नेताजी- ९६

आन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की भूमिका प्रस्तुत करने का कार्य युरोप में सन्तोषपूर्वक चल रहा है, यह देखकर अब सुभाषबाबू के मन में भारत लौटने की आस जागृत हुई। यह सारा कार्य शारीरिक पीड़ा से व्यथित रहने के बावजूद भी उन्होंने केवल स्वयं के प्रचण्ड मनोबल से किया था। इस कार्य के लिए किसी से सहायता ली भी, तब भी वह उसके सामने सिर न झुकाते हुए, अपनी शर्तों पर ही। इसीलिए शुरू शुरू में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में जर्मनी से सहायता मिल सकती है, ऐसा सोचनेवाले सुभाषबाबू ने जब यह जाना कि नाझियों का राष्ट्रवाद संकुचित है, तब मदद को स्वीकारने के द्वार खुले रखते हुए, भारतीयों को गौण संबोधित करनेवाले हिटलर के मतों का निषेध करने में भी वे नहीं हिचकिचाये।

आगे चलकर जो घटनाएँ घटित हुईं, उनपर नज़र डालें, तो यह समझ में आता है कि दरअसल उनका युरोप जाना ही उन विधाता के एक बड़े ‘गेमप्लॅन’ का ही एक हिस्सा था। इसीलिए उनके लिए प्रारंभिक बातें बड़ी आसानी से होती रहीं। यहाँ पर ही इसी बात का पुनःप्रत्यय आया कि श्रद्धावानों के सन्दर्भ में उनके शत्रुओं द्वारा की गयीं करतूतें भी अन्ततः उन श्रद्धावानों के लिए हितकारी ही साबित होती हैं। अँग्रेज़ सरकार उन्हें देश से बाहर निकालने के लिए उतावली थी और उसने सुभाषबाबू के खिला़फ़ जो ढोल पीटना शुरू किया था, उसे देखते हुए ‘यदि देश में रहता हूँ, तो मुझे जेल में ही सड़ना पड़ेगा। अत एव प्रारंभिक रूप में इलाज के लिए ही सही, लेकिन देश के बाहर जाने के मिल रहे अवसर का स्वीकार कर देश के बाहर तो निकलते हैं। फ़िर आगे की देखी जायेगी’ यह सुभाषबाबू की मनोभूमिका बनी थी। सबकुछ सुव्यवस्थित रूप से घटित हुआ और सुभाषबाबू युरोप के दौरे पर गये। वहाँ पर उन्होंने पिछले तीन वर्षों में युरोप के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण देशों का दौरा कर ‘भारत-दूत’ यह अपनी भूमिका अचूकता से निभायी थी। साथ ही उनकी भावी पत्नी – एमिली के साथ मुलाक़ात भी यहीं पर हुई थी। अर्थात् अँग्रेज़ सरकार द्वारा ‘भारत में यह मुसीबत न हो तो ही अच्छा है’ इस भावना के साथ उन्हें भारत से निकाल बाहर कर देना भी उनके लिए हितकारी ही साबित हुआ था।

सारे कामों ने गति पकड़ने के बाद फ़िलहाल युरोप में कुछ नया करने जैसा नहीं है, यह समझ में आते ही उन्होंने वहाँ वक़्त जाया करने से भारत लौटना बेहतर समझा। मार्च १९३६ के अन्त में ‘काऊंट वेर्दे’ इस इटालियन बोट से वे भारत आने निकले। भारत पहुँचते ही मुझे गिऱफ़्तार किया जायेगा, इस बारे में उन्हें कोई भी सन्देह नहीं था। वहाँ से प्रस्थान करने के पूर्व वहाँ के कुछ मित्रों से भी उन्होंने यह कहा था। मग़र तब भी अविचल मन से वे भारत आने निकले। उनके बारे में अँग्रेज़ सरकार को इतना ख़ौंफ़ था कि इजिप्त के पोर्ट सैद में बोट पहुँचने के बाद वहाँ पर जब दो दिन तक बोट रुकनेवाली थी, तब वे इजिप्त में घुसकर कहीं हमारे लिए और मुसीबत पैदा न कर दें, यह सोचकर वे इजिप्त में प्रवेश ही न कर पायें इस उद्देश्य से पुलीस ने बोट पर जाकर पहले उनका पारपत्र अपने कब्ज़े में कर लिया और उनकी केबिन के बाहर पहरा बिठाया गया। दो दिन के बाद बोट के वहाँ से प्रस्थान करते समय ही उनका पारपत्र उन्हें लौटाया गया।

