नेताजी- ८१

व्हेनिस में एक दिन रहने के बाद ७ मार्च १९३३ की रात को सुभाषबाबू व्हिएन्ना के लिए रवाना हुए। अब उनका पहला लक्ष्य था – तंदुरुस्ती।

उनके आने की ख़बर वहाँ भी पहुँच ही चुकी थी। इसीलिए ८ मार्च को व्हिएन्ना पहुँचते ही वहाँ के भारतीय छात्रों ने उनका स्वागत किया। यहाँ भी उन्होंने ‘भारत की स्वतन्त्रता यही मेरा परमोच्च लक्ष्य रहेगा’ इस स्व-भूमिका का पुनरुच्चारण किया।

व्हिएन्ना के ‘होटल मेसल’ में ठहरने के बाद उन्होंने व्हिएन्ना के डॉक्टरों से अपनी सेहत की जाँच करायी। पहले मंडाले की जेल में जिस पेटदर्द की तकली़फ़ की शुरुआत हुई थी, उसने तब तक जटिल स्वरूप धारण किया था। कभी कभी तो वह तकली़फ़ इतनी बढ़ जाती थी कि उससे मौत आ जाये तो बेहतर है, ऐसा कहने की नौबत आती थी। व्हिएन्ना के डॉक्टरों ने, उनके पचननलिका की बीमारी से पीड़ित होने का निदान किया और उन्हें किसी प्राकृतिक उपचार केन्द्र में जाने की सलाह दी। हालाँकि उस निदान से वे सहमत तो नहीं थे, मग़र फ़िर भी ११ तारीख़ को वे व्हिएन्ना के डॉ. फ्युर्थ के प्राकृतिक उपचार केन्द्र में दाखिल हुए और वहाँ पर उनका इलाज शुरू हुआ।

प्राकृतिक उपचार केन्द्र के डॉक्टरों ने उन्हें – दक्षिणी जर्मनी के कुछ हिस्सों में औषधि जल के कई झरनें हैं और उन झरनों का जल यह उनके पेटदर्द की बीमारी का अ़क़सीर इलाज है, यह परामर्श दिया था। लेकिन एक ह़फ़्ते तक इलाज करने के बावजूद भी उनकी सेहत में कोई सुधार नहीं आ रहा था। तब उन्होंने इंग्लैंड़ या जर्मनी के मशहूर डॉक्टरों से सलाह-मशवरा करने की बात तय की।

इस दृष्टि से वहाँ प्रवेश करने की इजा़जत प्राप्त करने के लिए वे व्हिएन्नास्थित ब्रिटीश दूतावास गये। लेकिन उनके पारपत्र पर पहले से ही उनके लिए ‘इंग्लैंड़ तथा जर्मनी में प्रवेश निषिद्ध’ यह लाल रंग की स्याही से सा़फ़ सा़फ़ दर्ज किया गया था। अत एव वहाँ के राजदूत इस मामले में उनकी सहायता नहीं कर सके। लेकिन उन्होंने – ऐसे झरने स़िर्फ़ जर्मनी में ही नहीं, बल्कि कई युरोपीय देशों में हैं, यह कहकर हंगेरी तथा झेकोस्लोवाकिया इन देशों में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की। नियति भी ‘भारत की स्वतन्त्रता’ इस एकमात्र लक्ष्य का जुनून सवार हुए अपने इस सपूत के लिए एक के बाद एक दरवा़जें खोल रही थी। अत एव कुछ ही दिनों में उन्हें ग्रीस, तुर्कस्तान, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, डेन्मार्क, नॉर्वे, युगोस्लाव्हिया आदि अन्य कई देशों में जाने की अनुमति भी प्राप्त हुई।

अब सुभाषबाबू के लिए लगभग सारे युरोपीय देशों के दरवा़जें खुल चुके थे। इस तरह बिस्तर पर और कितनी देर लेटा रहूँगा, यह वे सोच रहे थे। इसकी अपेक्षा सभी युरोपीय देशों में जाकर, वहाँ के नेताओं-बुद्धिजीवियों-कलाकारों से मिलकर भारत की व्यथा को उनतक पहुँचाकर इस मामले में उनकी किस प्रकार से सहायता मिल सकती है, इसे आजमाना चाहिए, ऐसा उन्हें लगने लगा। वे हमेशा ही कहते थे कि भारत का हर एक नागरिक भारत के बाहर जाने पर भारत का अनौपचारिक राजदूत ही होता है और इसीलिए प्रत्यक्ष आन्दोलन भले ही न हो, लेकिन अग्रीम आन्दोलन की जड़ें म़जबूत करने की उन्होंने ठान ली।

