परमहंस-१०३

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

आधारचंद्रजी सेन के घर आयोजित किये सत्संग में रामकृष्णजी बात कर रहे थे और इस विवेचन के दौरान बंकिमचंद्रजी द्वारा और अन्य भक्तों द्वारा पूछे जानेवाले प्रश्‍नों के अनुसार भक्तिमार्ग का श्रेष्ठत्व, साथ ही मानवी जीवन में होनेवाली ईश्‍वर की अपरिमित आवश्यकता इनके बारे में निम्न आशय का विवेचन कर रहे थे –

‘‘….और वह एक ईश्‍वर ही सबकुछ है। जिस प्रकार ‘१’ इस आँकड़े के बाद हमने पचास ‘०’ जोड़े, तो बहुत बड़ी संख्या तैयार होगी। लेकिन उस ‘१’ आँकड़े को यदि उस संख्या में से बाहर निकाल दिया, तो उन पचास शून्यों की क़ीमत क्या होगी? शून्य ही ना! वैसा ही यह है।

तुम्हारे मन में समाजसेवा करना, उद्योगव्यवसाय कर पैसा कमाना और उसमें से अन्यों की सहायता करना ये विचार आते हैं, यह अच्छा ही है। लेकिन वे विचार यदि ईश्‍वर को छोड़कर होंगे, तो वे इस – ‘१’ निकाले गये और केवल शून्य ही क़ीमत होनेवाली संख्या की तरह साबित होंगे। क्योंकि ऐसी समाजसेवा निष्काम भावना से नहीं होती और उसीमें से फिर – ‘यह सब मैं कर रहा हूँ’ यह अहंकार मन में जाग जाता है और फिर ऐसे आदमी को प्रायः जनस्तुति की-प्रशंसा की आदत पड़ जाती है, जो उसके अधःपतन का कारण बन जाती है।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णसच्चा श्रद्धावान भक्त जब ऐसी सेवा करता है, तब उसमें ऐसा अहंकार उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह भली-भाँति जानता है कि वह केवल निमित्तमात्र होकर, उसके गुरु, उसके ईश्‍वर उससे यह कराके ले रहे हैं और जिस तरह उसमें ईश्‍वर का अंश है, उसी तरह हर एक में वह है। अतः वह जो जनसेवा कर रहा है, वह दरअसल ईश्‍वर की ही सेवा है, यह बात वह भली-भाँति जानता है। इस कारण उसमें ‘अहं’भाव उत्पन्न नहीं होता।

लेकिन मानवी जीवन में होनेवाली इस ईश्‍वर की ज़रूरत को कई लोग नहीं मानते। दुनिया में ऐसे कई लोग हैं, जिन्हें अपनी सहूलियत के अनुसार, अपने फ़ायदे के लिए ईश्‍वर चाहिए होता है। भक्तिमार्ग पर चलनेवाले लोग, ईश्‍वरप्राप्ति की कामना करनेवाले लोग उन्हें ‘पागल’ प्रतीत होते हैं। लेकिन ‘इस पागलपन में ही असली सियानापन है’ यह भक्तिमार्ग पर से मार्गक्रमणा करनेवाले, भक्तिरस में आकंठ डूबे हुए उन श्रद्धावानों की ही समझ में आया होता है। हमने यदि किसी नदी वगैरा में डुबकी लगायी, तो थोड़े समय बाद हमें ऊपर आना ही होता है, अन्यथा नाक-मुँह में पानी जाकर दम घुटकर हमारी मौत होने की संभावना होती है; लेकिन भक्तिरस यह एक ही रस ऐसा है, जिसमें पूरा डूबकर भी आदमी का दम घुट नहीं सकता, उल्टा वह अधिक सुरक्षित हो जाता है।

मैंने एक बार किसी से पूछा, ‘मान लो, एक शरबत से भरा प्याला है और यह भी मान लो कि तुम एक मक्खी हो। तुम वह शरबत पीना चाहते हो, फिर तुम उसे कैसे पी लोगे?’ तब उसने जवाब दिया कि ‘प्याले की बॉर्डर पर बैठकर, जितनी संभव हो उतनी गर्दन खींचकर उसे पीने की मैं कोशिश करूँगा।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन यदि तुमने शरबत में डुबकी लगायी, तो तुम कम प्रयासों में अधिक शरबत पी सकोगे ना?’ तब उसने जवाब दिया, ‘हाँ, लेकिन शरबत में चिपककर फँस जाऊँगा ना और शरबत से बाहर निकलने के प्रयास करते समय यदि थोड़े समय बाद मेरी ताकत ख़त्म हुई, तो क्या मैं डूबकर मर नहीं जाऊँगा?’ तब मैंने उसे कहा कि ‘यही फ़र्क़ है भक्तिरस और भौतिक बातों में। भक्तिरस में गहरी डुबकी लगानेवाले को दम घुटकर मर जाने की चिन्ता ही नहीं रहती। उल्टे भक्तिरस में डुबकी लगाने पर ही पता चलता है कि मानवी जीवन के लिए सबसे आवश्यक बात यही तो थी और अब जाकर कहीं जीवन को सच्चा अर्थ प्राप्त हो रहा है। अब वह यह जान चुका होता है कि इस भक्तिरस में डूबे रहना ही दरअसल सुरक्षित है, क्योंकि अब प्रत्यक्ष ईश्‍वर उसका खयाल रख रहे हैं’; और फिर ऐसा भक्त ईश्‍वरप्राप्ति के लिए अधिक से अधिक अधीर, बेचैन हो जाता है।

ईश्‍वर को प्राप्त करने की यह अधीरता, ईश्‍वर प्राप्त नहीं होते इस कारण मन में बढ़ती जा रही यह बेचैनी बहुत ज़रूरी है। जिस तरह बच्चा अपनी माँ के लिए अधीर रहता है, माँ यदि दिखायी नहीं दी तो वह असुरक्षित महसूस करता है और हैरान हो जाता है, उसी तरह ईश्‍वर के दिखायी न देने पर हमें लगना चाहिए। इसीमें से फिर ईश्‍वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है।

भोलेभाले, ‘ईश्‍वर हैं’ इसपर प्रामाणिकता से विश्‍वास होनेवाले भक्तों के पास ही ईश्‍वर होते हैं – बिल्कुल एक गुहार के फासले पर; वहीं, अतिचौकस और तर्कट पाखंडियों के मन को ईश्‍वर कभी भी नहीं प्राप्त होंगे; क्योंकि हालाँकि उनमें भी ईश्‍वर होते हैं, ऐसे लोगों के जीवन में वे केवल साक्षीभाव से रहते हैं।’’

रामकृष्णजी की बात में से कुछ बातें मान्य होनेवाले, कुछ मान्य न होनेवाले बंकिमचंद्रजी ने रामकृष्णजी को अपने घर आने की निमंत्रण देकर उनसे विदा ली। रामकृष्णजी हालाँकि उनके घर नहीं गये, उन्होंने बंकिमचंद्रजी के निमंत्रण का सम्मान कर अपने दो प्रिय शिष्यों को उनके घर भेजा। वहाँ बंकिमचंद्रजी ने अपार जिज्ञासा से रामकृष्णजी के बारे में उन दोनों को का़ङ्गी प्रश्‍न पूछे। लेकिन रामकृष्णजी को पुनः मिलने की उनकी इच्छा तो पूरी न हो सकी।

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