नेताजी-३८

भारत का स्वतन्त्रतासंग्राम यह जगन्नाथ के रथ की तरह है और अपने आप को भारतमाता की संतान माननेवाले हर एक का हाथ इस रथ को अवश्य लगना ही चाहिए, ऐसा सुभाषबाबू का प्रामाणिक मत था। अत एवं समाज के सभी स्तर के लोग एकमन से स्वतन्त्रतासंग्राम में शामिल हों, इस सर्वसमावेशक राय के सुभाषबाबू ने, सत्याग्रह के नये मार्ग के साथ जुड़ने में दिक्कत महसूस कर रहे बंगाल के पुराने क्रान्तिकारियों को समझा-बूझाकर उन्हें इस नयी मुहिम में शामिल कर लिया और ‘अब भी हम देश के लिए कुछ कर सकते हैं’ यह आनन्द उन देशभक्त क्रान्तिकारियों को दिलाया। जहाल देशभक्ति की ताकत अब असहकार आन्दोलन में जुट जाने के कारण आन्दोलन की तीव्रता बढ़ने लगी।

Netaji- भारत का स्वतन्त्रतासंग्राम

इस कार्य को करने के पीछे दासबाबू और सुभाषबाबू के मन में एक और उद्देश्य भी था। गांधीजी द्वारा घोषित की गयी स्वराज्यप्राप्ति की एक वर्ष की मोहलत ख़त्म होने में अब भी दो-तीन महीनें बाक़ी थे। लेकिन फिलहाल  स्वराज्य मिलने के आसार कहीं पर भी ऩजर नहीं आ रहे थे और इसी वजह से असहकार आन्दोलन कुछ मुरझा सा जाने लगा। इस मुरझाहट को दूर करने के लिए नये जोशिले स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी। इन क्रान्तिकारियों के असहकार आन्दोलन में शामिल होने से आन्दोलन को एक नये ता़जे उत्साहपूर्ण ताकत तो मिली। लेकिन दासबाबू कुछ जोशपूर्ण होना चाहिए, यह चाहते थे, जिससे कि आम लोग भी ख़ौलकर इस आन्दोलन में बड़े जोर-शोर के साथ सम्मीलित हों।

….और अँग्रे़ज सरकार ने ही वह अवसर उन्हें प्रदान किया।

हुआ यूँ कि ब्रिटन के युवराज ‘प्रिन्स ऑफ  वेल्स’ साल के आख़िर में भारत के दौरे पर आनेवाले हैं, यह सरकार ने घोषित किया। ऊपरी तौर पर ‘विश्‍वयुद्ध में भारत ने इंग्लैंड़ की जो सहायता की थी, उसके लिए भारतीय जनता के प्रति आभारप्रदर्शन करने के लिए’ सम्राट के प्रतिनिधि के नाते युवराज भारत पधार रहे हैं, यह जाहिर हो चुका था; लेकिन दरअसल उनके आने की असली वजह जालियनवाला बाग हत्याकांड़ मामले में अँग्रे़जों के खिलाफ  खौल उठे जनमत को शान्त करने की कोशिश करना यही थी, ऐसा अन्दरूनी गुट की ख़बर थी। चाहे जो भी हो, लेकिन इंग्लैंड़ के सम्पूर्ण साम्राज्य में भारत यह कण्ठमणि ही था। भारत में व्हाईसरॉय अथवा तत्सम किसी पद पर नियुक्ति हो, इस इच्छा से बड़े-बड़े ‘लॉर्ड्स’ लाख कोशिशें करते थे। इंग्लैंड़ के प्रधानमन्त्री के मुक़ाबले कई गुना अधिक तऩख्वाह और इंग्लैंड़ के सम्राट जैसी शानोशौकत जहाँ मिल सकती थी, ऐसा सम्पूर्ण ब्रिटीश साम्राज्य में केवल एक भारत ही था। अत एव ऐसे भारत की ओर अँग्रे़ज यदि ‘सोने के अण्डें देनेवाली मुर्ग़ी’ इस ऩजरिये से न देखते, तो ही वह अजूबा माना जा सकता था! इसीलिए भारत में अधिक समय तक असन्तोष का माहौल बना रहना, यह अँग्रे़जों के लिए नुकसानदेह बात थी। इसी वजह से ख़ौल उठे  जनमत को शान्त करने के लिए भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करने के लिए अपने प्रतिनिधि के तौर पर सम्राट ने युवराज को भारत भेजा था।

