नेताजी-२६

netaji

आय.सी.एस. की सनद को अस्वीकार करने का सुभाष का फैसला सुनते ही भौंचक्का हो चुका दिलीप उसे समझाने लगा कि ऐसा पागलपन मत करो। आय.सी.एस. के अब तक के इतिहास में जो कभी किसी ने नहीं किया है, वह करने की मूर्खता भला तुम क्यों कर रहे हो? पहले सनद का स्वीकार कर भारत तो जाओ। फिर  पिताजी और मेजदा – शरदबाबू के साथ विचारविमर्श कर उसके बाद ही अपना फैसला लो।

सुभाष के इस निग्रही रूप को देखकर चौंक गये सतीशदा ने भी उसके मन को रिझाते हुए उसे समझाने की काफी कोशिश करते हुए कहा कि यदि तुम्हें देशसेवा ही करनी है, तो वह तुम सरकारी नौकरी में रहकर भी कर सकते हो। मुख्य बात यह है कि तुम सिर्फ  अपने ही बारे में सोच रहे हो। तुम्हें आय.सी.एस. बनाने की हमारे माता-पिता उम्मीदों पर तुम अपने इस निर्णय से पानी फेर रहे हो, तुम्हारे इस  फैसले से उन्हें कितनी ठेंस पहुँचेगी, क्या इसके बारे में तुमने सोचा है? पिताजी के बुढ़ापे में क्या तुम उन्हें इन हालातों का सामना करने पर मजबूर करोगे?

सुभाष को फ़ौरन अपनी माँ की याद आयी। आज तक मेरे आचरण से मैंने उसे हमेशा दुख ही पहुँचाया है। ‘गुरु की खोज’ प्रकरण में सुभाष ऐसे ही बिना बताये एक महीने तक ग़ायब हो गया था, उस समय माँ की हुई हालत को याद कर उसका दिल दहल गया। अब यह सुनने के बाद माँ की क्या स्थिति होगी? पिताजी पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ेगा। शायद वे ग़ुस्से से अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठेंगे, कहीं अपने जीवन को समाप्त करने का विचार तो उनके मन में नहीं आयेगा?

इस सोने की जंजीर को तोड़ना तो शायद आसान है, लेकिन इस रेशम की डोर का क्या करूँ?

उसे तोड़ना ही पड़ेगा। और कोई चारा भी तो नहीं है। जिसे देशसेवा करनी है, उसके लिए इन बन्धनों को तोड़ना अनिवार्य ही है। शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप इन्होंने स्वराज्य की स्थापना करते हुए थोड़े ही अपने परिवार का मोह रखा होगा? लोकमान्य टिळकजी ने देशकार्य करते हुए जीवन को दाँव पर लगाते हुए अपने परिवार की हो रही खींचातानी को देखकर दिल पर पत्थर ही रखा होगा ना? देशबन्धु चित्तरंजन दासजी ने अच्छीख़ासी चल रही वक़िली को महात्माजी के असहकार आन्दोलन के एक इशारे के साथ फ़ौरन त्याग दिया। फिर  भला मेरे लिए यह मुमक़िन क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। वह स्वयं को समझाने लगा।

लेकिन उसके इन विचारों का समर्थन करनेवाला कोई नहीं था। इस मामले में वह बिल्कुल अकेला पड़ गया था। अपने भावी जीवन में उसे जो एकाकी जंग लड़ने पड़े, उसकी आदत ही मानो नियति ने उसे बचपन से ही लगायी थी।

अब मेरे लाड़ले मेजदा ही – शरदबाबू ही हैं, जो मेरी बात को हमदर्दी से सुन सकते हैं और मार्गदर्शन कर सकते हैं, इस विचार के साथ उसने शरदबाबू को ख़त लिखना शुरू किया।

