नेताजी-३६

पूरे दो साल बाद घर लौटे सुभाष से घर के सभी सदस्य जी भरके बातें करना चाहते थे। लेकिन सुभाषबाबू का मन कहीं और था। अब वे उत्सुक थे बंगाल के उस सिंह से – दासबाबू से मिलने के लिए। उनके कदम अपने आप ही मुसा रोड़ स्थित दासबाबू के घर की दिशा में बढ़े। इतने लंबे अरसे बाद घर लौटे सुभाष का, घर के सदस्यों के साथ रहने के बजाय तुरन्त काम की शुरुआत करना घरवालों को रास तो नहीं आया, लेकिन कम से कम अब वह घर में हमारी आँखों के सामने तो रहेगा, इस विचार द्वारा वे अपने मन को तसल्ली दे रहे थे।

netaji- सुभाषबाबूपिछले सालभर सुभाष के निर्णय का विरोध करने की तीव्रता के कुछ कम हो जाने के बाद पिताजी ने भी शान्तिपूर्वक विचार कर सुभाष के फैसले  के साथ समझौता कर लिया था। सुभाष जब दासबाबू के घर से वापस लौटा, तब देर रात हो चुकी थी। मग़र पिताजी जाग रहे थे। घर लौटे सुभाष को उन्होंने प्यार से गले लगाया और उससे कहा कि ‘पहले रो़जीरोटी का इन्त़जाम करके, उसके बाद ही शेष समय में देशसेवा करना, ऐसा जो मेरा आग्रह था, वह एक वत्सल पिता की भूमिका के कारण ही था। लेकिन अब सारा समय देशसेवा के लिए अर्पण करने के तुम्हारे फैसले  से तुम्हारी माँ और मैं तुम्हारे जनक के रूप में गर्व महसूस कर रहे हैं।’ सुभाष के मन की बचीकुची चुभन भी अब ख़त्म हो चुकी थी और वह अपने पिता की गोद में घुसकर रोने लगा। आज वह पूर्ण रूप से सन्तोष महसूस कर रहा था।

फिर  पिताजी ने उसे दासबाबू के यहाँ क्या हुआ, यह पूछा। सुभाष ने भी अपने इस चहीते विषय के छिड़े जाने पर खुलकर सारी हक़ीक़त बयान कर दी।

सुभाषबाबू जब कोलकाता पधारे थे, तब दासबाबू दौरे पर थे और सुभाषबाबू जब उनके घर पहुँचे, तभी वे कोलकाता लौटे थे, लेकिन उस समय तक घर नहीं पहुँचे थे। देशबन्धु के घर में सुभाषबाबू का स्वागत किसने किया होगा? तो उनके प्रिय मित्र हेमन्तदा ने! हेमन्तदा ने अपने आपको देशकार्य में समर्पित कर दिया था और वे देशबन्धु के विश्‍वसनीय साथी बन चुके थे। सुभाष को देखकर तो हेमन्तदा फ़ूले नहीं समाये। सुभाष के मातृभूमि में वापस लौटने के बारे में उसके सभी मित्रों – नवविवेकानन्द समूह के सदस्यों की सारी आशंकाओं को सुभाष ने झूठला दिया था और अँग्रे़जों का घमण्ड़ उतारकर, आय.सी.एस. प्राप्त करने के बाद भी ‘तुम जिसे सर्वोच्च मानते हो, वह आय.सी.एस. मेरे लिए फूटी  कौड़ी जितनी भी मायने नहीं रखती और मुझे मेरी माँ की – भारतमाता की कुटिया ही प्यारी है’ यह सुस्पष्ट रूप से दर्शाकर उस ‘स्वर्गसुख’ पर लात मारकर अपनी ग़रीब माँ के आँचल की छाँव में लौट आया था। हेमन्तदा अपने दोस्त की इस बहादुरी पर फक्र महसूस कर रहे थे।

हेमन्त ने सुभाष के साथ जी भरके बातें कीं। बंगाल का स्वतन्त्रतासंग्राम, क्रान्तिकारी आन्दोलन,  युगांतर, अनुशीलन समिती, असहकार आन्दोलन इन सब बातों का ‘आँखों देखा हाल’ उसने सुभाष को बताया। दासबाबू और उनकी पत्नी वासंतीदेवी के बारे में भी उसने सुभाष को बताया। असम के चाय के बाग़ानों के जमीनदार के घर में जिनका मायका था और जिनका बचपन सोने की थाली में सोने की चम्मच से खाना खाते हुए बीता था, उन वासंतीदेवी ने शादी के बाद पति के कन्धे से कन्धा मिलाकर देशकार्य में हिस्सा लिया था। एक बार जब पति ने ‘देश ही मेरे ईश्वर हैं और देशसेवा ही मेरा धर्म है’ यह ठान लिया, तो उसके बाद पति की आय भले ही कम क्यों न हो जाये, देशकार्य के लिए चाहें कितनी भी ठोंकरें खानी क्यों न पड़ जाये, मग़र तब भी उन्होंने पति से इस बारे में कभी भी कोई गिला नहीं किया; बल्कि पति की देशसेवा को सती का व्रत मानकर उसे अपनाया। अब सुभाषबाबू भी उस महान सती के – वासंतीदेवी के दर्शन करने उत्सुक थे।

