नेताजी – ४६

 

गाँधीजी के जेल में रहते हुए भी बहुमत में रहनेवाले उनके अनुयायियों के बलबूते पर, उस समय के काँग्रेस के अध्यक्ष रहनेवाले दासबाबू का असेंब्ली-प्रवेश का प्रस्ताव परास्त हुआ था।

अत एव अब अध्यक्षपद पर बने रहना दासबाबू को उचित नहीं लग रहा था और इसीलिए उन्होंने अध्यक्षपद से इस्तीफ़ा दे दिया और १ जनवरी १९२३ को ‘स्वराज्य पक्ष’ की स्थापना की। पं. मोतीलाल नेहरू और लाला लजपतराय भी उनकी पार्टी में शामिल हुए। काँग्रेस पक्ष के अन्तर्गत रहनेवाले इस नये पक्ष का प्राथमिक उद्देश्य असेंब्ली में प्रवेश करना यही था।

SubhasChandraBose

अगले वर्ष तक काँग्रेस को हमारी भूमिका का स्वीकार करने पर मजबूर करना ही है, इस जिद के साथ दासबाबू काम में जुट गये और उनके साथ स्वाभाविक रूप में सुभाषबाबू भी। स्वराज्य पक्ष की भूमिका लोगों को समझाने के लिए दासबाबू ने देशभर दौरे करना शुरू किया। स्वराज्य पक्ष की भूमिका के प्रचार के लिए दासबाबू ने ‘बांगलार कथा’ नाम का एक नया समाचारपत्र भी शुरू किया। उसके संपादक के रूप में सुभाषबाबू को नियुक्त किया गया। अध्यापन के साथ साथ लेखन यह भी दूसरा चहीता कार्यक्षेत्र है, यह उन्होंने इंग्लैंड़ से दासबाबू को लिखे हुए खत में प्रतिपादित किया ही था। इस दूसरे चहीते कार्यक्षेत्र में काम करने का मौक़ा मिल रहा है, यह सोचकर सुभाषबाबू भी खुश हुए।

लेकिन प्रादेशिक भाषा के समाचारपत्र की मर्यादा को जानकर दासबाबू अँग्रे़जी भाषा में भी समाचारपत्र शुरू करने के विषय में सोच रहे थे। उस समय प्रकाशित होनेवाले अधिकतर अँग्लो-इंडियन समाचारपत्र सरकारपरस्त ही थे और मौक़ा मिलते ही भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम और उसके नेताओं पर किसी न किसी मार्ग से कीचड़ उछालते थे। उन्हें क़रारा जवाब देने के लिए एक अँग्रे़जी समाचारपत्र को स्वयं चलाना दाहबाबू को जरूरी महसूस होने लगा। इस वजह से दासबाबू ने ‘फॉरवर्ड’ इस अँग्रेजी समाचारपत्र की शुरुआत की। उसके सम्पूर्ण व्यवस्थापन के कार्य को उन्होंने सुभाषबाबू को सौंपा था।

दूसरी तरफ माऊंटबॅटन द्वारा चौकन्ना किया गया टेगार्ट भी अपने काम में जुट गया था। उसने फ़ौरन सुभाषबाबू की गतिविधियों पर ऩजर रखने के लिए दो जासूसों को दिनरात नियुक्त किया था। देर रात सुभाषबाबू के घर पहुँचने और उनकी रूम की लाइटें बन्द होने के बाद ही उन जासूसों को वहाँ से निकलने की आज्ञा थी।

