नेताजी – ९९

आख़िर सन १९३७ के अन्त में सुभाषबाबू को इंग्लैंड़ जाने की अनुमति मिल ही गयी और उन्हें इस बात की काफी खुशी हुई। जिसे हासिल करने के लिए पिछले युरोप वास्तव्य में काफी पसीना बहाने के बावजूद भी जो उन्हें नहीं मिल सकी थी, वह अब उन्हें इस तरह बड़ी आसानी से मिल गयी।अब वे इंग्लैंड़ दौरे की तैयारी में जुट गये।

जनवरी १९३८ में लगभग १८ वर्ष बाद सुभाषबाबू ने फिर एक बार लंदन में कदम रखा। वहाँ के व्हिक्टोरिया स्टेशन में सैंकड़ों भारतीयों द्वारा उनका भव्य स्वागत किया गया। मज़दूर पक्ष ने कॉनवे हॉल में उनका सत्कारसमारोह भी आयोजित किया था। उसमें अ‍ॅटली के साथ साथ मज़दूर पक्ष के कई अग्रसर नेता हाज़िर थे। वहाँ उनकी मुलाक़ात विदेशमन्त्री लॉर्ड हॅलिफॅक्स और भारतमन्त्री लॉर्ड झेटलंड इनसे हुई और बड़ी आत्मीयतापूर्वक सुभाषबाबू ने भारत की भूमिका उनके सामने प्रस्तुत की। सुभाषबाबू से मिलकर वे दोनों भी काफी प्रभावित हुए। सुभाषबाबू की मुस्कान जितनी मधुर है, उतनी ही उनकी ज़ुबान तीखी है, यह राय झेटलंड ने ज़ाहिर की। लेकिन अधिकृत ध्येयनीति के सामने व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द कोई अहमियत नहीं रखते। इसलिए उन मुलाक़ातों से कुछ ठोस नतीजा सामने नहीं आया। लेकिन उनके इस लंदन दौरे में जो एकमात्र बहुत ही अच्छी घटना हुई, वह थी आयर्लंड के अध्यक्ष डी व्हॅलेरा, जो उस समय कुछ राजनीतिक चर्चा के सिलसिले में लंदन आये हुए थे, उनसे लंदन के ही एक होटल में एक मध्यरात्रि में हुई गुप्त मुलाक़ात। अन्य सभी दृष्टि से यह इंग्लैंड़ दौरा कुछ ख़ास फायदेमन्द साबित नहीं हुआ। हालाँकि इस बात से सुभाषबाबू थोड़ेसे उदास ज़रूर हुए, लेकिन मायूस न होते हुए वे अन्य पर्याय की खोज में जुट गये।

इंग्लैंड़उस समय भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में गाँधीजी के बाद के दो महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे – सुभाषबाबू और जवाहरलालजी। जवाहरलालजी का जीवनचरित्र चन्द कुछ ही महीनों पूर्व प्रकाशित हुआ था और युरोप में उसका काफी अच्छा स्वागत भी किया गया था। सुभाषबाबू की पहली पुस्तक को इंग्लैंड़स्थित प्रकाशनसंस्थाओं से मिला हुआ प्रतिसाद भी उत्साहवर्धक था, इसलिए अब स्वयं के ‘द इंडियन पिलग्रिम’ इस आत्मचरित्र को प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक की खोज में स्वयं के अधूरे जीवनचरित्र को लेकर वे इंग्लैंड़ गये। वहाँ की एक प्रकाशनसंस्था को उन्होंने वह चरित्र दिखाया। आत्मचरित्र के पूरे हो जाने के बाद उसे छापने की तैयारी उस प्रकाशनसंस्था ने दिखायी। लेकिन दुर्भाग्यवश भविष्य में घटित घटनाक्रम के कारण वह चरित्र पूरा न हो सका।

इसी दौरान भारत में काँग्रेस के अगले अधिवेशन के अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ लिया था। यह अधिवेशन ङ्गरवरी १९३८ में गुजरात के हरिपुरा में होने जा रहा था। उस समय तक बंजर मरुस्थल रहनेवाले और पक्की सड़कें एवं बिजली की क़िल्लत रहनेवाले उस प्रदेश का नक़्शा ही सरदार पटेल ने महज़ तीन-चार महीनों में बिल्कुल बदल ही दिया था। सरदार पटेलजी की अगुआई में हुए किसान आन्दोलन का केन्द्र रहनेवाले बारडोली तालुके का एक गाँव होने के कारण हरिपुरा का किया गया चयन भी औचित्यपूर्ण ही था और इसी वजह से हरिपुरा काँग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के प्रति सभी के मन में उत्सुकता थी।

