नेताजी-८८

किट्टी और अ‍ॅलेक्स कुर्टी दम्पति के साथ हुई पहली मुलाक़ात के बाद सुभाषबाबू का उनसे तीन-चार बार मिलना हुआ। किट्टी मानसशास्त्र का अध्ययन कर रही थीं। मानसशास्त्र में भी सुभाषबाबू को मुझसे अधिक ज्ञान है, यह देखकर वे दंग रह गयीं। मानसशास्त्र पर उनकी बातचीत कई घण्टों तक चलती थी। शुरुआती दौर के मानसशास्त्रज्ञों द्वारा किया गया मूलभूत अन्वेषण हो अथवा उस समय नये से प्रकाशित हो रहा आधुनिक प्रगत अन्वेषण हो, हर मुद्दे की कुछ न कुछ जानकारी तो सुभाषबाबू को रहती ही थी। फिर उस मुद्दे के समर्थन में अथवा विरोध में सुभाषबाबू जो सकारण मीमांसा प्रस्तुत करते थे, उससे अर्थात् उनके प्रखर ज्ञानतेज से वे स्तिमित रह जातीं। मैं भला इन्हें मानसशास्त्र के बारे में क्या बताऊँ, यह भी वे सोचती थीं। वहीं, भारतीय तत्त्वज्ञान के सन्दर्भ में उनके चिंतनात्मक अध्ययन को सुनकर तो किसी भारतीय योगीराज से ही मैं बात कर रही हूँ, ऐसा उन्हें लगता था।

उनके पति अ‍ॅलेक्स इंजिनियर थे। उनके साथ भी सुभाषबाबू उनके क्षेत्र के बारे में बातचीत करते थे। भारत में गत कई सदियों से पनप रही ग़लत आध्यात्मिक संकल्पनाओं के कारण वैज्ञानिक विकास को गौण स्थान दिया जाने का दुख वे ज़ाहिर करते थे। लेकिन यदि युरोप के साथ साथ चलना हो, तो भारत के आज़ाद होने के बाद सामाजिक विकास के साथ साथ वैज्ञानिक विकास को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, ऐसा उन्होंने अ‍ॅलेक्स से कहा।

मानसशास्त्रक्या आप गाँधीजी को जानते हैं? उनके इस प्रश्न को सुभाषबाबू ने हँसकर ‘हाँ’ यह जवाब देते ही हक्काबक्का रह गये वे दोनों उनसे गाँधीजी के बारे में सवाल पूछते थे। बहुत ही आसान विचारप्रणालि दुनिया को प्रदान करनेवाले गाँधीजी को जानना बहुत ही मुश्किल है, ऐसी किट्टी की राय थी। इस विषय में सुभाषबाबू ने उसे कहा कि ‘गाँधीजी ये विभिन्न दिशाओं से अलग-अलग रूप में दिखायी देनेवाली एक गगनस्पर्शी पर्वत की चोटी के समान हैं। इसीलिए उन्हें जानने में जटिलता महसूस होती है। लेकिन उनके जैसा अनोखा इन्सान मैंने आजतक नहीं देखा। इस एक शक़्स ने भारतीय समाजमन तथा स्वतन्त्रतासंग्राम को नया चेहरा दिया, नयी चेतना दी। उन्हीं की वजह से भारतीय स्वतन्त्रता यह आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का मुद्दा बन गया। मग़र फिर भी उनके साथ कुछ मुद्दों पर मेरी अत्यधिक मतभिन्नता है और यह बात दुनिया जानती है। अहिंसात्मक मार्ग से पाशवीय अँग्रे़जी हुकूमत का हृदयपरिवर्तन होकर वे हमें आ़जादी बहाल करेंगे, इस गाँधीजी की धारणा से मैं सहमत नहीं हूँ।’

सुभाषबाबू के धीरगंभीर व्यक्तित्व से, गगनस्पर्शी वैचारिक परिपक्वता से तथा वैचारिक दृढ़ता से उन दोनों को भी मानसिक आधार मिलता था; जिसकी जर्मनी में ते़जी से बिगड़ रहे हालात में उन्हें ज़रूरत थी। सुभाषबाबू जब पहली बार कुर्टी दम्पति के घर पधारे थे, तब वे गोअरिंग से मिलकर वहाँ आये थे। यह समझने के बाद किट्टी के पैरोंतले की ज़मीन ही खिसक गयी। गोअरिंग के लिए ‘नरपशु’ यह व्याख्या उसके मन में थी और इसीलिए ऐसे व्यक्ति के साथ वे बातचीत कैसे कर सकते हैं, ऐसा उन्होंने सुभाषबाबू से पूछा। तब उन्होंने यह कहा कि ‘आपको नाझी जितने ख़ूँखार लगते हैं, उतने ही पाशवीय अत्याचार अंग्रेज़ी हुकूमत हम भारतीयों पर कर रही है। अपनी ‘सज्जनता’ का डंका दुनियाभर में पीटनेवाले अँग्रेज़ों की सज्जनता भारतीयों के प्रति बिल्कुल ही दिखायी नहीं देती। इसीलिए ऐसी ज़ुल्मी सत्ता के काँटे को काँटे से ही निकालना पड़ेगा। अत एव इस मामले में भावनाविवश न होते हुए ‘इस तरह के’ लोगों से मिलने का कार्य भी मुझे करना ही पड़ेगा, फिर चाहे वह कितना भी अप्रिय क्यों न हो। इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं है।’

