नेताजी-८९

अपनी सारी जायदाद देशकार्य के लिए दान कर देने की इच्छा प्रदर्शित किये हुए, विठ्ठलभाई के वसियत नामे की ‘उस’ कलम को पढ़कर सुभाषबाबू अचंभित हो गये। उस कलम में सुभाषबाबू का विशेष उल्लेख कर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को आंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए उनके द्वारा विदेश में की जा रही कोशिशों में सहायता करने हेतु एक लाख रुपये की मदद देने की इच्छा प्रदर्शित की गयी थी। इस रक़म का उपयोग करके सभी देशों में भारत-मैत्री संघ की स्थापना की जाये, यह उनकी इच्छा थी। हालाँकि इस ऱक़म का स्वीकार करने सुभाषबाबू तैयार ही नहीं थे; लेकिन विठ्ठलभाई ने- ‘तुम भारतीय स्वतन्त्रता के प्रति रहनेवालीं मेरी इच्छा-आकांक्षाओं के प्रतीक हो और तुम्हें भारत में से इस काम के लिए विशेष रूप में मदद मिलना कभी भी संभव नहीं है’, यह कहकर बुज़ुर्ग होने के नाते उस कलम के लिए उन्हें मना लिया।

अक्तूबर के मध्य के बाद विठ्ठलभाई की सेहत बिगड़ती ही चली गयी और २२ अक्तूबर १९३३ को उनका निर्वाण हो गया। सुभाषबाबू को पुन: एक बार अनाथपन का एहसास हुआ। लोकमान्य तिलकजी के अन्तिम संस्कार जहाँ हुए थे, वहीं यानि मुंबई की चौपाटी पर मेरे अन्तिम संस्कार किये जाये, यह विठ्ठलभाई की इच्छा थी। उसके अनुसार सुभाषबाबू ने उनकी शवपेटिका को मुंबई पहुँचाने की व्यवस्था की।

लेकिन विठ्ठलभाई की वसियत में दर्ज की गयी रक़म उन्हें नहीं मिल सकी। भारत में उस वसियत नामे को पढ़े जाने के बाद खलबली मच गयी। पहले से ही सुभाषबाबू को गाँधीजी का विरोधक माननेवाले वल्लभभाई उनसे ख़फा थे। इसीलिए सुभाषबाबू ने विठ्ठलभाई को संमोहित करके ही मनचाहा वसियत नामा करवाया है, यह सोचकर वल्लभभाई ने उसे मानने से इनकार कर दिया और उन्होंने उसकी सत्यता के संदर्भ में अदालत में मुक़दमा भी ठोक दिया। अदालत ने उनके दावे को सही मानकर उस वसियत नामे को रद करके सुभाषबाबू को ‘वह’ रक़म नहीं मिलेगी, यह फैसला सुनाया। वल्लभभाई ने उस रक़म को गाँधीजी के कार्य के लिए दान कर दिया।

जीवन भर ‘एकला चालो रे’ यही जीवनप्रणालि बन चुके सुभाषबाबू को स्वाभाविकत: उस रक़म के मिलने या न मिलने से कोई फर्क़ नहीं पड़नेवाला था। लेकिन विठ्ठलभाई की अंतिम इच्छा का सम्मान न रखे जाने का उन्हें बड़ा दुख हुआ। मग़र आँसूं बहाने तक की फुरसत उनके पास कहाँ थी? इसीलिए उस विचार को झटककर वे पुन: अपने काम में जुट गये।

