नेताजी-९८

पाँच साल की खींचातानी के बाद आख़िर १७ मार्च १९३७ को सुभाषबाबू को गिऱफ़्तारी एवं स्थानबद्धता इनके सिलसिले से बिनाशर्त मुक्त कर दिया गया। अब वे आज़ाद थे। कोलकाता की जनता ने उस दिन को किसी त्योहार की तरह मनाया। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में पुनः सक्रिय बनने के लिए सुभाषबाबू की भुजाएँ फड़क रही थीं। उनका अभिनन्दन करने के लिए ६ अप्रैल को कोलकाता में एक विराट सभा का आयोजन भी किया गया था। लेकिन इसी दौरान डॉक्टरों ने उनके स्वास्थ्य की जाँच कर उन्हें कम से कम डेढ़-दो महीने तक सम्पूर्ण विश्राम करने का परामर्श दिया था। पहले आय.सी.एस. की परीक्षा देने के लिए जब वे इंग्लैंड़ में रहते थे, तब दिलीपकुमार रॉय की मध्यस्थता से, मँचेस्टर में रहनेवाले मूलतः पंजाब के निवासी डॉ. धर्मवीरजी और जानकी धर्मवीरजी इस दम्पति के साथ सुभाषबाबू का परिचय हुआ था। वे अब पंजाब के डलहौसी में रहने आये थे। सुभाषबाबू आराम करने के लिए हमारे यहाँ पधारें, ऐसा उन्होंने सन्देश भेजा।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्रामउसके बाद सुभाषबाबू डलहौसी गये। उन्हें पहाड़ियों की गोद में एकान्त में बसा यह रमणीय स्थल बहुत ही भा गया। वहाँ के मशहूर अँग्रेज़ी ‘८’ अंक के आकारवाले रास्ते पर टहलना, यह उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा ही बन चुका था। प्राकृतिक सुन्दरता से भरे इसी स्थान में गुरुदेव रविन्द्रनाथजी को अपनी पहली कविता का स्फुरण हुआ था। इसी प्राकृतिक सुन्दरता से मोहित होकर अँग्रेज़ों ने चंबा के राजा से इस स्थल को खरीद लिया था और उसे अपने पहले गव्हर्नर जनरल का नाम देकर उसे अपना एक प्रमुख विश्रामस्थल बनाया। यहाँ पर डॉ. धर्मवीरजी और सुभाषबाबू की ‘दीदी’ जानकी धर्मवीरजी इन्होंने अपने छोटे भाई की तरह सुभाषबाबू का खयाल रखा। लगभग पाँच महीनों तक वे वहाँ थे। वहाँ के वास्तव्य में बीमारी के कारण उनमें आ चुकी कमज़ोरी धीरे धीरे कम होती गयी।

अक्तूबर के अन्त में कोलकाता में काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक होनेवाली थी। महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गाँधीजी इस समय शरदबाबू के घर में ही रहनेवाले थे। साथ ही जवाहरलालजी तथा अन्य प्रमुख नेता भी वहीं पर रहनेवाले थे। इसलिए वुडबर्न पार्क स्थित शरदबाबू का घर कोई छावनी ही प्रतीत हो रहा था।

सुभाषबाबू भी अपना डलहौसी का वास्तव्य खत्म करके अक्तूबर के पहले ह़फ़्ते में कोलकाता लौट आये। हालाँकि सेहत पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी, लेकिन उसमें का़फी सुधार आया था। अब वे गाँधीजी के स्वागत का इन्तज़ाम करने में लग गये। उन महात्मा के चरण हमारे घर में पड़ने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो रहा है, यह सोचकर बोस परिवार फूले नहीं समा रहा था। गाँधीजी के दैनिक कार्यक्रमों तथा पसन्दगी-नापसन्दगी इनकी, साथ ही उन्हें नित्य जिनकी आवश्यकता पड़ती है ऐसी वस्तुओं की सूचि ही विभाभाभी ने सोदपूर आश्रम के स्वयंसेवकों के साथ बातचीत कर तैयार की थी। गाँधीजी की प्रार्थना की जगह, सूतकताई की जगह यह सारा इन्तज़ाम बार बार बारीक़ी से देखा जा रहा था। गाँधीजी की मेहमाननवाज़ी में किसी भी प्रकार की कमी न रहे इसलिए बोस परिवार का घर दिनरात एक करके मेहनत कर रहा था।