उसने लिखा कि ‘आय.सी.एस. पास होने के बाद यहाँ पर मेरा सत्कार करने का एक ऐसा दौर चला है कि उससे मेरा दम घुट रहा है। आय.सी.एस. हो जाते ही मानो इन्सान के हाथ स्वर्ग को ही लग जाते हैं ऐसा लोग क्यों मानते हैं, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा है। मान लिया जाये कि आय.सी.एस. हुए मनुष्य के सामने लगभग सभी भौतिक सुख हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं। किसी महाराजा की तरह उसकी ख़ातिरदारी की जाती है। हालाँकि यह भी सच है कि इस नौकरी में मिलनेवाली मोटी तऩख्वाह बुढ़ापे के निवृत्त जीवन की चिन्ता भी मिटा देती है। मेरा आय.सी.एस. का नतीजा देखते हुए जाहिर है कि भारत आते ही मुझे ठेंठ कमिशनर का पद मिलना मुश्किल नहीं है और यदि वरिष्ठों की चाटुकारिता करने में मैं नहीं चूका, तो जल्द ही मुझे किसी प्रान्तिक सरकार के मुख्य सचिव के रूप में प्रमोशन भी मिल सकती है। लेकिन उसके लिए मेरी आत्मा मुझे बेचनी पड़ेगी और मुझे वह मंज़ूर नहीं है। क्योंकि ऐसी नौकरी करना यह जीवन की इतिकर्तव्यता है, ऐसा मुझे नहीं लगता।

शायद आप कहेंगे कि फिलहाल आय.सी.एस. की सनद का स्वीकार कर नौकरी की जाये और यदि पाँच-दस वर्षों में यह करने में काफी दिक्कत महसूस हो रही है, तो उससे इस्तीफा  दिया जाये। लेकिन यह विकल्प भी मेरे लिए अस्वीकारणीय है। देशसेवा का जो ध्येय मैंने हृदय में धारण किया है, उसकी पूर्ति इन सोने की जंजीरों में जकड़ने के बाद क्या मुमक़िन हो सकती है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि एक बार उस ऐशोआराम की जिंदगी की लत लग जाये, तो फिर  मनुष्य की प्रवाह के खिलाफ कुछ भी करने की इच्छा ही मर जाती है; और मान लीजिए कि अब नौकरी का स्वीकार करके उसे बीच में ही छोड़ दिया जाये, तो तब तक मेरे युवा-जीवन के पाँच-दस अनमोल वर्ष मैं व्यर्थ ही गँवा चुका रहूँगा और उस उम्र में कुछ नया कर दिखाने की क्षमता भी खो चुका रहूँगा। सबसे प्रमुख बात है कि अपने देश के लिए नाक़ाम साबित हो चुकी इस विदेशी संवेदनाहीन नौकरशाही का एक हिस्सा बनना, यह मुझे तत्त्वतः ही मंज़ूर नहीं है और मेरे मन की इस धारणा पर ग़ौर करते हुए मैं इस नौकरी के लिए लायक़ व्यक्ति नहीं हूँ ऐसा मुझे लग रहा है।

ऊपरि तौर पर पागलपन प्रतीत होनेवाला मेरा यह फैसला सुनने के बाद हमारे परिवार में तथा रिश्तेदारों में काफी होहल्ला मचेगा, इसका मुझे पूरा यक़ीन है। लेकिन मेरी अन्तरात्मा की आवा़ज के सामने यह विरोधी राय मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती। लेकिन आपकी राय मेरे लिए जरूर मायने रखती है, क्योंकि इसके पहले भी जब जब मेरे जीवन में दुख और परीक्षा की घड़ी आयी थी, तब तब आपने ही मेरा हौसला बढ़ाया था, मुझे सहारा दिया था। पिताजी को मैंने अब तक इस बात की इत्तला नहीं की है। उसके पहले मुझे आपकी राय जानने में दिलचस्पी है। हो सके तो पिताजी से भी आप ही कह देना।’

शरदबाबू का जवाबी ख़त तो आया, लेकिन उन्होंने सुभाष के  फैसले को समर्थन न देते हुए फिलहाल आय.सी.एस. की नौकरी का स्वीकार कर कुछ समय बाद मनोनुकूल फैसला लिया जा सकता है, ऐसा लिखा था। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी देशसेवा की जा सकती है, इस मुद्दे के समर्थन में शरदबाबू ने बंगाल के कई जनाभिमुख निर्णयों को अंजाम देने में जिनकी अहम भूमिका रही थी, उन बंगाल प्रशासन के देशभक्त सनदी अधिकारी रमेशचन्द्रजी दत्त इनका उदाहरण दिया था। उनकी तरह ही सुभाष सरकारी नौकरी में रहते हुए भी देशसेवा कर सकता है, यह भी उन्होंने कहा था।

मेरे निर्णय का समर्थन करेंगे, ऐसी उम्मीद लगाकर जिनके सहारे सुभाष बैठा था, वे शरदबाबू भी उससे सहमत नहीं हैं, यह समझते ही सुभाष मन ही मन में दुखी हो गया।

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