नेताजी-९३

पिताजी के अन्तिम दर्शन न करने का सुभाषबाबू को का़फी दुख हो रहा था। उसमें भी, पिताजी के आख़री दिनों में वे सुभाषबाबू के नाम का ही मानो जाप कर रहे थे, यह मेजदा से समझने के बाद तो उनपर ग़म का पहाड़ ही टूट पड़ा। पचास वर्ष के सहजीवन में जिसने हमेशा साथ निभाया, उस पति के निधन के कारण माँ की हुई हालत देखी नहीं जा रही थी। मग़र तब भी सुभाषबाबू अपने ग़म को पीकर उनका धीरज बाँध रहे थे।
उस समय की जनरीति के अनुसार शोककाल ३ ह़फ़्ते तक का था। इस दौरान पलंग पर न सोते हुए ज़मीन पर सोना, गरम कपड़ें न पहनना आदि कई बातों का ध्यान रखना था। लेकिन इस दौरान पहरे की आड़ में पुलीस द्वारा की जा रही गुस्ताख़ी को देखकर सुभाषबाबू का खून खौल उठा और ‘इसपर आप आक्षेप क्यों नहीं लेते’ ऐसा उन्होंने मेजदा से पूछा। तब मेजदा ने ‘यह तो कुछ भी नहीं’ ऐसा कहकर अलमारी में से एक कागज़ निकालकर उन्हें दिखाया। पिताजी के अन्तिम संस्कार के लिए मेजदा को उपस्थित रहने की अनुमति मिले, इस उद्देश्य से उनके द्वारा विशेष अर्ज़ी कर प्राप्त किया हुआ वह सरकारी अनुज्ञापत्र था। लेकिन उसपर लिखी हुई तारीख़ पिताजी के मृत्यु के पूर्व की थी। इस बारे में सुभाषबाबू ने हैरान होकर जब उनसे पूछा, तब मेजदा ने उन्हें पुलीस की पत्थरदिली बयान करते हुए कहा कि ‘पुलीस का कहना था कि आप पहले से ही अनुज्ञापत्र प्राप्त कर लें तो बेहतर है, वरना यदि पिताजी के गुज़र जाने के बाद आपको इजाज़त नहीं दी गयी, तो हमें क़सूरवार मत ठहराना।’ तानाशाही को भी लज्जित कर दे, ऐसी पुलीस की यह मग़रूरी देखकर सुभाषबाबू को खेद हुआ।

लेकिन सुभाषबाबू शोकमग्न होने के बावजूद भी सभान थे। उन्हें इस समय का उपयोग भविष्य में आवश्यक रहनेवाली रक़म का प्रबंध करने में करना था। प्रकाशनसंस्था द्वारा दी हुई अ‍ॅडव्हान्स की रक़म भी समाप्त हो चुकी थी। शरदबाबू के स्थानबद्ध होने के कारण अब सुभाषबाबू के लिए दोस्तों से आर्थिक सहायता माँगना अनिवार्य था। इसीलिए उन्होंने, कुछ धार्मिक विधि बाक़ी रहने की वजह देते हुए सरकार से कुछ मोहलत माँगी। सरकार ने भी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए, हाँ-ना कहते हुए आख़िर अनुमति दे दी। लेकिन साथ ही, क्या सुभाषबाबू अब भी सचमुच ही बीमार हैं, इस बात का पता लगाने के लिए डॉक्टरों को नियुक्त किया। यदि वे ज़्यादा बीमार न हों, तो युरोप भेजने के अलावा उन्हें जेल में रवाना करने का सरकार का इरादा था। लेकिन सुभाषबाबू हक़ीक़त में गॉल ब्लॅडर से सम्बन्धित बीमारी से पीड़ित रहने के कारण डॉक्टरों ने भी उन्हें इसपर फौरन इलाज कराने की स़िफारिश की और लगभग सवा महीने बाद ११ जनवरी १९३५ को सुभाषबाबू ‘एम. व्ही. व्हिक्टोरिया’ बोट द्वारा पुनः युरोप जाने के लिए निकले।

इस झमेले में अब सुकून की एक बात यह थी कि पिछली बार की तरह पुलीस की नोंकझोंक का उन्हें सामना नहीं करना पड़ा। अत एव मुंबई पहुँचते ही वहाँ के काँग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ उनकी मुलाक़ात हो पायी। सुभाषबाबू हिटलर के प्रशंसक हैं, यह एक बहुत बड़ी ग़लत़फहमी उनके बारे में उनके हितशत्रुओं ने भारत में फैलायी थी। इस सन्दर्भ में पत्रकारों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने, मैं नाझीवाद को नहीं मानता और हिटलर की नीति में भी कई दोष हैं, यह सा़फ सा़फ कहा। केवल हिटलर द्वारा जिस जोश एवं प्रखर राष्ट्रनिष्ठा के साथ, व्हर्साय समझौते में जिसके लगभग सभी पर छाँटे गये थे, उस जर्मनी को फिनिक्स की तरह ऊँची उड़ान भरने की ताकत प्रदान करने की जो जोरों कोशिशें की जा रही हैं, वे सराहनीय हैं और हमें केवल उनकी उतनी ही बात का अनुकरण करना चाहिए, यही मेरा मन्तव्य है, यह सा़फ सा़फ कहा।