इस काम में उन्हें व्हिएन्नावासी मुल्लर दंपति से का़फ़ी मदद मिली। सुभाषबाबू के क़रिबी दोस्त दिलीपकुमार रॉय के वे परिचित थे और उन्होंने उनके नाम से सुभाषबाबू के लिए स़िफ़ारिशपत्र भी दिया था। उनमें से मिसेस मुल्लर यानि हेडी रेने फ्युलॉप-मुल्लर ऑपेरा सिंगर थीं और उन्होंने योगी अरविन्दजी के शिष्यत्व का स्वीकार भी किया था; अत एव अब ‘निलीमा’ यह नामकरण हो चुकी अपनी इस गुरुभगिनी के प्रति दिलीपबाबू ने निःसंकोचपूर्वक सुभाषबाबू के लिए स़िफ़ारिशपत्र दिया था। उनके पति रेने फ्युलॉप-मुल्लर ने ‘लेनिन अँड गांधी’ यह पुस्तक लिखी थी और इसीलिए उनसे मिलने की उत्सुकता सुभाषबाबू के मन में थी। साथ ही उन्होंने ‘माईंड अँड फ़ेस ऑफ़ बोल्शेव्हिझम’ नामक क़िताब भी लिखी थी। सोव्हिएत रशिया की नस नस से वाक़िब होने की दृष्टि से यह क़िताब सुभाषबाबू के लिए आगे चलकर बहुत ही उपयोगी साबित हुई। प्राकृतिक उपचार केन्द्र में उनसे हुई पहली ही मुलाक़ात में, ये लोग मेरे ‘आप्त’ हैं, इसका एहसास सुभाषबाबू को हो गया।

साथ ही व्हिएन्ना में एक और प्रेमल दंपति के साथ उनका परिचय हुआ – प्रेसिडेन्ट व्हेट्टर और नाओमी व्हेट्टर।

हेडी और नाओमी इन दो महिलाओं में सुभाषबाबू का अपने छोटे भाई की तरह खयाल रखा। अत एव, महिलाएँ मेरी ध्येयपूर्ति के राह में अड़ंगा है, यह सुभाषबाबू का दृष्टिकोन धीरे धीरे बदलने लगा। साथ ही युरोपीय महिलाओं के बारे में उनके मन में बने पूर्वग्रह के बदलने में, पहले आय.सी.एस. के अध्ययन के समय उनकी जिनसे मुलाक़ात हुई थी, उन ‘दीदी’ – डॉ. धर्मवीरजी की पत्नी जानकी धर्मवीरजी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था और साथ ही इन दो महिलाओं के कारण भी उसके बदलने में का़फ़ी मदद मिली।

थोड़ाबहुत तन्दुरुस्त होते ही सुभाषबाबू ने प्राकृतिक उपचार केन्द्र से व्हिएन्ना को शॉटनरिंग इला़के के ‘हॉटेल द फ़्रान्स’ में डेरा जमाया। युरोपीय आर्थिक मन्दी के चलते का़फ़ी क़िफ़ायती भाड़े में उन्हें वहाँ आलीशान कक्ष मिला था। अब उन्होंने जर्मन सीखना शुरू किया। इस काम में उन्हें इन दो दंपतियों से का़फ़ी सहायता मिली। उनके साथ जर्मन भाषा में ही बात करने के तत्त्व का सुभाषबाबू ने बड़ी बारिक़ी से पालन करने के कारण महीने भर में ही जर्मन भाषा में अच्छी-ख़ासी महारत हासिल कर ली। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के बारे में ऑस्ट्रियन लोगों के विचार क्या हैं, यह भी सुभाषबाबू जानना चाहते थे। मुल्लर तथा व्हेट्टर दंपति के कारण ऑस्ट्रिया के विभिन्न क्षेत्रों के नामचीन व्यक्तित्वों के साथ उनका परिचय हुआ।

इसी दौरान उन्हें दिलासा देनेवाली एक ख़बर मिली। शरदबाबू को जबलपुर से बंगाल में ही कहीं रखा जाये, इस सिलसिले में विभाभाभी द्वारा चल रही कोशिशों को क़ामयाबी मिली थी और अँग्रे़ज सरकार ने उनकी दऱख्वास्त मंज़ूर करके शरदबाबू को दार्जिंलिंग में स्थित उन्हीं के एक निवासस्थान में स्थानबद्धता में रखने के आदेश दिये थे। मेजदा की चिन्ता का साया दूर होते ही बुलन्द हौसले के साथ सुभाषबाबू अपने काम में जुट गये।

Leave a Reply

Your email address will not be published.