इसी दौरान एक अनिष्ट घटना घटित हुई। टेगार्ट यह क्रान्तिकारियों के साथ बदसलूकी करता था और इसीलिए उसका वध करने का अवसर कई क्रान्तिकारी ढूँढ़ ही रहे थे। गोपीनाथजी सहा ने यह बीढ़ा उठाया। असहकार आन्दोलन के बीच में ही स्थगित कर देने के कारण वे पहले ही उखड़े हुए से थे। उनका काँग्रेस की ऑफिस में आना-जाना भी काफी कम हो गया था और क्रान्तिकारियो के साथ उनका उठना-बैठना बढ़ गया था। १० जनवरी १९२४ को वे टेगार्ट के आने-जाने के रास्ते में पार्क स्ट्रीट और चौरंगी नाका इस स्थान पर घात में बैठे थे। एक गाड़ी आगे आयी और उसमें बैठे साधारणतः टेगार्ट जैसे ही दिखायी देनेवाले मनुष्य को टेगार्ट समझकर गोपीनाथजी ने उसपर गोलियाँ बरसायीं। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह थी कि वह टेगार्ट नहीं, बल्कि डे नाम का व्यापारी था। गोपीनाथजी को फ़ौरन गिऱफ़्तार कर टेगार्ट के सामने लाया गया। ‘मेरा खून करने का इसका इरादा था’ यह समझते ही भीतर से पूरी तरह हिल चुका टेगार्ट इस योजना की पूरी जानकारी हासिल करने के लिए गोपीनाथजी के दोनों हाथ जंजीरों में जकड़कर उनकी चमड़ी निकलकर खून बहने तक उनके खुले बदन पर उन्हें मारता रहा। मग़र तब भी उनके मुँह से एक आह तक नहीं निकली। उल्टा ‘तुम्हारी क़िस्मत अच्छी थी कि तुम बच गये। लेकिन इसके बाद का एक एक दिन यह तुम्हें मिला हुआ बोनस मान लो’ ऐसा वे टेगार्ट से निर्भयतापूर्वक बार बार कह रहे थे। उनकी ते़ज-तीखी ऩजर से ऩजर मिलाते हुए टेगार्ट के पसीने छूट रहे थे। गोपीनाथजी को फाँसी दी गयी। लेकिन उन्हें फाँसी देते समय और बाद में शव के अन्तिम संस्कार-दहनप्रसंग में सुभाषबाबू और स्वराज्य पक्ष के कार्यकर्ताओं को उपस्थित रहने की अनुमति नहीं दी गयी। उनके भाई द्वारा कारागृह के बाहर लाये गये उनके कपड़ों को हाथ में लेकर पुनः पुनः सहलाते हुए सुभाषबाबू फूट-फूटकर रो रहे थे। गोपीनाथजी के, सुव्यवस्थित नियोजन न करते हुए किये हुए दुःसाहस के कारण उन्हें एक तरफ शोक भी हो रहा था; वहीं, दूसरी तरफ इस जवान उम्र में उनके आकस्मिक चले जाने के कारण वे सुन्न भी हो गये थे।
इसी विमनस्क अवस्था में कुछ दिन बीत गये।

उसके बाद जल्द ही असेंब्ली के चुनाव घोषित किये गये। दासबाबू के ‘स्वराज्य पक्ष’ का प्रचार तो पूरे जोरों पर था। परिणामस्वरूप स्वराज्य पक्ष को भरपूर सफलता मिली। स्वराज्य पक्ष के प्रत्याशियों में से अधिकांश सदस्य असेंब्ली में चुनकर गये थे। केन्द्रीय असेंब्ली में स्वराज्य पक्ष के नेता के रूप में पं. मोतीलाल नेहरू को नियुक्त किया गया; वहीं, बंगाल असेंब्ली में उस स्थान को दासबाबू ने भूषित किया। सुभाषबाबू ये चुनाव नहीं लड़ सके, क्योंकि मतदाताओं की सूचि पुरानी ही रहने के कारण उसमें सुभाषबाबू का नाम ही नहीं था। लेकिन अगली म्युनिसिपालिटी के चुनाव तक सुभाषबाबू के नाम का समावेश होकर चुनाव लड़ने का उनका मार्ग आसान बन गया।

इस चुनावी सफलता के कारण म्युनिसिपालिटी का चुनाव लड़ने का भी स्वराज्य पक्ष ने निश्चित किया था, क्योंकि आख़िर देश और राज्य स्तर पर जिन जनता-अभिमुख नीतियों को तय किया जाता है, उसका फायदा आम आदमी तक पहुँचता है, वह म्युनिसिपालिटी के माध्यम से ही। इसीलिए शासनव्यवस्था की इस महत्त्वपूर्ण कड़ी पर अपना नियन्त्रण रहना चाहिए, यह जानकर दासबाबू के स्वराज्य पक्ष ने वे चुनाव भी लड़ने का फैसला किया। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था, कोलकाता म्युनिसिपालिटी का चुनाव, जो सबसे प्रतिष्ठा का विषय भी था, क्योंकि कोलकाता शहर यह भारत के अँग्रे़जों के लिए ख़ास और अभिमान का स्थान था। इसीलिए वहाँ पर ऊपर से लेकर नीचे तक सभी पदों पर अँग्रे़जों को ही नियुक्त किया गया था। सम्पूर्ण अँग्रे़जी साम्राज्य में भी लंदन म्युनिसिपालिटी के बाद कोलकाता म्युनिसिपालिटी का ही नंबर था और वह देश की सबसे बड़ी म्युनिसिपालिटी थी। अत एव यह चुनाव स्वराज्य पक्ष ने अपना सारा बल लगाकर लड़ा।

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