गाँधीजी और वे भी सुभाषबाबू के यहाँ ठहरेंगे! यह कल्पना ही कई लोगों को चुभ रही थी। जिन सुभाषबाबू ने एक घोषणापत्र के द्वारा ज़ाहिर रूप से गाँधीजी की आलोचना की थी, उनके घर गाँधीजी ठहर ही कैसे सकते हैं, यह सवाल निजी रूप से आवेशपूर्वक पूछा जा रहा था।  वे किसी और जगह ठहरें, इसलिए कोलकाता की कुछ नामचीन हस्तियाँ कोशिशों में जुटी थीं। इसीलिए कहीं गाँधीजी यदि किसी अन्य जगह ठहरने की तय कर लें तो, यह चुभन सुभाषबाबू और शरदबाबू के मन को खाये जा रही थी। लेकिन नियोजित कार्यक्रम के अनुसार गाँधीजी उन्हींके यहाँ पधारे और बोस परिवार ने राहत की साँस ली।

बीच के समय में सुभाषबाबू और जवाहरलालजी इनके बीच की दूरी का़फी कम हो चुकी थी और अब सुभाषबाबू मध्यवर्ती राजकीय धारा में प्रवेश कर देश के युवाओं को मार्गदर्शन करें यह जवाहरलालजी की इच्छा थी। उस दृष्टि से उनकी कोशिशें जारी थीं। लेकिन वह काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक समाप्त होते हुए सुभाषबाबू को पुनः का़फी थकान महसूस होने लगी। इसीलिए उन्होंने राजनीति में सक्रिय होने से पहले कुछ समय के लिए पुनः विश्राम करने का तय किया। लेकिन इस बार फिर से डलहौसी न जाते हुए, पहले विश्राम करने वे जहाँ गरम झरनों के प्रदेश में – बाडगास्टेन ठहरे थे, वहाँ जाने का तय किया।

अब आत्मचरित्र लिखने की उन्होंने ठान ली। इसीलिए बाडगास्टेन पहुँचते ही उन्होंने एमिली को व्हिएन्ना से बाडगास्टेन बुला लिया। वे उस समय बेरोज़गार रहने के कारण ट्यूशन्स, पेंटिंग, भाषा सिखाना आदि बातों से अपना चरितार्थ चलाती थीं, सुभाषबाबू के ख़त की राह देखती थीं और उनके ख़तों को जवाब भेजती थीं। यह नाज़ूक प्रेमबन्ध पत्रों के माध्यम से अब धीरे धीरे अच्छाख़ासा दृढ़ होता जा रहा था।

सुभाषबाबू की आध्यात्मिक संरचनात्मक मानसिकता के अनुसार उन्होंने अपने इस आत्मचरित्र को नाम दिया – ‘एक भारतीय यात्रिक’ (‘अ‍ॅन इंडियन पिलग्रिम’)। दस दिनों में लगभग सौ टंकलिखित पन्नें तैयार हो गये। इस आत्मचरित्र में वे अपनी राजकीय, आर्थिक, सामाजिक और मुख्य रूप से आध्यात्मिक भूमिका को विशद करना चाहते थे। बिल्कुल विश्‍व की उत्पत्ति के बारे में भी कई प्रज्ञावानों द्वारा प्रस्तुत किये हुए मतों का विचारमन्थन कर उस सन्दर्भ में स्वयं की राय भी उन्होंने उसमें ज़ाहिर की है। उनके जन्म से लेकर आय. सी. एस. से इस्ती़फा देने तक के समय की सभी प्रमुख घटनाओं को उसमें दर्ज़ किया गया है।

इस लेखनकाल में ही उन्हें इंग्लैंड़ जाने की इजाज़त भी मिली और उन्हें का़फी खुशी हुई। युरोप में तीन साल तक लाख कोशिशें करने के बावजूद भी जो हासिल नहीं हुआ था, वह विधाता ने उनके ठीक सामने लाकर रख दिया था। सन १९३८ की जनवरी में उन्होंने इंग्लैंड़ जाने का तय कर लिया।

लेकिन इससे पहले उनके जीवन में कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित होनेवाली थीं।

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