परमहंस-१०१

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

एक बार ब्राह्मो समाज के एक साधक ने, ‘अपने षड्रिपुओं पर कैसे नियंत्रण पाया जाये’ ऐसा सवाल रामकृष्णजी से पूछा। उसपर रामकृष्णजी ने जवाब दिया –

‘षड्रिपुओं पर नियंत्रण पाने के प्रयास करने की अपेक्षा उन्हीं का ‘उपयोग’ किया जाये। षड्रिपुओं को उन ईश्‍वर की दिशा में मोड़ें। अर्थात ‘उन्हीं’ के चरणों में समर्पित होने का ही ‘काम’ (इच्छा) होनो चाहिए। ईश्‍वरप्राप्ति के अपने ध्येय के आड़े जो कोई या जो कुछ आता है, उन्हीं पर ‘क्रोध’ करें। ‘मोह’ अथवा ‘लालच’ हो, तो केवल ‘उन्हीं’ का ही हो। ‘मद’ हो, तो उस बिभीषण जैसा हो, जिसने कहा कि ‘मेरा सिर एक बार उन श्रीराम के सामने झुका है, अब मैं उसे अन्य किसी के सामने नहीं झुकाऊँगा।’ यदि कोई भौतिक बातों को लेकर – ‘यह सबकुछ मेरा है’ ऐसी धारणा में फँस गया है, तो वह उस धारणा को ‘यह श्रीराम, यह श्रीकृष्ण, यह ईश्‍वर ‘मेरा’ है’ ऐसे उपयोग में लायें। इस प्रकार ही ये षड्रिपु हमारे शत्रु न रहकर हमारे मित्र बन सकते हैं।’

आगे उस साधक ने पूछा, ‘यदि सबकुछ घटित करनेवाले वे ईश्‍वर ही हैं, तो फिर हमारे हाथों हुए पापों के बारे में हमें क्यों ज़िम्मेदार ठहराया जाता है?’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइसपर रामकृष्णजी ने हल्के से मुस्कुराते हुए निम्नलिखित आशय का उत्तर दिया, ‘ ‘ईश्‍वर ही केवल कर्ता’ इस बात का हम हमारी सहूलियत से इस्तेमाल करते हैं। जैसा कि दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से कहा था कि ‘हे कृष्ण, तुम तो सभी के हृदयस्थ हो। अतः जैसा तुम करवाते हो, वैसा ही मेरे हाथों से घटित हो रहा है।’ लेकिन दुर्योधन की करतूतें तो सभी लोग जानते हैं। उनमें से केवल अपवित्रता, अमंगलता, कटुता, शत्रुता ही बढ़ती गयी।

ईश्‍वर की हर एक कृति में से केवल पवित्रता, मांगल्य एवं मधुरता ही उत्पन्न होती रहती है। ईश्‍वर कर्ता, यह सच ही है; लेकिन उसी के साथ, उन ईश्‍वर ने हम मानवों को कर्मस्वतंत्रता दी है, यह भी सच है। इसलिए, हमारे हाथों घटित होनेवाली हर बात में से क्या ये तीन तत्त्व उत्पन्न होते हैं, इसके बारे में भी सोचना चाहिए। यदि वैसे वे उत्पन्न नहीं हो रहे हैं, तो फिर हमारे हाथों से घटित होनेवाली यह ईश्‍वरी इच्छा से नहीं, बल्कि ईश्‍वर ने हमें प्रदान की हुई कर्मस्वतंत्रता के दुरुपयोग के कारण घटित हुई है, इसे अच्छी तरह जान लें। जिसका – ‘ईश्‍वर ही सभी बातों के कर्ता हैं’ इसपर प्रामाणिकता से संपूर्ण विश्‍वास होता है, उसके हाथों कभी पाप घटित ही नहीं होंगे, क्योंकि ऐसे इन्सान की सदसद्विवेकबुद्धि को, उसकी हर एक कृति के समय वे ईश्‍वर जागृत रखते हैं।’

केवल ऐसे प्रश्‍न-उत्तरों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि छोटी, फुटकर प्रतीत होनेवाली घटनाओं के माध्यम से भी रामकृष्णजी कुछ न कुछ सीख देते ही थे।

एक बार केशवचंद्रजी के दोस्त राजेंद्र मित्रा के घर सत्संग का आयोजन किया गया था और रामकृष्णजी को भी आमंत्रित किया गया था। वहाँ पर आते समय, बीच में उन्हें एक घोड़ागाड़ी में से एक फोटोग्राफी स्टुडियो में ले जाया गया। उस समय फोटोग्राफी का टेक्निक भारत में नया ही आया था और बहुत ही झंझटवाला था; और ऐसे बहुत ही कम फोटोस्टुडियो थे, जहाँ फोटो खींची जाती थीं। ऐसे ही एक फोटो स्टुडियो में रामकृष्णजी की विभिन्न भावमुद्राओं में फोटोज़् खींचने का उनके भक्तगणों का इरादा था।

वहाँ पहुँचने पर रामकृष्णजी किसी छोटे बच्चे की तरह कौतुहल से वहाँ की एक एक चीज़ देखने लगे। वहाँ के तंत्रज्ञ ने भी उन्हें फोटोग्राफी के टेक्निक के बारे में समझाकर बताया। सिल्वर नायट्रेट का मुलम्मा दी हुई काँच पर कैसे फोटो अंकित होती है, उसका भी प्रात्यक्षिक उन्हें दिखाया गया।

लेकिन उनकी खुद की फोटोज़् खींचते समय वे कई बार ऐन वक़्त पर भावसमाधि को प्राप्त होते थे। वह सब सँभालते हुए उनकी फोटोज् खींचने में आख़िरकार क़ामयाबी मिल ही गयी।

राजेंद्र मित्रा के घर आने पर सत्संग हुआ। सभी लोग भक्तिभाव में निमग्न हुए थे। सत्संग ख़त्म होने के बाद थोड़ी देर रामकृष्णजी ने उपस्थितों से बात की। रामकृष्णजी ने केशवचंद्रजी को बताया – ‘‘आज मैंने इन्सान का हूबहू चित्र अंकित करनेवाला यंत्र देखा। बहुत मज़ा आया। मैंने देखा कि काँच पर एक काले मिश्रण का (सिल्वर नायट्रेट का) मुलम्मा देने के बाद सामनेवाले इन्सान का चित्र उसपर अंकित हो जाता है और वह टिका रहता है, जो कि केवल काँच पर कभी भी अंकित नहीं हो सकता। मानवी मन का भी वैसा ही है। यदि मन में भक्ति और खिंचाव न हों, तो ऐसे शुष्क मन पर महज़ किसी का व्याख्यान सुनकर कुछ भी असर नहीं होगा, फिर चाहे वह व्याख्यान कितना भी भक्तिमय क्यों न हों। यदि मन में भक्ति और खिंचाव हो, तभी उस व्याख्यान का मन पर यक़ीनन ही कायमस्वरूपी परिणाम हो सकता है।’’

Leave a Reply

Your email address will not be published.