नेहरूजी के बारे में भी वे सुभाषबाबू से पूछते थे। सुभाषबाबू का गाँधीजी, जवाहरलालजी जैसों के साथ उठना-बैठना है, यह समझते ही उन दोनों को बहुत ही ताज्जुब हुआ। नेहरू के सन्दर्भ में भी सुभाषबाबू ने अपने विचार सुस्पष्ट रूप से उन्हें बताये।

सुभाषबाबू के साथ हुए संभाषणों के कारण ही हम गाँधीजी, नेहरूजी को पहचान सके और स्वयं सुभाषबाबू को भी जान सके, ऐसा इस दम्पति ने खुले दिल से कहा।

आगे चलकर सन १९३३ के अगस्त के अन्त में सुभाषबाबू विठ्ठलभाई की सेहत का हालचाल पूछने के लिए फ्रान्झेनबाड गये। वहाँ से उन्हें साथ लेकर ही व्हिएन्ना लौटने का उनका विचार था। लेकिन उतने में ही सितम्बर में ही ‘इन्टरनॅशनल कमिटी फॉर इंडिया’ के द्वारा जीनिव्हा में एक परिषद का आयोजन किया गया है, ऐसा उन्हें पता चला। इसलिए फिर वे तथा विठ्ठलभाई जीनिव्हा गये। उस परिषद में सुभाषबाबू ने भाषण भी दिया। लेकिन इस मशक्कत से विठ्ठलभाई पुनः बीमार पड़ गये। उनके हृदयविकार ने ज़ोर पकड़ लिया।  इस वजह से उन्हें जीनिव्हा के पास ग्लँड के अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। तीन-चार दिनों में उनकी सेहत थोड़ीबहुत ठीक हो जाते ही सुभाषबाबू पुनः जर्मनी लौट आये। लेकिन वह भी कुछ ही दिनों के लिए।

क्योंकि इसी दौरान विठ्ठलभाई की सेहत बहुत ही ख़राब हो चुकी है, यह जानकारी सुभाषबाबू को मिली। तब वे फौरन ग्लॅन्ड रवाना हुए। उन्हें देखकर विठ्ठलभाई फूले नहीं समा रहे थे। दासबाबू और गाँधीजी के बाद सुभाषबाबू को विठ्ठलभाई ही आदरणीय थे। दासबाबू के आख़िरी दिनों में सुभाषबाबू के जेल में रहने के कारण उनकी सेवा करने का अवसर न मिलने की चुभन भी उनके मन में थी। इसीलिए उन्होंने दिनरात विठ्ठलभाई को खाना खिलाने से लेकर दवाइयाँ देने तक प्रेमपूर्वक हर तरह की शुश्रुषा की। रातभर वे उनके सिरहाने बैठे रहते थे। उनके लिए भगवद्गीता का पाठ करते थे। गीता पढ़ते हुए सुभाषबाबू को विठ्ठलभाई बड़े कौतुक से देखते थे। उनका चौड़ा माथा, भावुक होकर गीता पढ़ते हुए रहनेवाली उनकी एकतानता, यह नज़ारा कुछ और ही था। उनकी घनगंभीर आवाज़ में गीता सुनते हुए किसी योगीराज से ही मैं गीता सुन रहा हूँ, ऐसा उन्हें प्रतीत होता था।

वे कई घण्टों तक विठ्ठलभाई के तथा उनके पसन्दीदा विषय पर यानि भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम पर बातचीत करते रहते थे। लेकिन सुभाषबाबू के आने से विठ्ठलभाई के मन को सुकून भले ही मिला हो, लेकिन उनकी सेहत दिनबदिन बिगड़ती ही जा रही थी। एक दिन विठ्ठलभाई ने सुभाषबाबू को बुलाकर ‘मुझे वसीयतनामा तैयार करना है’ यह कहा। उनके कहने के अनुसार सुभाषबाबू ने वक़ील की व्यवस्था की। उनके एक-दो रिश्तेदारों को बुला लिया। भारत में भी सँदेसा भेजा। लेकिन वल्लभभाई को उस समय नासिक जेल में रखा गया था और अँग्रेज़ सरकार ने उन्हें भेजने से मना कर दिया।

वसीयतनामा सुनकर सुभाषबाबू हैरान हुए।

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