नेताजी-८७

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए मदद माँगने हेतु सुभाषबाबू लगभग डेढ़ महीने तक जर्मनी में थे। लेकिन यह केवल सहायता है, प्रमुख जंग तो भारत को ही और वह भी अपने बलबूते पर लड़नी है, इस बात का उन्हें एहसास था। वहाँ उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम को सहायता मिलने की दृष्टि से कइयों से मुलाक़ात की। कई बार इन मुलाकातों से कुछ भी हासिल नहीं होता था। इससे वे मायूस हो जाते थे। लेकिन यह मायूसी भी कुछ ही देर तक रहती थी। क्योंकि ‘भारतमाता को ग़ुलामी की जंजीरों से मुक्त करना’ यह सीने में सुलगते ध्येयवाद का सैलाब ही इतना तेज़ बह रहा था कि उसके सामने नाक़ामयाबी से आँसू बहाने तक की फुरसत उन्हें नहीं थी।.

हिटलर की तानाशाही में स्वाभिमानपूर्वक रहना यह दरअसल अँगारों पर चलने जैसा काम था। लेकिन बचपन से ही मन पर हुए भक्ति के, अध्यात्म के संस्कार तथा भगवान पर पूरा भरोसा इनके कारण ‘भय’ यह शब्द ही उनकी डिक्शनरी में नहीं था। सुभाषबाबू ने अपने उसूलों के साथ कोई समझौता कभी नहीं किया। इतना ही नहीं, बल्कि यदि भारत के बारे में किसीने अपमानजनक बात कही, तो उसे खरी खरी सुनाने में भी सुभाषबाबू नहीं हिचकिचाये। जर्मन वंश यह सर्वश्रेष्ठ वंश है ऐसा हिटलर का मानना था। इस सन्दर्भ में सुभाषबाबू को कुछ नहीं कहना था। लेकिन उसी समय जर्मनी में भारतीय वंश को गौण मानकर जर्मन और भारतीय वंश के व्यक्तियों के विवाह पर पाबन्दी लगानेवाला वंशभेदात्मक क़ानून पारित हुआ था। उसकी सुभाषबाबू ने कड़े शब्दों में जाहिर रूप से आलोचना की। साथ ही, आगे चलकर द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बदनाम कॉन्सन्ट्रेशन कॅम्प्स के कारण क्रूरकर्मा के रूप में मशहूर हुए गोअरिंग ने जब गाँधीजी के बारे में अपमानकारक लब्ज़ कहे, तब उसकी भी सुभाषबाबू ने कड़ी आलोचना की।

भारतमाताकइयों ने, ‘इस तरह के’ लोगों से सुभाषबाबू ने सहायता माँगी इसलिए उनका निषेध किया। साथ ही सुभाषबाबू ने उस समय लिखे १९२० के दशक के भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के इतिहास में – ‘आ़जादी के बाद भारत को अपने पैरों पर खड़ा रहने के लिए कम से कम कुछ वर्षों तक तो कड़ी फौजी अनुशासनता की, एकपक्षीय सरकार की तथा नियंत्रित एवं संयमित शासक की ज़रूरत है’ – इस आशय का विधान किया था। इस बारे में भी उनके विरोधकों ने उनपर कीचड़ उछालते हुए उन्हें सीधे हिटलर की श्रेणी में रख दिया था। उनकी विचारधारा ही ‘इस तरह की’ थी, इसीलिए वे हिटलर जैसे लोगों के पास मदद माँगने गये थे, ऐसा भी ज़हर उनके बारे में उगला गया। लेकिन सुभाषबाबू ऐसी बातों की परवाह नहीं करते थे। भारत के साथ कोई भी सम्बन्ध न रहने के बावजूद भी, धोख़ाधड़ी से भारत का अपनी हुकूमत में समावेश करके भारतीयों पर कहर ढानेवाली अँग्रेज़ी सल्तनत भारत की दुश्मन है, उसे खदेड़ देना इसी ध्येय को सामने रखकर ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त’ इस एक ही तत्त्व से उन्होंने ऐसे लोगों से मुलाक़ात की।