तानाशाहीसुभाषबाबू नेपल्स पहुँचे। २९ नवम्बर को युरोप से निकलने से पहले तेज़ी से प्रूफचेकिंग करके उनके द्वारा पूरा किया गया ग्रन्थ बीच के समय में लंदन की ‘लॉरेन्स अँड विसहार्ट’ इस प्रकाशनसंस्था ने १७ जनवरी १९३५ को प्रकाशित किया था। नेपल्स पहुँचते ही उनके उस ग्रन्थ की – ‘द इंडियन स्ट्रगल: १९२०-१९३४’ की पहली कापी उन्हें प्राप्त हुई। उसे देखते ही वे छोटे बच्चे की तरह फूले नहीं समाये। लगभग साढ़े-तीन सौ पन्नों के उस ग्रन्थ में, काँग्रेस के १९१९ के अमृतसर अधिवेशन से लेकर सन १९३४ के अक्तूबर में मुंबई में हुए काँग्रेस अधिवेशन तक की घटनाओं का समावेश था। साथ ही ‘उस कालखण्ड में गाँधीजी द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम के लिए दिया गया योगदान’ इस विषय पर भी एक स्वतन्त्र प्रकरण था।

अँग्रेज़ों के आने के बाद ही भारत राजकीय दृष्टि से ‘एक देश’ के रूप में अस्तित्व में आया, इस अपप्रचार का उन्होंने इस पुस्तक के प्रास्ताविक में ही खण्डन किया है। इस तरह का अपप्रचार या तो अज्ञानवश या फिर पूर्वग्रहदूषित बुद्धि से किया जा रहा है, यह उन्होंने कहा। ‘भारतीय संस्कृति यह इतनी अतिप्राचीन है कि इतिहास के कालखंडों के निकषों के भी वह परे है। भौगोलिक, ऐतिहासिक सन्दर्भ में भारत में हालाँकि विविधता दिखायी दे भी रही हो, लेकिन भारत के किसी भी कोने में आप जायेंगे, तो थोड़े-बहुत फर्क़ के साथ समान धार्मिक रूढ़ियाँ और रीतिरिवाज़ आपको दिखायी देंगे। भारत के चार कोनों में रहनेवाले चार धामों की यात्रा भाविक भारतीय प्राचीन समय से करते आ रहे हैं। इसीलिए अँग्रेज़ों के आने के कारण राजकीय दृष्टि से भारत एक देश के रूप में अस्तित्व में आया ऐसा कहना यह अपप्रचार है, ऐसा उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है। गाँधीजी के बारे में कहते हुए – ‘गाँधीजी हमेशा ही एक सन्त और एक राजनीतिज्ञ इस दोहरी भूमिका में रहते हैं। लेकिन पत्थरदिल दुश्मन के साथ पेश आते हुए उसकी अच्छाई पर बेवजह भरोसा करने की उनकी यह सन्त की भूमिका बाधा बन जाती है और फिर एक राजनीतिज्ञ के तौर पर उनके द्वारा किये गये फैसले कभी कभी ग़लत साबित होते हैं’ यह भी उन्होंने सा़फ सा़फ कहा था। लेकिन उसीके साथ भारत की आज़ादी की लड़ाई को चेहरा प्रदान करने का कार्य गाँधीजी ने ही किया और भारत की आज़ादी की समस्या आन्तर्राष्ट्रीय मंच पर पहुँच गयी, वह गाँधीजी के कारण ही, यह भी उन्होंने खुले दिल से क़बूल किया है।

सुभाषबाबू की इस क़िताब की लंदनस्थित मँचेस्टर गार्डियन, संडे टाईम्स, डेली हेरॉल्ड, न्यूज क्रॉनिकल इन अग्रसर अख़बारों ने का़फी सराहना की। इस ग्रन्थ में सुभाषबाबू द्वारा अभिव्यक्त किये गये विचारों के साथ हालाँकि कई अँग्रेज़ सहमत न भी हों, मग़र तब भी उन विचारों को बहुत ही वस्तुनिष्ठ पद्धति से प्रस्तुत किया जाने के कारण उन्हें नज़रअन्दाज़ भी नहीं किया जा सकता, इस आशय की टिप्पणियाँ इन अख़बारों द्वारा की गयीं।

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