नेताजी – ४७

असेंब्ली के चुनाव में मिली काफी कामयाबी से हौसला बढ़कर दासबाबू के स्वराज्य पक्ष ने स्थानिक स्वराज्य संस्था के यानि कि म्युनिसिपालिटी के चुनाव में भी उत्साह के साथ हिस्सा लिया। सबसे प्रतिष्ठा की मानी जानेवाली कोलकाता की म्युनिसिपालिटी पर स्वराज्य पक्ष का झंडा लहराने के लिए दासबाबू और सुभाषबाबू ने जी जान से मेहनत की।

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दासबाबू के प्रभाव के कारण स्वराज्य पक्ष ने कोलकाता म्युनिसिपालिटी पर आसानी से अपना अधिकार जमा लिया। खुद दासबाबू भवानीपूर से बिना किसी विरोध के जीत गये। सुभाषबाबू और उनके भाई शरदबाबू भी भारी बहुमत से जीत गये। नवनिर्वाचित नगरसेवकों की सभा में सभागृह नेता के यानि कि मेयर के रूप में दासबाबू को सर्वसम्मति से चुना गया। दासबाबू कोलकाता म्युनिसिपालिटी के प्रशासन को साफ़सुथरा, गरिबों का कल्याण करनेवाला यानि की जनताभिमुख बनाना चाहते थे। उन्हें इसे एक आदर्श म्युनिसिपालिटी के रूप में औरों के लिए उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना था और इसलिए उन्हें एक गुणी व्यक्ति की ज़रूरत थी। वह महत्त्वपूर्ण पद मुख्य कार्यकारी अधिकारी का था। हर महिने तीन हजार रुपये तनखा होनेवाले इस प्रतिष्ठित पद के दावेदार भी काफी थें। इसी कारण कइयों की इस पद पर नज़र थी। इस पद के इच्छुक उम्मीदवारों का दासबाबू ने इंटरव्ह्यू लिया। उस इंटरव्ह्यू में तकरीबन हर किसी ने दासबाबू को यह समझाने की कोशीश की कि ‘मैं ही इस पद के लिए लायक उम्मीदवार हूँ।’ दासबाबू मन ही मन में मुस्कुरा रहे थे।

अंत में सभी इंटरव्ह्यू खत्म होने के बाद ‘ऐकावे जनाचे, पण करावे मनाचे’(लोगों की सलाह सुनिए, लेकिन अपने मन की जो राय हो वही कीजिए) इस कहावत के अनुसार दासबाबू ने इस महत्त्वपूर्ण पद के लिए सुभाषबाबू को ही चुना। फिरसे एक बार लोगों ने नापसंदगी दर्शायी। सुभाषबाबू को छोड़कर और कोई भी ऐसा नहीं है, जो इस पद के लिए लायक हो? कोई आय. सी. एस. बन गया, इसका मतलब क्या वह सर्वज्ञ बन गया? इस तरह की लोग बातें करने लगे। दासबाबू शांत थे। दरअसल उनके पास हेमंतकुमार, किरण शंकर रॉय, सेनगुप्ता जैसे कई क़ाबिल लोग थे। लेकिन कार्य की विशालता को देखते हुए दासबाबू यह जानते थे कि सुभाषबाबू के अलावा अन्य कोई भी इस काम को कर ही नहीं सकता।

लेकिन उनके निर्णय को पहली नापसंदगी सुभाषबाबू ने ही जतायी। ‘मैं ने देशसेवा करने के लिए आय. सी. एस. की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था, अब फिर से एक बार नौकरी करना यानि……आप मुझे जो कुछ भी काम करने के लिए कहेंगे, मैं उन्हें करूँ गा, लेकिन मुझे नौकरी करने के लिए मत कहिए’ इस प्रकार की दलीलें उन्होंने दासबाबू को दी। ‘ऊँ चा ओहदा यानि कि सोने का पिंजड़ा’ यह समीकरण मानो सुभाषबाबू के मन में स्थिर हो गया था।