जर्मनी में जिन गिनेचुने सज्जनों के साथ सुभाषबाबू की मुलाक़ात हुई थी, उन्हीं में से एक था, ‘कुर्टी’ परिवार – किट्टी और अ‍ॅलेक्स कुर्टी। सुभाषबाबू की इनके साथ इत्ते़फाक से ही मुलाक़ात हुई थी। साल भर पहले ही विवाहित हुए कुर्टी दम्पति झेकोस्लोव्हाकिया छोड़कर जर्मनी में बसने आये थे। लेकिन हिटलर के हाथ में सत्ता की बागड़ोर आने के बाद वे, ख़ास कर किट्टी बेहद बेचैन थी। धीरे धीरे माहौल इस कदर बिगड़ता जा रहा था कि ‘जो दिन बीता, वही खुशनसीबी’ यह कहने की नौबत आयी थी। इस असुरक्षितता के माहौल से डरकर वे अमरीका जाकर बसने की सोच रहे थे। किट्टी और अ‍ॅलेक्स दोनों को भी भारत के प्रति, वहाँ की प्राचीन सभ्यता के प्रति, मुख्य रूप से किट्टी को भारतीय तत्त्वज्ञान के प्रति का़फी दिलचस्पी थी और अब तक उन्हें प्राप्त हुई हर जानकारी को उन्होंने बड़े प्यार से जतन किया था। गाँधीजी, जवाहरलालजी इनके बारे में भी उन्होंने का़फी कुछ सुना था। वहाँ कहीं पर भी आयोजित किये गये भारतविषयक कार्यक्रम में वे दोनों अवश्य उपस्थित रहते थे।

इसी दौरान उन्हें पता चला कि बर्लिन में एक अमरिकी धर्मोपदेशक द्वारा संचालित एक अमरिकी कल्चरल क्लब में किसी ‘सुभाषचन्द्र बोस’ नामक व्यक्ति का भारतविषयक व्याख्यान आयोजित किया गया है। ‘भारत’ यह आत्मीयता का विषय होने के कारण उन्होंने इस व्याख्यान में उपस्थित रहने का तय किया। साथ ही, उस अमरिकी धर्मोपदेशक से, अमरीका में स्थलान्तरित होने के लिए क्या किसी प्रकार की सहायता मिल सकती है, इसे भी वे जाँचना चाहते थे।

किट्टी ने बड़ी ही उत्सुकता से सुभाषबाबू का व्याख्यान सुना। भारत की सद्यःस्थिति और भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में मन्त्रमुग्ध कर देनेवाले उनके वक्तृत्व के कारण, भारतीय तत्त्वज्ञानविषयक उनके ज्ञान के कारण, एक भारतीय योगी ही मुझसे बात कर रहा है, ऐसा उन्हें प्रतीत हो रहा था। सुभाषबाबू के व्याख्यान का आशय इस तरह था –

‘भारत को आ़जादी मिलने से समस्या का समाधान नहीं होता। आज़ादी के बाद की राजव्यवस्था के बारे में भी हमें अभी सोचना होगा। इस मामले में ‘आज़ादी मिलने के बाद देखेंगे’ यह कहना बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। वरना १८ वीं सदी में फ्रेंच राज्यक्रान्ति के समय फ्रान्स में जिस तरह का अराजक फैल गया था, वैसे ही हालात भारत में भी उभर सकते हैं। जब भारत आज़ाद होगा, तब भारत की जनता की अपेक्षाएँ भी का़फी बढ़ जायेंगी। लेकिन उन अपेक्षाओं की पूर्ति करने के लिए, जिसे फौजी कहा जा सकता है उतनी कड़ी स्वयंअनुशासनता की जरूरत कुछ समय तक तो भारत को अवश्य ही रहेगी; वरना देश में अ़फरात़फरी का माहौल पैदा हो सकता है। इसीलिए ज़ुल्मी अँग्रेज़ हुकूमत के साथ जंग लड़ रहे जो लोग भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम का नेतृत्व करनेवाले हैं, उनका महज़ इस जंग के बारे में सोचना पर्याप्त नहीं है। बल्कि जब तक कि एक सम्पूर्ण नयी पीढ़ी इस स्वयंअनुशासन को अपनाकर नये देश का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं होती, तब तक की ज़िम्मेदारी स्वतन्त्रतासंग्राम का नेतृत्व करनेवालों की ही रहेगी।’

किट्टी और अ‍ॅलेक्स इस व्याख्यान से का़फी प्रभावित हुए। लेकिन व्याख्यान के ख़त्म होते ही सुभाषबाबू को श्रोताओं ने इस कदर घेर लिया था कि वे उनसे मुलाक़ात तक न कर सके। लेकिन संजोग की बात है कि इत्ते़फाक से कुछ ही दिनों में किसी सड़क पर उनकी मुलाक़ात हो गयी। उस समय से उनके बीच में जो परस्परसौहार्द स्थापित हुआ, वह आख़िर तक क़ायम था। जर्मनी के उस समय के ख़ौ़फनाक माहौल का डटकर मुक़ाबला करने के लिए सुभाषबाबू के आश्‍वासक गगनस्पर्शी व्यक्तित्व में ही उन्हें मानसिक सहारा मिल गया था। किट्टी ने १९६६ में सुभाषबाबू पर ‘सुभाष अ‍ॅज आय न्यू हिम’ यह क़िताब भी लिखी।

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