परमहंस-९६

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

‘आज के कलियुग के दौर में शिष्यों को चाहिए कि वे गुरु को भी (यहाँ तक कि उनके स्वयं के शिष्य भी उन्हें) अच्छी तरह परख लें’ इस बात को रामकृष्ण शिष्यों के मन पर अंकित करते थे। लेकिन एक बार जब गुरु पर, उसकी प्रामाणिकता पर यक़ीन हो गया, तो फिर शिष्य को गुरु पर निःशंकित रूप में भरोसा रखना आवश्यक है। दिल में आये विकल्पों के कारण या ङ्गिर अन्य किसी मित्रसंबंधियों की, रिश्तेदारों की या फिर किसी ऐरेगैरे की बात के कारण गुरु पर का भरोसा डाँवाडोल नहीं होना चाहिए, यह वे अपने शिष्यों को अनुरोधपूर्वक बताते थे।

उनके एक शिष्य जोगींद्रनाथ रॉयचौधुरी को भी इसका अनुभव हुआ था। तब तक जोगींद्रनाथ रामकृष्ण के शिष्य बन चुके थे और उनकी गुरुसेवा भी सुचारू रूप से चल रही थी। जब संभव हो, तब वे एकाद दिन दक्षिणेश्‍वर में ही आकर रहते थे और रामकृष्णजी की अधिक से अधिक सेवा करते थे।

एक बार वे ऐसे ही दक्षिणेश्‍वर निवास के लिए आये थे। दिनभर अच्छीख़ासी सेवा की। रात को रामकृष्णजी के कहने पर, वे उनके कमरे में ही बिस्तर लगाकर सो गये। आधी रात को वे अचानक जग गये, तो रामकृष्णजी अपने बिस्तर में नहीं थे। दरअसल वे कमरे में भी नहीं थे और बरामदे में भी नहीं थे। ‘ये कहाँ गये होंगे’ ऐसा विचार मन में चल रहा था कि तभी बीच में ही कुछ आशंकाएँ जोगींद्रनाथ का दिमाग कुरेदने लगीं। उन दिनों रामकृष्णजी की पत्नी शारदादेवी (‘होली मदर’) दक्षिणेश्‍वर ही रहने आयी थीं और नहबतख़ाने के छोटे से कमरे में उनका रहने का प्रबंध किया गया था। ‘रामकृष्णजी कहीं रात को चुपचाप शारदादेवी से तो मिलने नहीं गये?’ ऐसी आशंका जोगींद्रनाथ के मन में आयी। उसके बाद उनका मन आशंकाओं से ही भर गया। उनकी नींद पूरी तरह उड़ गयी और अब इसका पता लगाना ही चाहिए, इस उद्देश्य से वे नहबतख़ाने के कमरे के दरवाज़े की ओर एकटक देखते बैठ गये। काफ़ी समय बीता। उतने में पंचवटी (रामकृष्णजी का दक्षिणेश्‍वर के नज़दीक होनेवाला उपासनास्थल) की दिशा से उन्हें चप्पलों की आवाज़ सुनायी दी। उस दिशा में देखने पर, रामकृष्णजी पंचवटी से चलकर आते हुए दिखायी दिये। अपने मन में थोड़ी देर पहले रामकृष्णजी के बारे में कई आशंकाएँ उत्पन्न हुई, इस विचार से जोगींद्रनाथ शरमा गये और जब रामकृष्ण कमरे में आये, तब जोगींद्रनाथ का सिर शर्म के मारे झुक गया था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन रामकृष्णजी ने उनपर ग़ुस्सा न होते हुए उल्टे उनकी सराहना ही की, ‘‘अरे, बिलकुल दुरुस्त किया तुमने! गुरु को दिन-रात अच्छी तरह से परखना ही चाहिए और मन को तसल्ली मिलने के बाद ही उसे अपना गुरु मानना चाहिए।’’ लेकिन जोगींद्रनाथ – रामकृष्णजी ने उन्हें क्षमा की होने के बावजूद भी उस रात पुनः सो न सके।