दासबाबू व्यथित हुए। अपने शिष्योत्तम द्वारा दी जानेवाली दलीलों के पीछे रहनेवाली सच्ची भावना उनकी समझ में आ रही थी। फिर धीरे धीरे उन्हों ने सुभाषबाबू को समझाया ‘देखो, आज नहीं तो कल हमें आज़ादी मिलेगी। तब उसके बाद शासन व्यवस्था सँभालने के लिए हम क्या विलायत से लोगों को बुलायेंगे? हमें शासन किस प्रकार किया जाता है, यह मालूम होना चाहिए या नहीं? भारतीय लोग शासन की बाग़डोर नहीं सँभाल सकते, ऐसा बिना वजह का शोरगुल करके ही अँग्रेज़ सरकार हमें स्वतंत्रता देने से हमेशा टालमटोल करती है। इसीलिए उनके इस सवाल के जवाब के रूप में ही हम समर्थ और साफ़-सुथरा एवं जनता-अभिमुख प्रशासन यहाँ पर चलाकर ही दिखायेंगे। यहाँ पर इस म्युनिसिपालिटी की बिल्डींग में सामान्य भारतीय का स्वागत हो, इस बिल्डींग के बारे में उसे आत्मीयता महसूस हो ऐसा यदि हम चाहते हैं, तो यहाँ के मग़रूर अँग्रेज़ अफसरों की नाक में नकेल डालनी ही पड़ेगी और इसीलिए सुभाष मुझे तुम्हारा साथ चाहिए। देखो, ठीक से सोचो। अब तक तुमने देशसेवा ही की है; लेकिन यह भी देशसेवा का ही एक प्रकार है। इसके आगे तुम्हारी मर्ज़ी!’

गुरु द्वारा ही अंजन डाले जाने के बाद सुभाषबाबू के मन के सारे विकल्प दूर हो गये और वे खिल उठे, उन्होंने दासबाबू से ‘हाँ’ कर दी। दासबाबू ने ‘मुख्य कार्यकारी अधिकारी’ इस पद के लिए सुभाषबाबू के नाम की गव्हर्नर के पास सिफारिश की। वे सभी सुभाषबाबू की कार्यक्षमता को जानते थे और इसीलिए इस योजना में अड़ंगा कैसे डाला जा सकता है, इसके बारे में गव्हर्नर, सचिव, टेगार्ट आदि विचारविमर्श करने लगे। म्युनिसिपालिटी के गोरे अफसरों तक यह ख़बर पहुँचने के कारण वे बहुत ही बेचैन हो गये। एक यःकश्चित् भारतीय के अधिकार में हमें काम करना पड़ेगा? एक भारतीय की और वह भी छब्बीस-सत्ताईस वर्ष के लड़के की आज्ञाओं का पालन हमें करना पड़ेगा? इस बेचैनी के कारण ऊपर से लेकर नीचे तक के सभी अँग्रेज़ एकजुट हो गये और उन्होंने गव्हर्नर आदि से मुलाक़ात करके आग में तेल डालने का काम शुरू कर दिया। अब दिल्ली में टेलिग्रामों की मानो बरसात ही शुरू हो गयी। अर्थात् मेयर की सिफारिश को क़ानूनी तौर पर गव्हर्नर नामंज़ूर नहीं कर सकते थे और इसीलिए वे इस मामले में विशेष रूप से कुछ भी नहीं कर सकते थे। तब भी उन्होंने मंज़ूरी देने के लिए टालमटोल करते हुए महीने भर का समय लगाया….लेकिन आख़िर उन्होंने मंज़ूरी दे दी….देनी ही पड़ी।

म्युनिसिपालिटी के गोरे अफसरों के लिए सुभाषबाबू की नियुक्ति रंग का भंग कर देनेवाली प्रतीत हो रही थी; वहीं सफाई कर्मचारी, चपरासी, क्लर्क आदि ‘भारतीय’ कर्मचारी फूले नहीं समा रहे थे। सुभाषबाबू की कीर्ति उन तक पहले ही पहुँच चुकी थी। पहली बार ही ‘कोई अपना’ आया है, ऐसा उन्हें लग रहा था।

१४ एप्रिल १९२४ को सुभाषबाबू की नियुक्ति के पहले दिन ये सभी भारतीय कर्मचारी उनका स्वागत करने के लिए बिल्डिंग के गेट के पास सड़क पर आ रुके थे। उनमें अत्यधिक उत्साह की, नवचेतना की लहर दौड़ रही थी। लेकिन उसी समय बिल्डिंग की खिड़कियों के पीछे से कईं नज़रें ‘खाया जाये या निगल लिया जाये’ इस भावना से उनकी ओर देख रही थीं।

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