नेताजी – ४५

 

चौरीचौरा में असहकार आन्दोलन ने हिंसक मोड़ ले लेने के कारण गाँधीजी व्यथित हुए और उन्होंने उस घटना के प्रायश्चित्त के रूप में सम्पूर्ण आन्दोलन को ही बिनाशर्त स्थगित कर दिया।

Shubashchandra_Bose- चौरीचौरा में असहकार आन्दोलन

लेकिन गाँधीजी के इस फैसले से देशभर में उनके खिलाफ नारा़जगी की भावना उत्पन्न हो गयी। असहकार आन्दोलन में गाँधीजी के एक शब्द की ख़ातिर अपनी अपनी स्कूल-कॉलेजों को छोड़ चुके छात्र, सरकारी नौकरी पर लात मारकर इस आन्दोलन में शामिल हुए कर्मचारी इनके मन में एक तरह से हमारी भावनाओं के साथ प्रतारणा हुई है, यह धारणा स्थिर हो गयी।

दासबाबू, सुभाषबाबू और अन्य राष्ट्रीय नेता भी गाँधीजी के इस फैसले के साथ सहमत नहीं थे। देश के एक हिस्से में हुई एक घटना के परिणाम सारा देश भला क्यों भुगते? यह उनका सवाल था। काँग्रेस के लगभग सभी नेताओं ने गाँधीजी को समझाने की लाख कोशिशें की।

लेकिन गतजीवन में अपरिमित हिंसा और उसके घोर परिणामों को देख चुके वे महात्मा हिंसा से मिलनेवाला स्वराज्य नहीं चाहते थे। यदि आप मुझे अपना अधिनायक मानते हैं, तो मेरे बताये हुए रास्ते पर से ही आन्दोलन को आगे बढ़ाना होगा, वरना नहीं, यही गाँधीजी की भूमिका थी। अन्यथा आन्दोलन की शुरुआत तो निःशस्त्र प्रतिकार के – असहकार के मार्ग से की जाये और हिंसा की घटनाएँ होती रहने के बावजूद भी उन्हें ऩजरअन्दा़ज कर दिया जाये, यह दोहरी नीति गाँधीजी को मंज़ूर नहीं थी। कोई हिंसा के मार्ग पर से आगे बढ़ना चाहता हो, तो वह उसकी स्वतन्त्रता है, लेकिन फिर वह व्यक्ति असहकार आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन सकता, यह गाँधीजी की भूमिका थी और गाँधीजी की मनोधारणा को देखते हुए उनकी दृष्टि से वह सही भी थी। गाँधीजी स्वराज्य की अपेक्षा सत्याग्रह के मार्ग पर चलकर, आत्मक्लेश के मार्ग पर चलकर आत्मिक शुद्धीकरण हुए नागरिकों का ‘रामराज्य’ स्थापित करना चाहते थे।

लेकिन जब हमारा दुश्मन यह भारत को म़जबूत गिऱफ़्त में फसानेवाला अँग्रे़ज अ़जगर है और ऐसे दुश्मन के चंगुल से देश को रिहा करना यह हमारा शीघ्रतर साध्य है, तब ऐसे मुश्किल साध्य को हासिल करने के लिए साधनों को गौण मानना चाहिए, यह सुभाषबाबू जैसे – भारतीय स्वतन्त्रता का ही एकमात्र ध्येय रखनेवाले – सर्वोच्च द़र्जे के देशभक्त की राय थी। मुख्य तौर पर अँग्रे़जों जैसे ज़ुल्मी और पत्थरदिल तानाशाह के साथ युद्ध करते हुए ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ इसी मार्ग का चयन करना आवश्यक है और भारतीय भी इस मार्ग को भली-भाँति अपना सकते हैं इसका एहसास अँग्रे़जों को कराना जरूरी है, वरना उनके मन में धाक उत्पन्न होना मुमक़िन नहीं है और फिर वे इसी तरह असहकार आन्दोलन में शामिल होनेवाले बेगुनाहों की जानें लेते रहेंगे, यह सुभाषबाबू की विचारधारा थी। गाँधीजी के मार्ग पर चलकर स्वराज्य भले ही मिल सकता है, लेकिन उसके लिए स्वतन्त्रता के इस यज्ञ में कितने वीरों की आहुति देनी पड़ेगी, यह ‘लेखाजोखा’ सुभाषबाबू के मनःपटल पर दृग्गोचर हो रहा था। अपनी अपनी विचाराधारा के साथ प्रामाणिक रहनेवाले इन दोनों महामानवों की भूमिकाओं के बीच का यह अन्तर्विरोध आगे चलकर स्वतन्त्रतासंग्राम में कदम कदम पर दिखायी दिया।