रामकृष्णजी अपने शिष्यों का स्वभाव, उनके गुणदोष पहचानकर ही उसके अनुसार उन्हें सीख देते थे। इस कारण कई बार दो शिष्यों को, साधारणतः समान प्रतीत होनेवाले परिस्थितियों में दी हुईं सीखें परस्परविरोधी भी लगती थीं।

एक बार जोगींद्रनाथ नाव में प्रवास कर रहे थे। वे रामकृष्णजी के यहाँ जा रहे हैं, इस बात का पता चलते ही उनके कुछ सहयात्रियों ने उनका और रामकृष्णजी का भी मज़ाक उड़ाना शुरू किया। पहले तो जोगींद्रनाथ ग़ुस्सा हो गये, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि ‘ये लोग रामकृष्णजी का मज़ाक उड़ा रहे हैं, वह अपनी मूर्खता के कारण, अपने अज्ञान के कारण। उन्हें क्यों इतना महत्त्व दूँ?’ और ऐसा सोचकर वे चुपचाप बैठ गये। आगे रामकृष्णजी से मिलने पर यह घटना उन्हें बयान की। उन्होंने सोचा कि रामकृष्णजी भी इस घटना को उतना महत्त्व नहीं देंगे। लेकिन रामकृष्णजी उनपर ग़ुस्सा हो गये, ‘‘तुमने तुम्हारे गुरु का उड़ाया मज़ाक चुपचाप सुन लिया? अपने गुरु का मज़ाक उड़ानेवाले को या तो अच्छाख़ासा सबक सिखाना चाहिए या फिर यदि वह संभव न हो, तो कम से कम वहाँ से उठकर चले जाना चाहिए, ऐसा हमारे शास्त्रों ने बताया है और तुमने चुपचाप वह सबकुछ सहन किया?’’ यह डाँट, ज़ाहिर है, जोगींद्रनाथजी के अति-नर्मदिल स्वभाव को ठीक करने के लिए थी; क्योंकि ऐसी ही परिस्थिति में कुछ दिन पहले उनका एक और क़रिबी शिष्य निरंजननाथ जब फँसा था, तब उसका स्वभाव ग़ुस्सैल होने के कारण, वह उस नाव को हिलाते हिलाते, उन मज़ाक उड़ानेवालों को पानी में डुबोकर मारने चला था। लेकिन उस समय उन मज़ाक उड़ानेवालों ने भयभीत होकर उन्होंने निरंजन से माफ़ी माँगी थी। लेकिन उसे रामकृष्णजी ने – ‘ऐसे मज़ाक की ओर ध्यान न देने की’ सलाह दी थी। ऊपरी तौर पर देखें, तो ये दोनों सलाहें परस्परविरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन उस उस शिष्य के स्वभाव में होनेवाले दोषों पर ग़ौर करके, उन्हें सुधारने के लिए ही ऐसी सलाहें दी गयी थीं।

जोगींद्रनाथ के अतिनर्मदिल स्वभाव के कारण वे बेवजह दया प्रदर्शित करते थे। एक बार जब वे रामकृष्णजी के साथ थे, तब रामकृष्णजी के कपड़ों में एक तिलचट्टा (कॉकरोच) मिला। उसे कमरे के बाहर ले जाकर मारने के लिए रामकृष्णजी ने जोगींद्रनाथ से कहा। जोगींद्रनाथ उस कॉकरोच को बाहर ले तो गये, लेकिन ‘क्यों बेवजह उसे मारना’ ऐसा सोचकर उसे न मारते हुए दूर छोड़ दिया। जोगींद्रनाथ कमरे में लौट आने पर, ‘जैसा मैंने बताया वैसे किया ना’ ऐसा रामकृष्णजी द्वारा पूछा जाने के बाद, जोगींद्रनाथ ने रामकृष्णजी को बताया कि उसने क्या किया। तभी रामकृष्णजी भड़क गये, ‘‘मैंने तुम्हे उस तिलचट्टे को मारने के लिए कहा और तुमने उसे छोड़ दिया? मैंने जो तुम्हें उसे मारने के लिए कहा था, उसके पीछे कुछ कारण था। मेरी बतायी हुई बात का शब्दशः पालन करो, अन्यथा जीवन में किसी बड़े संकट में पछताने की बारी आयेगी।’’

जोगींद्रनाथजी को अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था।

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