नेताजी- ५९

सन १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहकार आन्दोलन को अचानक से स्थगित कर देने के बाद, आगे के पाँच-छः सालों तक काँग्रेस के पास कोई भी ठोस कार्यक्रम नहीं था। लोग शिथिल हो गये थे। ऐसे समय सायमन कमिशन का भारत आना, यह सुभाषबाबू को स्वर्णिम अवसर जैसा प्रतीत हुआ। भारत में पहले से ही सायमन कमिशन के बारे में जनमत खौल उठा था। अत एव इस सायमन कमिशन पर बहिष्कार डालने और सर्वसंमत प्रस्ताव को अँग्रे़ज सरकार के समक्ष रखने का निर्णय एकमत से १९२७ के मद्रास काँग्रेस अधिवेशन में लिया गया था।

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बहुचर्चित सायमन कमिशन अन्ततः ३ फरवरी १९२८ को भारत में दाखिल हुआ। उसका स्वागत काले झंडे दिखाकर और उसके निषेध की घोषणाओं से किया गया। कड़ी हड़ताल की गयी। निदर्शकों को छोड़कर रास्ते पर कोई भी दिखायी नहीं दिया। ऐसा कुछ होगा, इस बात का सरकार को अँदेशा था। फिर सरकार ने भी कुछ जातिधर्मों के लोगों को इकट्ठा कर कई जगहों पर इस कमिशन के स्वागत का दिखावा किया। लेकिन इस कमिशन के ख़िला़फ़ जनमत इतना का़फ़ी कुछ प्रक्षुब्ध था कि उनके द्वारा दी गयीं निषेध की घोषणाओं में यह स्वागत का दिखावा एकदम फीका पड़ गया। यह कमिशन जहाँ जहाँ गया, वहाँ वहाँ उसका स्वागत बहिष्कार और हड़ताल से किया गया।

इसी दौरान कोलकाता के महापौरपद के चुनाव नजदीक आ गये। दासबाबू की मृत्यु के पश्चात् गाँधीजी द्वारा महापौरपद पर चुने गये सेनगुप्ता को ही फिर से महापौर बनने की इच्छा थी। लेकिन बंगाल प्रांतिक काँग्रेस सदस्यों ने सुभाषबाबू के नाम को पसंदगी दे दी। सेनगुप्ता ने भी सुभाषबाबू के नाम को पसन्दगी दर्शा रहे हैं, ऐसा जताकर अपना नाम वापस ले लिया। सुभाषबाबू के खिला़फ लिबरल पार्टी के बी. के. बासू चुनाव लड़ रहे थे। म्युनिसिपालिटी में बहुमत होने के कारण सुभाषबाबू की जीत तो निश्चित ही थी….लेकिन इसके बावजूद भी वे हार गये। व्यक्तिगत ईर्ष्यालुता ने अपना काम अचूकता से किया था।

इस प्रकार की क्षुद्र व्यक्तिगत इच्छाओं और ईर्ष्या से ऊबकर सुभाषबाबू ने अब देश पर ध्यान केन्द्रित करने का निश्चय किया। वैसे भी, सायमन कमिशन बहिष्कार प्रकरण में का़फ़ी मात्रा में जनक्षोभ जागृत हो चुका था। इसी जनक्षोभ का इस्तेमाल देशभर की युवाशक्ति में नवचेतना लाने के लिए करने का सुभाषबाबू ने निश्चय किया। क्योंकि मंडाले से लौटने के बाद सुभाषबाबू द्वारा किये गये निरीक्षण में जो स्थिति उन्हें तत्कालीन बंगाल प्रांतिक काँग्रेस में दिखायी दी थी, ठीक वैसी ही स्थिति अखिल भारतीय स्तर पर भी थी – मौक़ापरस्तों का ताँता लगा हुआ था, चेतनाहीन एवं सुस्त माहौल था। इस माहौल से सुभाषबाबू ऊब चुके थे। इस कारण इन लोगों को सुधारने में वक़्त बरबाद करने के बजाय देश की युवाशक्ति में नवचेतना जागृत करने का उन्होंने निश्चय किया। वैसे भी, काँग्रेस के अखिल भारतीय जनरल सेक्रेटरी बन जाने के बाद उन्हें कई स्थानों की प्रांतिक समितियों से देश के विभिन्न प्रदेशों में भाषणों के दौरे करने के निमन्त्रण मिल ही रहे थे। युवाशक्ति को जागृत करने की दृष्टि से इस अवसर का उपयोग करने का उन्होंने निश्चित किया।

