नेताजी-१००

हरिपुर काँग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षपद पर नियुक्त किये जाने की ख़बर सुनने के बाद सुभाषबाबू को सोच-विचार के लिए अब दिन के चौबीस घण्टे भी कम पड़ने लगे थे। १७ जनवरी १९३८ को उन्होंने हवाई जहाज़ का स़फर शुरू किया और प्राग, रोम, नेपल्स, अथेन्स, बसरा रुकते हुए २३ जनवरी को सुभाषबाबू का कराची हवाई अड्डे पर आगमन हुआ। वहाँ संवाददाताओं ने उन्हें घेर लिया और उस वार्तालाप में अन्य प्रश्‍नों के साथ साथ उनकी शादी के विषय में भी बात छेड़ दी। तब थोड़ासा शरमाते हुए ‘फिलहाल इस बारे में कुछ सोचा नहीं है’ यह जवाब उन्होंने दिया। अगले दिन व्हाया जोधपूर वे कोलकाता पहुँच गये। अधिवेशन १९ फरवरी को था। यानि उनके पास महीने भर का वक़्त भी नहीं था। इसी अवधि में उन्हें कार्य के कई पर्वतों को पार करना था। मुख्य रूप से, जिसपर सभी का ध्यान लगा रहता है उस अध्यक्षीय भाषण को तैयार करना था। उनके मन में कई मुद्दों के बारे में मंथन चल रहा था – तब तक सन १९३५ के चुनाव क़ानून के अनुसार ग्यारह प्रदेशों में चुनाव होकर उनमें से सात प्रदेशों में काँग्रेस ने सत्ता सँभाली थी। यह पहला पड़ाव था।

इसके बाद इन्हीं ग्यारह प्रान्तों का संघराज्य बननेवाला था। लेकिन उनके साथ साथ भारत के बाक़ी के हिस्से का भी भारतीय संघराज्य में शामिल होना ज़रूरी था। और बाक़ी का भारत तो पाँच सौ से भी अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में बटा हुआ था। उनके संघराज्य में शामिल होने के लिए वहाँ की जनता का काँग्रेस के आन्दोलन को समर्थन मिलना ज़रूरी था। इस मुद्दे का समावेश भी सुभाषबाबू भाषण में करनेवाले थे। दूसरी तऱफ मज़दूरवर्ग का शासन आने के बाद महज़ बीस वर्षों की अवधि में जड उद्योगों पर ध्यान देते हुए रशिया द्वारा की गयी चकाचौंध कर देनेवाली प्रगति यह मुद्दा भी, भारत में उसी तरह की नीति का उपयोग करने के सन्दर्भ में जनमत बनाने के लिए उन्हें महत्त्वपूर्ण लग रहा था। उसी समय तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए ‘फॅमिली-प्लॅनिंग’ के मुद्दे का भी उन्हें भाषण में उल्लेख करना था। इस तरह उनके सर्वसमावेशक ऐसे भाषण ने अब आकृति धारण करना शुरू कर दिया था।

हवाई जहाज़सबसे अहम बात यह थी कि वे पहली बार ही हिन्दी में भाषण करनेवाले थे और भारत के कोने कोने से आनेवाली जनता द्वारा स्वीकृत किये जाने की दृष्टि से प्रभावी हिन्दी में भाषण करना उन्हें आवश्यक लग रहा था। क्योंकि चन्द कुछ ही महीनों पहले नागपूर की सभा में उनके द्वारा बंगाली में किये गये भाषण के अँग्रे़जी अनुवाद को उनके भाषण के बाद वहीं पर पढ़ा गया था। लेकिन उसमें मूल भाषण के जोशपूर्ण भाव की अभिव्यक्ति न होने के कारण मूल भाषण की आत्मीयता भी प्रकट न हो सकी थी। इसीलिए उन्होंने वहीं पर उपस्थितों के सामने कसम खायी थी कि ‘अगली बार मैं हिन्दी में ही भाषण करूँगा’ और अपने वचन का पालन करने के लिए उन्होंने अत्यधिक व्यस्त दिनक्रम में हिन्दी की ट्यूशन भी लगायी थी। द्विवेदी नाम के बुज़ूर्ग हिन्दी अध्यापक उन्हें बड़ी आत्मीयतापूर्वक सिखाते थे। ‘यह सुभाषबाबू का क्या नया नाटक है’ इस तरह के ताने देनेवाले लोग भी थे। लेकिन सुभाषबाबू ने एक बार कुछ करने की ठान ली, तो उस बात को सच्ची लगन और मेहनत के साथ करने का ही उनका स्वभाव था। उन्हें मुँह पर ताने मारने की हिम्मत इन लोगों में नहीं थी। फिर वे उन अध्यापक महोदयजी का मज़ाक उड़ाते थे, लेकिन अध्यापकजी ने उनकी ओर ध्यान तक नहीं दिया। मेरे शिष्य को हिन्दी आनी चाहिए, इतना ही वे जानते थे। साथ ही, यह कोई मामूली शिष्य नहीं है, बल्कि शिष्योत्तम है, यह भी उन्हें भली-भाँति ज्ञात था। हालाँकि सुभाषबाबू को उनके द्वारा दिया गया ‘होमवर्क’ करने के लिए फुरसत ही नहीं मिलती थी, मग़र तब भी महज़ अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं स्मरणशक्ति के बल पर उन्होंने अब अच्छी-ख़ासी हिन्दी सीख ली थी। जब वक़्त मिले तब, कचहरी से घर खाना खाने के लिए जाते हुए रास्ते में भी यह ट्यूशन चलती थी। सुभाषबाबू चाहे कितने भी थकेभागे क्यों न हों, मग़र तब भी टालमटोल न करते हुए हिन्दी के पाठ सीखते थे।