उनके आने की ख़बर लगते ही भारत में कड़ा बन्दोबस्त रखा गया था। हालाँकि वे बोट से आ रहे हैं यह ख़बर पक्की थी, लेकिन ‘उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, वे बीच में ही अपनी योजना को बदलकर हवाई जहाज़ से भी आ सकते हैं’ इस डर से उनके युरोप से प्रस्थान करने के दिन से ही कराची हवाई अड्डे पर भी सुरक्षा का पक्का इन्तज़ाम किया गया था।

रुक-रुककर आख़िर ८ अप्रैल १९३६ को उनकी बोट ने मुंबई के किनारे को छू लिया।

उनके स्वागत के लिए काँग्रेस के कार्यकर्ता, उनके कई स्नेही ऐसी खचाखच भीड़ फ़ूलमाला आदि लेकर वहाँ पर मौजूद थी। बोट के डेक पर अपने चहीते नेता को देखते ही सर्वत्र खुशी की लहर दौड़ गयी। जयघोष और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे लगने लगे। उसी दौरान चन्द चार दिनों बाद काँग्रेस का लखनौ अधिवेशन होने जा रहा था। उसके अध्यक्ष जवाहरलालजी होने के कारण देशभर के युवाओं में नवचेतना का संचार हुआ था। साथ ही, जवाहरलालजी ने अपनी कार्यकारिणी में सुभाषबाबू को सम्मानपूर्वक नियुक्त किया था। इससे लोग फ़ूले नहीं समा रहे थे। सुभाषबाबू से मिलकर उन्हें बधाई देने के लिए उपस्थित बेताब थे।

लेकिन बन्दरगाह पर पुलीस का स़ख्त पहरा था। सुभाषबाबू को बोट पर ही पुलीस ने गिरफ़्तार कर लिया था और उनका हाथ पकड़कर उन्हें जीप की ओर ले जाया जा रहा था। हालाँकि उनकी गिऱफ़्तारी होने की आशंका थी, मग़र तब भी हमारे प्रिय नेता को हमसे बिना मिलने दिये ही गिऱफ़्तार कर सीधा जेल ले जाया जा रहा है, इससे उपस्थित का़फ़ी मायूस हो गये। लेकिन जीप की ओर चलते चलते यक़ायक़ उन्होंने हाथ झटककर भीड़ की ओर देखते हुए हाथ उठाकर ‘आज़ादी का झण्डा ऊँचा रखना’ यह सन्देश लोगों को दिया। पुलीस ने जैसे-तैसे करके उन्हें गाड़ी में बिठाया और आर्थररोड जेल ले जाया गया। उनका पारपत्र भी ज़ब्त किया गया।

लेकिन उतने ख़तरनाक कैदी को मुंबई जैसी जगह आर्थररोड़ जेल में रखना सरकार को खतरे से खाली नहीं लग रहा था। इसीलिए ३-४ दिनों में ही उन्हें पुणे के येरवडा जेल में भेजा गया। लेकिन वहाँ पर उनकी पित्ताशय की पुरानी बीमारी ने पुनः सिर उठाया। उनकी भूख कम हो गयी और गले में आयी हुई सूजन के कारण खाना खाने में दिक्कत होने लगी। उनका वज़न भी का़फ़ी घट गया। आप सरकार के सामने पेचींदा हालात पैदा हुए। पहले ही देशभर की जनता ने सुभाषबाबू की स्थानबद्धता के ख़िला़फ़ सभी स्तरों पर सरकार की नाक में दम कर रखा था। सेन्ट्रल कौन्सिल में सुभाषबाबू की गिऱफ़्तारी के ख़िला़फ़ प्रस्तुत किया गया स्थगन प्रस्ताव भी पारित हो चुका था। इंग्लैंड़ में भी पार्लमेंट में मज़दूर पक्ष के सदस्यों द्वारा आवा़ज़ उठाये जाने का कारण वहाँ की सरकार द्वारा भी भारत की अँग्रेज़ सरकार पर लगातार दबाव बढ़ रहा था। जवाहरलालजी ने भी लखनौ अधिवेशन में किये हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाषबाबू की रिहाई की माँग की। उसमें भी सुभाषबाबू की रिहाई की माँ के सन्दर्भ में २० मई १९३६ यह दिवस देशभर में ‘सुभाष दिवस’ के रूप में मनाया गया। उस दिन देशभर में सुभाषबाबू की रिहाई की माँग करते हुए जुलूस निकाले गये, सभाओं का आयोजन किया गया। ऐसे नाज़ूक माहौल में सुभाषबाबू को जेल में रखना सरकार को यथोचित नहीं लग रहा था, लेकिन सरकार उन्हें रिहा करना भी नहीं चाहती थी। सरकार की हालत कैंची में जकड़ी हुई किसी वस्तु की तरह हो गयी थी और ‘करने गये कुछ और हुआ और कुछ’ ऐसी स्थिति का सामना उसे करना पड़ रहा था।

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