इस ख़बर को सुनकर दासबाबू के चेहरे पर मुस्कुराहट आयी। सरकार को सबक सिखाने का यह एक अच्छा अवसर था।

१७ नवम्बर १९२१  को युवराज मुंबई के ‘गेटवे ऑफ  इंडिया’ इस भारत के महाद्वार से भारत की भूमि पर कदम रखनेवाले थे। इस ‘गेटवे ऑफ  इंडिया’ महाद्वार का निर्माण भी इसवी १९१०  में इंग्लैंड़ के सम्राट बने पंचम जॉर्ज जब १९११ में भारत के दौरे पर आये थे, तब उनके शाही स्वागत के लिए किया गया था। उस समय बोट द्वारा ही सफर करना पड़ता था और इसीलिए उसके बाद भी जब उन्हीं की तरह बड़े बड़े जागतिक नेता भारत में आये, तो उनका स्वागत इसी महाद्वार पर करने की परिपाठी बन चुकी थी।

१७ नवम्बर १९२१  को गाँधीजी ने कड़ी हड़ताल करने का आवाहन देशवासियों से किया। इस हड़ताल को कल्पना की अपेक्षा काफी  अधिक क़ामयाबी मिली। राजकुमार का मुंबई में स्वागत किया मुंबई की सुनसान सड़कों ने। उस दिन मुंबई के रास्तों पर मानो परिंदा भी अपना पर नहीं मार रहा था। सारी दुकानें बन्द थीं। मुंबई की हड़ताल में निदर्शन करनेवाले स्वयंसेवक और पुलीस इनके बीच हुई मुठभेड़ से इस आन्दोलन ने हिंसक मोड़ ले लिया और यह बात गाँधीजी के उसूलों के खिलाफ  थी। उन्होंने इस बात के प्रायश्चित्त के रूप में १९ तारीख़ से अनिश्चितकालीन अनशन शुरू कर दिया। पाँच दिनों के बाद जब हालात सामान्य हुए, तब जाकर उन्होंने अपना अनशन तोड़ दिया।

कोलकाता में इस हड़ताल को क़ामयाब बनाने के लिए सुभाषबाबू और उनके स्वयंसेवक दल के सदस्य दिनरात मेहनत कर रहे थे, प्रचारविभाग की यंत्रणा के द्वारा जनजागृति कर रहे थे। उसके अपेक्षित परिणाम दिखायी दिये और १७ नवम्बर को कोलकाता में भी कड़ी हड़ताल की गयी। उस दिन सम्पूर्ण कोलकाता के सारे व्यवहार बन्द थे और सड़कें खाली। हमेशा भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम और उसके नेताओं की आलोचना करनेवाले अँग्लो-इंडियन समाचारपत्रों को भी मजबूर होकर उस हड़ताल का उल्लेख करना पड़ा। लेकिन इस आन्दोलन के बारे में लिखते हुए हमेशा की तरह उन्होंने आग में तेल डालने का काम ही किया। ‘स्टेट्समन’ और ‘इंग्लिशमन’ इन समाचारपत्रों ने ‘सरकार ने शहर को काँग्रेस के स्वयंसेवकों के हवाले ही कर दिया है ऐसा लग रहा था’  और ‘सरकार कोलकाता पर रहनेवाला अपना नियन्त्रण खो चुकी हैं’ ये टिप्पणियाँ की थीं।

इस ख़बर से आगबबूली हुई सरकार ने स्वयंसेवक दल को ग़ैरक़ानूनी क़रार देनेवाला अध्यादेश जारी कर दिया। यहाँ पर इस आन्दोलन को स्वयंसेवक दल के माध्यम से कार्यान्वित करने के पीछे दासबाबू की दूरंदेशी दिखायी दी। यदि ठेंठ काँग्रेस ने इस आन्दोलन को संचालित किया होता, तो सरकार ठेंठ काँग्रेस पर ही पाबन्दी लगा चुकी होती और ङ्गिर उसके बाद कुछ भी करना संभव नहीं होता।
इस अध्यादेश से ख़ौल उठे सुभाषबाबू ने इसका भंग करने स्वयंसेवक भेजने की अनुमति दासबाबू से माँगी।

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