सुभाषबाबू ने इन देशव्यापी दौरों की शुरुआत ३ मई १९२८ को पुणे से की। अपने दौरे की शुरुआत पुणे से हो, इस बात पर सुभाषबाबू निश्चित ही खुश थे क्योंकि मंडाले में जिनकी महानता उन्हें पूरी तरह जँची थी, उन लोकमान्य टिळकजी की पुणे यह कर्मभूमि थी। यहाँ पर किये हुए भाषण में भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की अपनी माँग का उन्होंने पुनःउच्चारण किया। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये, तो इंग्लैंड़ और भारत में कोई भी समानता नहीं है, दोनों के बीच वर्णभिन्नता भी है। फिर भारत भला ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनकर क्यों रहे और अँग्रे़जों के उपनिवेश (कॉलोनी) के रूप में भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वतन्त्रता का स्वीकार ही क्यों करे, यह सवाल उन्होंने उठाया। अँग्रे़जों की हमें अभी भी जरूरत है, इस प्रकार का प्रचार करनेवालों की भी उन्होंने अपने भाषण में खूब ख़बर ली। अँग्रे़जों के चले जाने से हमारा कुछ भी नुकसान नहीं होनेवाला, बल्कि उनके चले जाने के बाद ही उनके द्वारा डेढ़-सौ सालों से किये जा रहे हमारे शोषण का अन्त होगा और हम स्वयंपूर्ण बन जायेंगे अन्यथा नहीं, इस बात का एहसास उन्होंने श्रोताओं को कराया। लेकिन हम स्वतन्त्रता तब ही पा सकते हैं, जब इस स्वतन्त्रता की आस देश के लोगों के मन में होगी और उसके लिए किसी भी हद तक जाकर त्याग करने के लिए लोग तैयार होंगे, ऐसा उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय के मन पर अंकित किया।

पुणे के बाद मुंबई जाकर मुंबई प्रांतिक युवासंघ के कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन करने के बाद वे कोलकाता लौट आये।

इसी बीच सायमन कमिशन पर चल रहा बहिष्कार देशभर में जारी ही था। लेकिन केवल विरोध या बहिष्कार करने से कुछ ख़ास हासिल नहीं होगा; इस नकारात्मक मार्ग के साथ ही, जागृत हो चुके जनक्षोभ को सकारात्मक मार्ग से आगे ले जाने के लिए सविनय आज्ञाभंग जैसे किसी कार्यक्रम की शुरुआत करना आवश्यक है, यह सुभाषबाबू जान चुके थे। लेकिन समूची भारतीय जनता जिसमें शामिल हो सके, ऐसा देशव्यापी कार्यक्रम केवल गाँधीजी ही दे सकते हैं, इसका सुभाषबाबू को एहसास था। लेकिन गाँधीजी अब भी सक्रिय राजनीति से दूर ही थे, खादीप्रसार जैसे रचनात्मक कार्यक्रम में उन्होंने खुद को व्यस्त रखा था। इसी कारण उन्हें मनाने के लिए सुभाषबाबू मई १९२८ में साबरमती में दाखिल हुए।

सायमन कमिशन पर जगह-जगह किये गये उत्स्फ़ूर्त बहिष्कार की जानकारी सुभाषबाबू ने गाँधीजी को दी। जब ऐसा जनक्षोभ जागृत हो चुका है, तब उस जनक्षोभ को स्वतन्त्रतासंग्राम की दृष्टि से उचित दिशा देने के लिए किसी सकारात्मक कार्यक्रम को कार्यान्वित करने की जरूरत है, यह बताते हुए सुभाषबाबू ने गाँधीजी से, उनके अघोषित राजनीतिक-संन्यास को त्यागकर ऐसा कोई देशव्यापी आन्दोलन छेड़ने की बिनती की। लेकिन गाँधीजी अब भी नैराश्यपूर्ण मनस्थिति में ही थे। इसी कारण अब भी कुछ ख़ास आशादायक स्थिति नहीं है, यह अ़फसोस गाँधीजी ने सुभाषबाबू के पास व्यक्त किया। दरअसल उस समय मालिकवर्ग के ज़ुल्मी रवैये के कारण सर्वत्र कर्मचारियों में का़फी असन्तोष फ़ैला हुआ था। ऐसे मौ़के पर यदि कोई सकारात्मक कार्यक्रम कार्यान्वित कर देशव्यापी आन्दोलन छेड़ा जाता, तो वह का़फी हद तक सफ़ल हो जाता। लेकिन इतिहास की दृष्टि से ये ‘किन्तु….परन्तु’ कोई मायने नहीं रखते।
सुभाषबाबू निराश होकर साबरमती से लौटे।

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