नेताजी – ४८

काफी टालमटोल करने के बाद गव्हर्नर ने सुभाषबाबू की नियुक्ति की सिफारिश को मंज़ूरी दे दी और १४ अप्रैल १९२४ को सुभाषबाबू ने कोलकाता म्युनिसिपालिटी के ‘मुख्य कार्यकारी अधिकारी’ के रूप में पदभार सँभाला। उससे पहले उन्होंने संपादकपद तथा बंगाल प्रांतीय काँग्रेस की कार्यकारिणी से भी इस्तीफ़ा दे दिया और स्वयंसेवक दल के प्रमुख पद का भी त्याग किया।

standing- सुभाषबाबू

काम के पहले ही दिन म्युनिसिपालिटी के सभी के सभी भारतीय कर्मचारी उनका स्वागत करने के लिए बिल्डिंग के प्रवेशद्वार पर खड़े थे और गोरे अँग्रेज़ दाँत चबा रहे थे।

सुभाषबाबू ने एक लंबी साँस लेकर उस बिल्डिंग की ओर देखा। अब इसके बाद यह बिल्डिंग ही उनके कार्यक्षेत्र का केंद्र बननेवाली थी। भारतीयों का जीवनमान सुधारने तथा उनका विकास करने के लिए मित्रों के साथ ज़ोरशोर से उन्होंने जो चर्चाएँ की थीं, उन कार्यों की तामील करने के अधिकार रहनेवाले पद पर नियति ने आज उन्हें अचानक लाकर बिठा दिया था। बुरी हालत में जी रहे आम भारतीय नागरिकों के प्रति मूलत: आत्मीयता रहनेवाले सुभाषबाबू के हाथ अब पुरुषार्थ की बुलंदियों को छूने के लिए व्याकुल थे। कोलकाता की सूरत-श़क़्ल बदल देने की कल्पना की धुन उनपर सवार हो चुकी थी।

पदभार का स्वीकार करने के बाद सर्वप्रथम सुभाषबाबू ने, म्युनिसिपालिटी में स्वतंत्र शिक्षा विभाग ही नहीं था, उसे शुरू कर दिया और उसके अधिकार में स्कूलों की संख्या बढ़ाने तथा उनकी स्थिति में सुधार करने का कार्यक्रम हाथ में लिया। प्राथमिक शिक्षा को विनामूल्य कर दिया। साथ ही स्कूलों में जाकर अध्यापकों, अन्य कर्मचारियों, छात्रों तथा मुख्याध्यापकों से मुलाक़ात कर उनकी समस्याओं को जाना और उन्हें फ़ौरन हल करना शुरू कर दिया। इस काम में उनकी बहुमूल्य सहायता की- किट्टीश ने। जी हाँ, वे ही किट्टीश चट्टोपाध्याय, जिन्होंने सुभाषबाबू से स्फूर्ति लेकर दिलीपकुमार के साथ स्वयं भी आय.सी.एस. का अध्ययन बीच में ही त्याग दिया था और वे अपने पसंदीदा गाने के क्षेत्र में अनुसंधान करने में जुट गये थे। वे आय.सी.एस. बननेवाले हैं यह जानकर उनके इंग्लैंड प्रस्थान करने से पहले एक अमीर द्वारा उसकी बेटी का उनके साथ तय किया हुआ ब्याह भी तोड़ने के लिए वे तैयार हो गये थे।

वे ही किट्टीश अब इस नयी संरचना में कोलकाता म्युनिसिपालिटी के पहले शिक्षाधिकारी बन गये। इस काम के सिलसिले में पुराने रिश्तें और भी गहराये और किट्टीश उत्साह के साथ सुभाषबाबू के सपनों को सच करने के कार्य में सम्मीलित हो गये। कॉलेज के दिनों में देखे हुए सपनों को साकार करने के मार्ग की चाभी ही मानो उन्हें मिल गयी थी। ….और हाँ, हालाँकि अपने सपनों की ख़ातिर किट्टीश ब्याह तोड़ने के लिए तैयार हो गये थे, मग़र उनकी वाग्दत्त वधू को उनके कार्य के मूल्य का एहसास हो चुका था। उनके सपने अब उनकी वाग्दत्त वधू के भी सपने बन चुके थे। अत एव उसने उन्हें पूरा समर्थन देते हुए अपने घरवालों का विरोध सहते हुए किट्टीश से तय हुए ब्याह को न तोड़ने का फैसला किया।