उतने में हेमन्तदा ने सुभाषबाबू को वासंतीदेवी से परिचित कराया। इंग्लैंड़ से सुभाषबाबू का देशबन्धु के साथ जो पत्रव्यवहार हुआ था, उसके बारे में उनकी वासंतीदेवी के साथ बातचीत हो ही चुकी थी। अत एव उन तेजस्वी सुभाषबाबू को देखने की वासंतीदेवी के मन में भी काफी  उत्सुकता थी। उनसे मिलते ही सुभाष ने उनके पैर छुए। पहली ही मुलाक़ात में वासंतीदेवी ने सुभाष को अपना बेटा ही मान लिया। वैसे तो उनका बेटा चिररंजन सुभाष की ही उम्र का था! सुभाषबाबू ने भी उन्हें अपनी ‘माँ’ ही मान लिया था; इतना कि आगे चलकर एक बार सुभाष की जननी – प्रभावतीदेवी ने ही उनसे कहा था कि ‘हालाँकि सुभाष को जन्म देनेवाली उसकी माँ मैं हूँ, लेकिन उसकी वास्तविक माता आप ही हैं।’

उसी समय दासबाबू के आने की सूचना मिली। सुभाष बेसबरी से इसी पल का इन्त़जार कर रहा था, वह उठकर खड़ा हो गया। ‘जिस मुक़ाम तक पहुँचने के लिए इतने पापड़ बेले’, उस मुक़ाम को वह अपने क़रीब पा रहा था। उसकी ऩजर प्रवेशद्वार पर लगी हुई थी।
दासबाबू का आगमन हुआ।

वासंतीदेवी ने अपने पति का स्वागत करते हुए ‘सुभाषचन्द्र बोस’ के आने की ख़बर उन्हें दी। देशबन्धु भी उस पल भावविभोर हो गये और उतने में ‘पहचान’ की मुस्कराहट उनके चेहरे पर खिली। उनके दर्शन से प्रभावित होकर सुभाष ने आगे बढ़कर चरणस्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने सुभाषबाबू को अपने गले से लगाया। जिनकी नस नस में देशप्रेम का लहू बह रहा था और जिनके व्यक्तित्व का अँदा़ज कुछ अनोखा-सा ही था, ऐसे तेजःपुंज सुभाषबाबू को वे प्यार से निहार रहे थे और सारे बंगाल के स्वतन्त्रतासंग्राम के जो केन्द्रबिन्दु थे, उन दासबाबू को सुभाषबाबू अपने ऩजरों द्वारा अपने दिल में उतार रहे थे। वैसे तो पाँच वर्ष पहले कॉलेज में से निकाल बाहर किये जाने के मामले में क़ानूनी मशवरा लेने के लिए सुभाषबाबू उनसे मिले जरूर थे, लेकिन उस समय के दासबाबू और आज के दासबाबू इनमें समय के साथ साथ काफी  बदलाव आ चुका था। देशकार्य के लिए निरन्तर भागदौड़ करने के कारण उनके चेहरे पर थकान साफ़  साफ़  दिखायी दे रही थी।

उम्र से चाहे बुज़ुर्ग क्यों न हों, लेकिन निरन्तर समय के साथ साथ चलते रहने के कारण युवाओं के साथ उनकी जल्द ही मित्रता हो जाती थी। उनके दो ल़फ़्ज भी युवाओं में नयी चेतना भर देते थे। इसलिए युवाओं को भी वे काफी  क़रीबी लगते थे। इतना ही नहीं, वे युवाओं के लिए मार्गदर्शक आधार भी थे। सुभाषने भी मन ही मन में उन्हें अपना ‘गुरु’ मान लिया।

‘गुरु की खोज’ अब ख़त्म हो चुकी थी।

विवेकानंद, अरविंदबाबू, मॅझिनी-गॅरिबॉल्डी, गुरुदेव टागोर, गांधीजी इस तरह चला गुरु की खोज का यह सफर उन सभी से प्राप्त हुए ज्ञानकणों द्वारा समृद्ध होते होते देशबन्धु के चरणों में आकर परिपूर्ण हो चुका था।

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