नेताजी- ७९

इलाज के लिए विदेशगमन करने से पहले कोलकाता जाकर अपने वृद्ध मातापिता से मिलने की सुभाषबाबू की दऱख्वास्त सरकार द्वारा नकार दी जाने के बाद, कम से कम मुझे अपने मेजदा से – शरदबाबू से तो मिलने दिया जाये, ऐसा तक़ाज़ा सुभाषबाबू ने खतों के जरिये सरकार के पास लगाया। आख़िर उनके प्रयास सफ़ल हुए और शरदबाबू से मिलने की अनुमति उन्हें मिली। उस समय शरदबाबू जबलपुर की जेल में थे। इसलिए सरकार ने सुभाषबाबू को भी जबलपुर की जेल में भेज दिया। और यदि अन्य कोई रिश्तेदार उन्हें मिलना चाहते हैं, तो वे भी जबलपुर की जेल में जाकर मिल सकते हैं, यह अनुमति भी सरकार ने सुभाषबाबू को दे दी।

सुभाषबाबू का मन

सुभाषबाबू शरदबाबू के साथ चार दिनों तक रहे। भविष्य में मिलना होगा या नहीं, इस आशंका से डरा हुआ सुभाषबाबू का मन शरदबाबू के उस चार दिनों के सहवास को मानो पीकर मन में संग्रहित कर रहा था। उन चार दिनों में सुभाषबाबू मानो अपना बचपन ही फ़िर से जी रहे थे। उन चार दिनों में उन्होंने दिनरात एक करके खूब गप्पें हाँके, पुरानी यादें ता़जा करके वे खूब रोये, खूब हँसे। उनकी अपनी औलाद ने भी इतना प्यार उन्हें नहीं दिया था, इस बात का इक़रार शरदबाबू ने किया।

उन चार दिनों में कोलकाता से भी उनके भाई, भाभियाँ, भतीजें आदि रिश्तेदारों की पलटन ही उनसे मिलने वहाँ दाखिल हुई। दासबाबू की पत्नी वासंतीदेवी भी अपने प्रिय सपूत से मिलने उनके साथ आयी थीं। इतने सारे लोगों को मिलने की अनुमति नहीं दी जायेगी, ऐसा जेलर द्वारा कहने पर उसे खूब खरी-खोटी सुनाकर वासंतीदेवी ने सबको सुभाषबाबू से मिलने की अनुमति प्राप्त की।

अपने प्रिय सुभाष की हालत देखकर वासंतीदेवी का तो कलेजा ही काँप उठा। कृश, सूखकर काँटा हुई काया, दबे हुए गाल ऐसी हालत हुए सुभाषबाबू को उनसे देखा नहीं जा रहा था। लेकिन फ़िर भी कलेजे पर पत्थर रखकर, ‘तुम्हें अपनी मातृभूमि को विदेशियों के चँगूल से आ़जाद कराने के लिए फ़िर से एक बार ताकतवर और सक्षम बनना ही होगा और इसीलिए इलाज के लिए विदेश जाना ही होगा। इस भारतमाँ की कोई भी सन्तान उससे जुदा नहीं होगी, ऐसे हालातों का निर्माण करने के लिए तुम्हें हमसे दूर जाना ही होगा’ इस तरह अपने कर्तव्य का एहसास उन्होंने सुभाषबाबू को दिला दिया। सुभाषबाबू के पिताजी ने अपनी याद के तौर पर एक सुन्दर-सी घड़ी उनके हाथों भेजी थी। वह बड़े प्यार से उन्होंने सुभाषबाबू को पहनायी।

ये चार दिन कभी ख़त्म ही न हों, ऐसा सुभाषबाबू को लग रहा था। लेकिन क्या समय किसी के लिए रुका है?

जुदाई का दिन आया। २३ फ़रवरी १९३३ को मुंबई से निकलनेवाली ‘एस.एस. गँगे’ इस बोट से सुभाषबाबू भारत का किनारा छोड़नेवाले थे। इसके लिए उन्हें दो दिन पहले जेल से स्ट्रेचर पर से ही पुलीस की गाड़ी में ले जाकर, मुंबई जानेवाली कोलकाता मेल में बिठाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर ले जाया गया। जब उन्हें ले जा रहे थे, तब शरदबाबू छोटे बच्चे की तरह फ़ूटफ़ूटकर रो रहे थे। अब सुभाष से वापस मुलाक़ात होगी भी या नहीं, इस आशंका से भयभीत होकर वे बार बार सुभाषबाबू को गले लगा रहे थे।