ख़ैर! आन्दोलन का दबाव नष्ट होते ही सरकार ने फिर से अपना फन निकाला। सबसे पहले उसने ‘यंग इंडिया’ में लिखे गये लेखों के आधार पर गाँधीजी पर राजद्रोह का मुक़दमा दायर करके उन्हें छः साल की कैद की स़जा सुनायी। एक बार गाँधीजी सलाखों के पीछे चले जायेंगे, तो फिर बाहर का माहौल भी ठण्ड़ा पड़ जायेगा, यह सरकार की नीति थी और वह काफी हद तक सफल भी हुई।

दासबाबू और सुभाषबाबू इन्हें भी ७ फरवरी १९२२ को छः-छः महीनों के कारावास की सजाएँ सुनायी गयीं। सुभाषबाबू को अलिपुर जेल भेज दिया गया।

४ अगस्त को सुभाषबाबू को रिहा कर दिया गया। उसके बाद वे अखिल बंगाल युवक परिषद की तैयारी में जुट गये। उससे थोड़ीबहुत फुरसद उन्हें मिलते ही, बंगाल में आयी बाढ़ ने जनजीवन को अस्तव्यस्त कर दिया। फसले बह जाने के कारण किसान बेसहारा हो गये। सुभाषबाबू ने इस चुनौती का स्वीकार कर दिलोजान से मददकार्य की शुरुआत कर दी। बंगाल काँग्रेस ने अल्प अवधि में ही बाढ़ग्रस्तों के लिए चार लाख रुपयों की राशि इकट्ठा कर दी। स्वयं सुभाषबाबू डेढ़ महीने तक बाढ़ग्रस्त इला़के में डेरा डाले हुए थे। वे और उनके स्वयंसेवक कभी कमर तक के जलस्तर को, तो कभी घुटने तक की कीचड़ को पार करते हुए गाँव गाँव में जाकर राहतसामग्री और दवाइयाँ बाढ़ग्रस्तों को ठीक से मिल रही है भी या नहीं, इस बात पर स्वयं ध्यान दे रहे थे। स्वयं की सारी संगठनकुशलता को दाँव पर लगाकर सुभाषबाबू ने इस कठिनतम कार्य को सफल बनाया।

यह राहतकार्य की गाड़ी पटरी पर से ठीक से चल ही रही थी कि उतने में काँग्रेस के दिसम्बर के अधिवेशन की तिथि क़रीब आ गयी। इस बार अधिवेशन गया में हो रहा था। हालाँकि पिछले वर्ष के अहमदाबाद अधिवेशन के लिए दासबाबू को अध्यक्ष के रूप में चुना गया था, लेकिन उस समय वे जेल में थे, इसीलिए गया अधिवेशन के लिए भी दासबाबू का ही चयन किया गया।

सुभाषबाबू इस साल पहली बार ही काँग्रेस के अधिवेशन में शामिल होनेवाले थे और वह भी दासबाबू की अध्यक्षता में; फिर क्या? उनके कार्य का उत्साह देखने से बनता था। अधिवेशन की तैयारी में सुभाषबाबू ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। १९१९ में मंज़ूर हुए क़ानून के तहत अब काँग्रेस के लिए असेंब्ली का चुनाव लड़ना मुमक़िन हो गया था और इसीलिए असेंब्ली में प्रवेश करके वहाँ पर भी सरकार की नाक में नकेल डालनी चाहिए, यह दासबाबू की राय थी। लेकिन उस समय गाँधीजी की भूमिका यह थी कि इस तरह असेंब्ली में जाना यह सरकार को एक तरह से सहकार करना ही है और वह असहकार आन्दोलन के खिलाफ है। अत एव काँग्रेस ने उस चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किये थे। लेकिन इस वजह से असेंब्ली में सरकार पर किसी का भी अँकुश न रहने के कारण सरकार मनचाहे क़ानून बनाने के लिए मुख़तार हो गयी। इसीलिए इस वर्ष अपने अध्यक्षीय व्यासपीठ के माध्यम से इस मुद्दे का पुनरुच्चार करने का दासबाबू ने तय किया। लेकिन उनके इस असेंब्लीप्रवेश के – ‘फेरवाद’ के – मुद्दे से गाँधीजी अब भी असहमत थे। हालाँकि गाँधीजी जेल में थे, तब भी अधिवेशन में उनके अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। वे ‘असेंब्ली में न जाने’ की राय के यानि कि ‘ना-फेरवादी’ बन गये और दूसरे दिन खुले अधिवेशन में इस प्रस्ताव को १७४८ बनाम ८९० व्होटों से नामंज़ूर कर दिया गया।

जेल में रहकर भी गाँधीजी के मत का पलड़ा भारी साबित हुआ; वहीं, अध्यक्षपद पर रहने के बावजूद भी दासबाबू के मत को अधिवेशन में नकारा गया।

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