यहाँ गाँधीजी के मन में भी मन्थन शुरू था। उनके मन में बार बार सुभाषबाबू का ही नाम आ रहा था। बीच के समय में पड़ी दरारें भी अब काफी कम हो चुकी थीं और हालाँकि भारतीय स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र आन्दोलन को सुभाषबाबू का रहनेवाला समर्थन यह दोनों के बीच का असहमति का मुद्दा था, मग़र फिर भी सुभाषबाबू को युवाओं से मिल रहे भारीभरकम समर्थन को नज़रअन्दाज भी नहीं किया जा सकता था।

उनकी रिहाई के लिए देशभर की जनता द्वारा की गयीं प्रार्थनाएँ, विराट सभाएँ, जनआन्दोेलन इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता था। साथ ही उनकी सर्वोच्च स्तरीय देशभक्ति के बारे में तो गाँधीजी को तनिक भी सन्देह नहीं था। बीच के छः वर्षों में सुभाषबाबू के ज्वालाग्राही विचारों को प्रगल्भता का कवच भी प्राप्त हुआ था। लेकिन गाँधीजी के समर्थक ‘एक सुभाषबाबू के अलावा और कोई भी चलेगा’ यह राय गाँधीजी के पास व्यक्त कर रहे थे। गाँधीजी के मन में बीच में ही उनके निष्ठावान् अनुयायी डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या इनका भी नाम आता था। गत दो वर्षों के लखनौ तथा ङ्गैज़पुर काँग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में समाजवादी विचारों की ओर रुझान रहनेवाले जवाहरलालजी के चुने जाने के कारण इस वर्ष गाँधीवादी सीतारामय्याजी के चुने जाने में कोई हर्ज़ नहीं था।

विचारमन्थन के अन्त में गाँधीजी ने अन्तिम फैसला कर ही लिया….

….हरिपुरा काँग्रेस के अध्यक्ष सुभाषबाबू ही बनेंगे….

इस फैसले से गाँधीजी के निष्ठावान् अनुयायियों में खलबली मच गयी; वहीं, आम जनता में खुशी की तथा नवचेतना की लहर दौड़ गयी। सरदार पटेल को भी काफी गहरा सदमा पहुँचा, लेकिन उनकी गाँधीजी के प्रति रहनेवाली अविचल निष्ठा के कारण उन्होंने गाँधीजी के फैसले को बिना किसी तकरार के स्वीकार कर लिया। लेकिन आचार्य कृपलानी, डॉ. राजेंद्रप्रसाद इन जैसे अन्य गाँधी-अनुयायियों में हड़कंप मच गया था और उन्होंने गाँधीजी से प्रत्यक्ष कहा कि आपकी हमेशा आलोचना करनेवाले इन्सान को ही आप अध्यक्ष बना रहे हैं! लेकिन गाँधीजी ने उसे ‘वक़्त की ज़रूरत’ बताकर उन्हें शान्त कर दिया।

इस आशय का टेलिग्राम सुभाषबाबू को भेजा गया – ‘फरवरी महीने में हरिपुरा में हो रहे काँग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षपद पर आपको आम सहमति से चुना गया है।’

सुभाषबाबू को उनके लंदन के वास्तव्य में यह टेलिग्राम मिला और वे फौरन हवाई जहाज़ से भारत के लिए रवाना हुए। उस समय ‘राष्ट्रपति’ इस नाम से सम्बोधित किये जानेवाले भारत के इस सर्वोच्च पद पर विराजमान होने का सम्मान उन्हें दिया जाना, यह एक तरह से उनकी ध्येयनीति तथा विचारप्रणाली को काँग्रेस की मध्यवर्ती विचारधारा से हो रहे विरोध के नर्म हो जाने का संकेत था।

काँग्रेस का अध्यक्ष बनने के मिले अवसर का पूरी तरह उपयोग करके अगले वर्ष में जनमत को किस दिशा में आगे ले जाया जाये, काँग्रेस की ध्येयनीति कैसी रहनी चाहिए, इस मामले में योजनाएँ बनाने में वे व्यस्त हो गये।

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