बीच बीच में देशभर में से कहीं न कहीं से उनका अभिनन्दन करने के लिए, उनके मार्गदर्शन का स्वीकार करने के लिए शिष्टमण्डल आते थे। उनके साथ वार्तालाप करने में समय कैसे बीत जाता था, इसका पता ही नहीं चलता था। हरिपुरा हो आये प्रतिनिधि उन्हें वहाँ के इला़के में सरदार पटेलजी की अथक मेहनत एवं लगन के कारण हुए विस्मयकारी परिवर्तन के बारे में उन्हें बताते थे। इस अधिवेशन के लिए लाखों लोग इकट्ठा होनेवाले हैं, यह अनुमान होने के कारण उतने ही भव्य पैमाने में वहाँ की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थी। दूर से, अहमदाबाद से बिजली की सप्लाय दी गयी थी। प्रतिनिधियों को ताज़ा दूध मिल सके इसलिए पाँच सौ गायों को लाकर डेअरी का निर्माण किया गया था। अन्यथा आसपास के पंद्रह मीलों के इला़के में पोस्ट का डिब्बा तक न रहनेवाले हरिपुरा में, तात्कालिक स्वरूप में ही सही, लेकिन डाकघर बनाया गया था।

तात्कालिक बाज़ार का भी निर्माण किया गया था। एक लाख लोगों की व्यवस्था हो सके ऐसे भव्य भोजनालय से लेकर शौचकूपों तक सब कुछ नये से बनाया गया था। प्रतिनिधियों के ठहरने के लिए बांस की लकड़ियों की झोपडियाँ बनायी गयी थीं। यह उस प्रदेश की शक़्ल को बदल देने का काम सात हज़ार स्वयंसेवक और चार हज़ार मज़दूर इनकी दिनरात की लगातार मेहनत का नतीजा था।

यह सब सुनकर, कब वहाँ जाता हूँ ऐसा सुभाषबाबू को लगने लगा। भारत में उस समय मिल सकनेवाला सर्वोच्च सम्मान महज़ अपनी उम्र के इक्क्यालीसवें वर्ष उन्हें मिला था। भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम को उचित दिशा में आगे ले जाने के लिए वे इस अवसर का लाभ उठाना चाहते थे। लेकिन यह सब देखने के लिए मेरे पिताजी आज नहीं हैं, इस एहसास से उन्हें अपने स्वर्गवासी पिता की बार बार याद आ रही थी। दिवंगत गुरु देशबन्धुजी की भी याद आ रही थी। अपने मन की बात वे जिससे कह पाते, वे एमिली भी आज उनके साथ नहीं थीं। लेकिन इन हालातों में उन्हें सुकून दिलानेवाली यह एक ही बात थी कि अपने बेटे के इस गौरवसमारोह को जी भरकर देखने के लिए उनकी सत्तर वर्ष की आयु की वृद्ध माँ वहाँ उपस्थित रहनेवाली थीं, बासंतीमाँ उपस्थित रहनेवाली थीं।

आख़िर प्रस्थान का दिन आ ही गया। नित्य पूजाअर्चा कर ज्येष्ठों से आशीर्वाद लेकर हावड़ा स्टेशन जाते हुए बीच में अपने गुरु – देशबन्धु के पुराने आवासस्थल में रुककर वहाँ कुछ समय मौन में बिताने के लिए भी वे नहीं भूले।

कुल चौदह वर्षों बाद बंगाल को यह सम्मान मिल रहा था और उसमें भी बंगाल के चहीते सपूत सुभाषबाबू को मिल रहा था। इसलिए हावड़ा स्टेशन पर उन्हें बिदा करने के लिए मानो बंगाल का जनसागर ही उपस्थित हुआ था। ‘वंदे मातरम्’, ‘महात्मा गांधी की जय’, ‘सुभाषबाबू की जय’ इन नारों से माहौल झूम उठा था। तिरंगे ध्वज तथा रंगबिरंगी पुष्पमालाओं से सजाये गये सुभाषबाबू के ड़िब्बे में उनके साथ उनकी माँ-जननी, बासंतीमाँ, मेजदा, विभाभाभी इनके साथ साथ कई भतीजें-भतिजियाँ भी सवार थीं….और जी हाँ, उनके हिन्दी के ‘मास्टरजी’ द्विवेदीजी भी थे। गाड़ी खचाखच भर गयी थी।

सुभाषबाबू के जीवनस़फर ने एक नया ही मोड़ ले लिया था।

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