जाने से पहले सुभाषबाबू ने, उन्हें किसीसे भी मिलने नहीं दिया जायेगा, यह जानते हुए अपने हितैषियों के लिए एक निवेदन प्रकाशित करने के लिए अख़बारों को भेज दिया, जो कुछ इस तरह का था – ‘मुझे ऐसी हालत में मेरे वृद्ध मातापिता को भी जहाँ मिलने नहीं दिया गया, वहाँ अन्य किसी से मुलाक़ात करना तो असंभव है। मेरी बिगड़ी हुई सेहत के इलाज के लिए आर्थिक क्षमता न होते हुए भी मुझे विदेश जाना पड़ रहा है और मेरी इस हालत के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। मग़र फ़िर भी मेरे इलाज का खर्चा देने से सरकार ने इन्कार कर दिया है। मेरे बड़े भाई शरदबाबू भी जेल में ही रहने के कारण विदेश के उपचारों का खर्चा उठाने की हमारी क्षमता नहीं थी और देश में इलाज करवाने के लिए रिश्तेदारों के तैयार रहने के बावजूद भी सरकार ने इजा़जत नहीं दी। मेरी बिगड़ी हुई सेहत के बारे में पता चलते ही आप्तों तथा हितैषियों ने आस्थापूर्वक जो मेरी सहायता की, स़िर्फ़ उसी वजह से युरोप में रहने तथा वहाँ इलाज करवाने का खर्च उठाना मेरे लिए मुमक़िन हुआ है। यूँ तो मैंने कभी भी किसी से भी मु़फ़्त में कुछ नहीं लिया है, लेकिन इस बारे में मैं मजबूर हो गया। मैंने स्वयं को भारत देश के लिए समर्पित कर देने के कारण अब सभी भारतवासियों का ही मुझपर अधिकार है, ऐसा मैं मानता हूँ। इसीलिए मैं उन्हें भी अपने परिजन ही मानता हूँ। इसीलिए उन्होंने इतने प्यार से, इतनी आत्मीयता से दी हुई सहायता को मैं नकार नहीं सकता। अत एव अब सारे देश का मैं ऋणी होने के कारण मुझसे उसके लायक कार्य हो, यही इच्छा है!’

मन में विचारों की भीड़ जमा हुए सुभाषबाबू को लेकर गाड़ी बोरीबंदर पहुँची। वहाँ पर उन्हीं की राह देख रही पुलीस ने उनके डिब्बे को घेर लिया और मुंबई प्रान्त के होम सेक्रेटरी ने उन्हें अपने कब़्जे में ले लिया। दूसरे दिन की बोट होने के कारण उन्हें तब तक आर्थर रोड जेल में ले जाया गया।

इतना ‘डेंजरस’ व्यक्ति इस बोट में स़फ़र कर रहा होने के कारण ऊपर से लेकर नीचे तक की सारी प्रशासनयन्त्रणा को काम पर लगाया गया था। दिल्ली से इस बारे में सूचना मिलने के कारण होम सेक्रेटरी स्वयं नौसेना अधिकारियों के तथा बोट के अधिकारियों से संपर्क बनाये हुए थे। उन्हें लगातार सूचनाएँ देना, बोट के स़फ़र के मार्ग के बारे में दो-तीन ऑफ़िसों में पूछताछ कर ख़ातिरजमा करना, बोट के मार्ग में कहीं कोई आन्तर्राष्ट्रीय षड्यन्त्र रचा जा सकें ऐसे डेंजरस स्थान तो नहीं हैं, इस बात की ख़ातिरजमा करना, इन क्रियाकलापों में होम सेक्रेटरी का़फ़ी व्यस्त थे।

वैसे तो दूसरे दिन रात को बोट प्रस्थान करनेवाली थी, लेकिन सुरक्षा के कारण पर सुभाषबाबू को सुबह ही बन्दरगाह पर लाया गया। आख़िर तक पुलीस ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था। वहाँ पर इकट्ठा हुए उनके रिश्तेदारों, काँग्रेस के नेताओं तथा हितैषियों को भी उनसे मिलने नहीं दिया गया।

बोट ने अलार्म दे दी। स्ट्रेचर पर लेटे लेटे ही सबसे अलविदा कहते हुए उन्होंने बोट में प्रवेश किया। उसके बाद वहाँ से निकलते हुए पुलीस अ़फ़सर ने ‘आपको रिहा कर दिया जा रहा है’ यह औपचारिक रूखा सरकारी सन्देश उन्हें सुनाया। बोट धीरे धीरे किनारा छोड़कर मँझधार में आगे बढ़ी।

दूर जा रहे किनारे को देखकर सुभाषबाबू की आँखें नम हो गयीं। रिहाई?….और वह भी इस तरह मातृभूमि से बिछड़कर?….आँसुओं की धारा में सामने का दृश्य, मन के विचार सबकुछ ओझल हो गया।

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