परमहंस-१०९

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

सांसारिक इन्सानों को होनेवाली भौतिक बातों की आसक्ति के बारे में बात करते हुए रामकृष्णजी ने निम्न आशय का विवेचन किया –

‘जिस तरह कोई साप किसी बड़े चूहे को निगलना चाहता है। लेकिन वह चूहा उसके जबड़े में जाने के बाद, वह साँप उस चूहे के बड़े आकार के कारण ना तो उसे निगल सकता है और ना ही उसे बाहर फेंक सकता है। यही बात सांसारिक इन्सानों के बारे में भी सच है। बीच बीच में हालाँकि यह विश्‍व नश्‍वर होने का एहसास उन्हें हो भी गया, तब भी वह भौतिक चीज़ों को छोड़कर ईश्‍वर की ओर अपना ध्यान नहीं मुड़ सकते। ईश्‍वर ने इस संसार का निर्माण किया है, उसका आनन्द यक़ीनन ही लें; लेकिन उसमें उलझे रहने की अपेक्षा यह संसार जिसने बनाया है, उन ईश्‍वर में ही उलझ जायें। ईश्‍वराविषयक प्रेम ही यह कर सकता है। लेकिन यदि मन भौतिक बातों की आसक्ति में ङ्गँसा हुआ है, तो ईश्‍वर की प्राप्ति कठिन है। सुई में डाले जानेवाले धागे के छोर के सभी तंतु यदि एकसाथ हैं, तो ही सुई में धागा डाला जा सकता है। उनमें से एक भी तंतु यदि छोर की तऱङ्ग अलग पड़ गया है, तो सुई में धागा झट से डाला नहीं जा सकता। वैसे ही उन ईश्‍वर के बारे में अनन्यभाव से किया प्रेम ही तेज़ी से ईश्‍वरप्राप्ति की ओर ले जा सकता है।’

हमने ईश्‍वर की चाहे कितनी भी हज़ारों पूजाअर्चाएँ कीं, कर्मकांड किये, लेकिन यदि ईश्‍वर से प्रेम नहीं किया, तो वह सब व्यर्थ है, इस बात को स्पष्ट करते समय रामकृष्णजी ने एक कथा सुनायी –

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘श्रीकृष्ण जब मथुरा जाने के लिए उम्र के १३वें साल में गोकुल के बाहर निकले, वह हमेशा के लिए ही। उसके बाद अन्य गोकुलनिवासी हालाँकि उसके विरह से व्याकुल हुए थे, राधाजी को कोई फ़र्क़ नहीं था, वे आनन्द में ही थीं। उससे हैरान होकर, सबने उसका कारण पूछा, तो उसने बताया कि उसे सर्वत्र श्रीकृष्ण ही दिखायी दे रहे थे। उसपर उन्होंने पूछा कि ‘लेकिन हमें तो वह कहीं दिखायी नहीं दे रहा है, क्या तुम्हें वहम तो नहीं हो रहा है?’ तब उसने जवाब दिया कि ‘उन श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम से एक बार तो अपनी आँखें रंग लो, फिर तुम्हें भी वे दिखायी देने लगेंगे।’

मन में यदि पवित्रता नहीं है, तब ईश्‍वर के दर्शन होना असंभव है। जिस तरह लोहचुंबक (मॅग्नेट) को चिपकनेवाली सुई के ईर्दगिर्द यदि मिट्टी, धूल, कीचड़ आदि की परतें जमा हो गयीं, तो वह लोहचुंबक उस सुई को अपने पास नहीं खींच सकता, उसके लिए उस सुई पर जमा हुई गंदगी को साफ़ करना पड़ता है;

ठीक उसी तरह, मन में अशुद्धता हो, तो मन का रूझान ईश्‍वर की ओर नहीं होता। मन की इस अशुद्धता को दूर करने के लिए बड़ी बड़ी तपस्याओं की आवश्यकता नहीं है। जिस पल मन को, ईश्‍वर से दूर ले जानेवालें कर्मों का पूर्णतः पश्‍चात्ताप हो जायेगा और मन को अपनी असमर्थता का एहसास होकर वह ईश्‍वर की शरण में जायेगा, तब ऐसे वास्तविक पश्‍चात्ताप के अश्रुओं से ही मन को धोया जा सकता है; और उसके बाद ही ईश्‍वर, जो सबसे बड़ा चुंबक है, वह मन को तुरन्त ही अपनी ओर खींच लेगा।

लेकिन यह ‘उस’ की कृपा से ही संभव है और यह कृपा होने के लिए ‘उसी’ की प्रार्थना करनी चाहिए। जिस तरह किसी गाँव में वहाँ का एक पुलीसकर्मी हाथ में लालटेन लिये रात को गश्ती लगा रहा है। अन्धेरा होने के कारण उसने लालटेन कुछ इस तरह पकड़ी है, जिससे उसे रास्ते पर की और आजूबाजू की चीज़ें आसानी से दिखायी दें। लेकिन अन्धेरे के कारण उसका चेहरा किसी को भी दिखायी नहीं देता। यदि कोई उसका चेहरा देखना ही चाहता है, तो उसे उस पुलीसकर्मी को ही लालटेने अपने चेहरे के नज़दीक पकड़ने की विनति करनी होगी, जिससे कि उस पुलीसकर्मी का चेहरा वह इन्सान ठीक से देख सकेगा। वैसा ही यह है। यदि हमें ईश्‍वर के दर्शन करने हैं, तो हमें ईश्‍वर की शरण में ही जाना पड़ेगा;

और फिर वे परमकृपालु ईश्‍वर, अपने भक्त की असमर्थता का एहसास होने के कारण, स्वयं ही भक्त को उनसे प्रेम करने की शक्ति प्रदान करते हैं।’

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