थीं और उसे अपने ऊँगलियों से गिनती थीं।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइस आनंदविभोर अवस्था में गोपालर माँ लगभग दो महीने थीं। उस दौर में ‘गोपाल’ लगातार, दिनरात उनके साथ रहता था। आगे चलकर धीरे धीरे वे इस अवस्था से बाहर निकलने लगीं। लेकिन अब पहले जितना ‘गोपाल’ मेरे साथ क्यों नहीं रहता, ऐसा उन्होंने एक बार मायूस होकर रामकृष्णजी से पूछा था। तब रामकृष्णजी ने उन्हें समझाकर बताया था कि ‘इस कलियुग में इतनी अत्युच्च अनुभूति लगातार होती रहना और मन का भी उसी अवस्था में रहना यह तुम्हारी इस उम्र में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। तुम्हें और बहुत साल जीना है, अन्य भक्तों के लिए वात्सल्यभक्ति का आदर्श स्थापित करने के लिए।’

इस जवाब से गोपालर माँ की मायूसी दूर भाग गयी थी। लेकिन गत दो महीनों में उनके जीवन में जो कुछ घटित हुआ, उसके पीछे के सूत्रधार रामकृष्ण ही थे, इसके बारे में उनके मन में अब कोई सन्देह नहीं बचा था; दरअसल ‘रामकृष्णजी ही वह ‘गोपाल’ थे’ इसके बारे में भी उन्हें दृढ़तापूर्वक यक़ीन हो चुका था।

उनका मन अब अंतर्बाह्य उनके गोपाल से अर्थात् उनके गुरु से – रामकृष्णजी से भर चुका था। वे सारी शुद्धता-अशुद्धता से परे चली गयीं थीं और रामकृष्णजी भी कई बार अन्य भक्तों को इसका एहसास दिला देते थे।

उदा. रामकृष्णजी के पास विभिन्न कामनाएँ लेकर कई स्थानों से अनेक भक्तगण आते थे। आते समय वे रामकृष्णजी के लिए कुछ न कुछ खाद्यपदार्थ, मिठाई आदि ले आते थे। लेकिन उनमें से कुछ लोगों ने लायीं वस्तुओं के पीछे का उनका हेतु या तो शुद्ध नहीं रहता था या फिर वे अपने जीवन में धोख़ाधड़ी से पेश आते हैं यह रामकृष्णजी जानते थे। फिर ऐसे लोगों द्वारा लायीं गयीं मिठाइयाँ आदि खाना रामकृष्णजी के लिए मुमक़िन नहीं होता था। लेकिन ऐसे लोगों द्वारा लायी गयीं वस्तुओं को अपने भक्तों में बाँटना भी रामकृष्णजी को अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि ऐसे म़क्कार लोगों द्वारा लायीं गयीं वस्तुएँ खाकर भक्तों के मन भी अशुद्ध हो जायेंगे, ऐसा वे कहते थे। लेकिन गोपालर माँ के बारे में वे अपवाद (एक्सेप्शन) करते थे। वे कई बार ऐसीं वस्तुएँ खाने के लिए गोपालर माँ से कहते थे। ‘उसके मन में अंतर्बाह्य केवल उसका ‘गोपाल’ ही है। वह सारी शुद्धता-अशुद्धता से परे जा चुकी है। इन वस्तुओं का उसपर, उसके मन पर, उसकी भक्ति पर अंशमात्र भी बुरा असर नहीं होगा’ ऐसा वे गोपालर माँ के बारे में दृढ़तापूर्वक कहते थे।

रामकृष्णजी के पश्‍चात् भी उनके कार्य की ज्योति उनके जिन कुछ नज़दीकी भक्तों ने क़ायम रखी, उन भक्तों में गोपालर माँ का स्थान बहुत ही ऊँचा था।

सन १९०४ में उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर उन्हें बलराम बोसजी के घर में रखा गया। आख़िर तक वे वहीं थीं। कुछ दिन बाद हालाँकि तबियत में थोड़ाबहुत सुधार हुआ, तो भी वे वहाँ से शायद ही कभी बाहर निकलती थीं। दिनभर गोपाल के चिन्तन में ही रहती थीं। जुलाई १९०६ में जब उनकी अन्तिम घड़ी निकट आयी, तब उनके आख़िरी पलों में शारदादेवी उनके साथ थीं। शारदादेवी को देखते ही उन्होंने कहा – ‘अरे गोपाला! तू आया? मेरे लिए आया? अब तक न जाने कितनी बार तुम्हें गोद में लेकर मैं तुम्हारे साथ खेली होगी….अब मेरी बारी है रे!’ फिर उनकी इच्छा के अनुसार शारदादेवी ने उनका मस्तक अपनी गोद में रखा। ‘गोपाल’ की चरणधूलि अपने सिर पर लगाने की इच्छा उन्होंने प्रदर्शित की, वह भी पूरी की गयी, जिसके बाद वे समाधिअवस्था में चली गयीं। ८ जुलाई १९०६ को रामकृष्णजी की इस प्रेमल शिष्या ने इहलोक से विदा ली।

एक अशिक्षित गरीब देहाती स्त्री, किसी भी प्रकार की पूजाअर्चा-कर्मकांड को न जानते हुए, केवल और केवल अपने आराध्यदेवता के बारे में सर्वोच्च श्रेणी का वात्सल्यभाव मन में रखकर, आराध्यदेवता से प्रेम करते हुए भक्ति में बहुत आगे निकल गयी। रामकृष्णपरिवार में तो गोपालर माँ को ‘संत’ ही मानते हैं। गोपालर माँ का उदाहरण यह केवल रामकृष्णपरिवार के लिए ही नहीं, बल्कि कुल मिलाकर ही भक्तिमार्ग में प्रगति करना चाहनेवालों के लिए दीपस्तंभ की तरह माना जायें!

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