अब उनका लक्ष्य था, फ्रान्स। फ्रान्स में भी तो औषधी जल के झरने थे ही। इसीलिए सुभाषबाबू नवंबर के दूसरे ह़फ़्ते में वे जीनिवा से फ्रान्स के नाईस शहर में जा ठहरे। सुभाषबाबू युरोप में दाखिल हुए हैं, इस बात का पता चलते ही युरोप में जगह जगह बसे भारतीय छात्रों में नवचेतना जाग उठी और सुभाषबाबू से मिलने तथा उनके विचार सुनने की उत्सुकता भी। युरोप में जगह जगह रहनेवाले भारतीय छात्र संगठनों में रोम स्थित संगठन सबसे बड़ा था। उस संगठन द्वारा दिसंबर में एक भारतीय संमेलन का आयोजन किया जानेवाला था और उन्होंने सुभाषबाबू से उसके अध्यक्ष पद का स्वीकार करने की दरख़्वास्त की, जिसे सुभाषबाबू ने मान लिया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के संदर्भ में इटालियन सरकार की राय जानने की उत्सुकता भी उनके मन में थी ही। साथ ही उनकी विचारसंपदा को समृद्ध बनानेवाले इटालियन मॅझिनी, गॅरिबॉल्डी और काव्हूर इनकी भूमि होने के कारण भी उन्हें वहाँ जाने में काफी दिलचस्पी थी।

सुभाषबाबू ने रोम के भारतीय छात्र संमेलन के अध्यक्ष पद का स्वीकार किया है, यह समझते ही युरोप के सभी भारतीय छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों ने वहाँ जाने का तय कर लिया। इटालियन सरकार से भी इस मामले में काफी सहायता मिली। उन्होंने इन छात्र प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था रोम के अच्छे होटलों में की और साथ ही इटली के पूरे स़फर की तथा ‘साईटसीइंग’ की व्यवस्था भी की। उस दिसंबर में रोम में भारतीय त्योहार जैसा ही माहौल था, जिसकी खबरें सुनकर इंग्लंड स्थित इंडिया ऑङ्गिस आँखें तरेरने लगी।

इसी दौरान सुभाषबाबू की दृष्टि से अन्य एक उत्साहवर्धक घटना हुई। रोम में उसी समय जिसका शुभारंभ होने जा रहा था, उस ‘ओरिएन्टल इन्स्टिट्यूट’ के उद्घाटन समारोह का न्यौता स्वयं इटालियन सरकार की ओर से सुभाषबाबू को नाईस आकर दिया गया। साथ ही सुभाषबाबू के ठहरने की व्यवस्था रोम के उस समय के सब से शानदार होटल- ‘एक्लेसियर’ में की गयी। अँग्रेज़ी हु़कूमत से टक्कर लेने के लिए आवश्यक रहनेवाली मदद जिनसे मिल सकती थी, उन रशिया, जर्मनी तथा इटाली इन देशों में से रशिया में कदम तक न रख पाने के कारण तथा जर्मनी में भी हिटलर से मुलाक़ात न हो पाने के कारण मायूस हुए सुभाषबाबू का, इटालियन सरकार के इस हार्दिक प्रतिसाद से हौसला बढ़ गया।

‘ओरिएन्टल इन्स्टिट्यूट’ के उद्घाटन समारोह में सुभाषबाबू की मुलाक़ात मुसोलिनी से हुई। मुसोलिनी उनके साथ काफी इ़ज़्ज़त से पेश आया। पिछले वर्ष गोलमेज़ परिषद के बाद भारत लौटते हुए गाँधीजी भी रोम गये थे। उस समय भी मुसोलिनी ने उनकी मेहमाननवाज़ी कर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को अपना समर्थन ज़ाहिर किया था। पंद्रह दिनों के रोम-वास्तव्य में सुभाषबाबू मुसोलिनी से तीन बार मिले। ‘ज़रूरत आ पड़ने पर सशस्त्र क्रान्ति के लिए भी मैं तैयार हूँ’, यह सुभाषबाबू द्वारा कहे जाने पर मुसोलिनी ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिए उन्हें सभी प्रकार की सहायता प्रदान करने का वचन दिया।

भारत की तरह ही आज़ादी के ख़्वाब बुन रहे कई छोटे छोटे देशों के प्रतिनिधि भी इस अवसर पर उपस्थित थे। सुभाषबाबू के व्यक्तित्व से वे काफी प्रभावित हुए। सुभाषबाबू ने उन्हें भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का स़फर और सद्यःस्थिति इनके बारे में जानकारी देकर मार्गदर्शन किया।

पंद्रह दिनों के कामियाब इटाली दौरे के बाद हालाँकि सुभाषबाबू व्हिएन्ना लौटनेवाले थे, लेकिन उन्हें अचानक पुन: जर्मनी जाना पड़ा।

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