ख़ैर! सुभाषबाबू ने बाकी मामलों में भी तेज़ी से परिवर्तन कराना शुरू कर दिया। सबसे अहम बात थी कि उस ज़माने में म्युनिसिपालिटी की ओर से गव्हर्नर, कमिशनर, सेक्रेटरी आदि गोरे अँग्रेज़ अफसरों के सत्कार समारोह आयोजित करके फिजूल ही उन्हें छोटी छोटी बातों के लिए सम्मानपत्र दिये जाते थे। सुभाषबाबू ने उस प्रथा को बंद कर दिया और इन गोरे अँग्रेज़ अफसरों के बजाय महात्मा गाँधी, विठ्ठलभाई पटेल आदि राष्ट्रनेताओं को सत्कार के लिए आमंत्रित करना शुरू कर दिया।
सुभाषबाबू तेज़ी से एवं दृढ़तापूर्वक कोलकाता का भारतीयीकरण करने की दिशा में एक एक कदम रख रहे थे। उन्होंने कईं सड़कों के, चौराहों के अँग्रेज़ी नाम बदलकर भारतीय नाम दे दिये। मुख्य रूप से उन्होंने म्युनिसिपालिटी कर्मचारियों के लिए खादी की पोशाक़ पहनना बन्धनकारक कर दिया। सभी के साथ विचारविमर्श कर, उनकी समस्याओं को जानकर उन्हें हल करना शुरू कर दिया। अब तक गोरे अँग्रेज़ अफसरों की ज़ुबान से सिर्फ गालियाँ और मग़रूर ऑर्डर्स ही सुनने के आदी हो चुके कर्मचारियों के मन में इन नये ‘साहब’ के प्रति बहुत ही आत्मीयता उत्पन्न हो गयी। अब उनके चेहरे पर भी एक अनोखा तेज और देशप्रेम का उत्कट भाव झलकने लगा। अब यह तो आप समझ ही गये होंगे कि यह खादी की पोशाक़ गोरे अँग्रेज़ अफसरों की आँखों में चुभने लगी थी। लेकिन सुभाषबाबू ने उनकी तऱङ्ग ध्यान नहीं दिया। दूसरी बात यह है कि उन्होंने सार्वजनिक आरोग्य विभाग में भी आमूलाग्र सुधार किये। सरकारी दवाखानों एवं अस्पतालों की संख्या में लक्षणीय वृद्धि हुई। व्यापार के बहाने भारत में घुसे हुए और अपने व्यापार की ताकत पर भारत को निगल लेनेवाले अँग्रेज़ों को यदि उन्हीं की भाषा में जवाब देना हो, तो सिर्फ विदेशी माल को बहिष्कृत करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनकी टक्कर लेनेवाले स्थानीय उद्योगों की शुरुआत होना ज़रूरी है, यह जानकर उन्होंने कुटिरोद्योग को चालना दी। जहाँ ज़रूरत है वहाँ नये/कमज़ोर उद्योगों को कर्ज़, जगह आदि सुविधाएँ सुलभतापूर्वक उपलब्ध करायी। घरों का निर्माण करने के उद्योग को भी चालना दी।

सबसे अहम बात यह थी कि वे केवल अपनी केबिन में बैठकर आदेश देनेवाले, प्रत्यक्ष कार्यपरिस्थिति की- ‘ग्राऊंड रिअ‍ॅलिटी’ की बिलकुल भी जानकारी न रखनेवाले और जनता के सुखदुख से अलिप्त रहनेवाले ‘टिपिकल’ मुख्य कार्यकारी अधिकारी नहीं थे; बल्कि जनता के सुखदुख के साथ समरस हो चुके, म्युनिसिपालिटी के कार्य को जनता-अभिमुख बनाने के ध्येय से प्रेरित एक द्रष्टा थे। सुभाषबाबू रोज़ सुबह एक एक वार्ड में जाकर स्वयं मुआयना लेते थे, वहाँ के नागरिकों की शिकायतें सुनते थे और दोपहर में संबंधित अफसर को बुलाकर साफ़ साफ़ टिप्पणी कर आज्ञा देते थे। उनकी ऑर्डर में किसीभी प्रकार की संदिग्धता के न होने के कारण उनके अधिपत्य में काम करनेवाले अफसर भी निर्भयतापूर्वक उनकी आज्ञा का पालन कर सकते थे।

क्योंकि यह सब हम खुद के लिए नहीं, बल्कि जनता के लिए कर रहे हैं इस विश्‍वस्तता (स्वयं के मात्र एक ट्रस्टी रहने) का एहसास सुभाषबाबू के मन में जागृत था।

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