नेताजी – ४४

सुभाषबाबू के साथ बातचीत ख़त्म होने के बाद सिर चकरा गया माऊंटबॅटन अन्य किसी से भी न मिलते हुए सीधे विश्राम कक्ष में चला गया। लेकिन वहाँ जाने से पहले उसने टेगार्ट से, यह मनुष्य – सुभाष – मुझे बंगाल के क्रान्तिकारी संगठनों से सम्बन्धित रहनेवाला लगता है, यह कहकर उससे चौकन्ना रहने के लिए कहा और ‘उसके खिलाफ हो सके उतने सबूत इकट्ठा करके हर मुमक़िन कोशिश कर उसके हर बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश करना’ यह सलाह देने से भी वह नहीं चुका। ‘ही इज डेन्जरस’ यह स्वयं का निष्कर्ष भी उसने टेगार्ट को बताया।

सुभाषबाबू

‘ही इज टू डेन्जरस’ – ‘इस ख़तरनाक आदमी से होशियार रहना’….टेगार्ट के भेजे में माऊंटबॅटन के लब़्ज किसी हथौड़े की तरह आघात कर रहे थे।

माऊंटबॅटन से मिलकर जेल वापस लौटने के बाद सुभाषबाबू ने माऊंटबॅटन से हुई मुलाक़ात का ब्योरा दासबाबू को दिया। अपनी मंजिल के सामने किसी की भी परवाह न करनेवाले और किसी से भी न डरनेवाले अपने इस शिष्योत्तम को दासबाबू बड़े प्यार से निहारते ही रहे।

सचमुच ही, अपनी मातृभूमि के बारे में सुभाषबाबू की राय इतनी आत्यन्तिक थी कि सुभाषबाबू के लिए अन्य कोई भी बात ‘परतन्त्र भारतमाता को स्वतन्त्र बन चुकी देखना’ इस ध्येय के आसपास तक नहीं जाती थी। सर्वोच्च ऐसे परमेश्वरी कार्य के लिए जन्म लेनेवाले जीवों का अपने ध्येय के प्रति रहनेवाला एहसास बहुत ही समृद्ध रहता है। सुभाषबाबू के लिए आदरणीय रहनेवालों में से एक स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी की भारतमाता को संबोधित करते हुए लिखी हुई ‘मोक्ष-मुक्ती ही तुझीच रूपे’ (माँ, मोक्ष-मुक्ति ये आप ही के रूप हैं।) इस काव्यपंक्ति को हूबहू जीनेवाले सुभाषबाबू के लिए भारतमाता की आ़जादी के सामने बाक़ी सबकुछ एक तिनके के समान ही था – फिर चाहे वह सच्चा मोक्ष भी क्यों न हो। वैसा उन्होंने अपने दोस्त दिलीपकुमार से – जिसके साथ वे कई बार विचारविमर्श करते थे – उससे भी कहा था और अन्यथा सुभाषबाबू का लगभग भक्त ही रहनेवाला दिलीपकुमार इस मुद्दे पर उनसे सहमत नहीं था।

कितनी ताज्जुब की बात है न! सुभाषबाबू को आय.सी.एस. से इस्तीफा देने से परावृत्त करने की सभी प्रकार की कोशिशें करनेवाले दिलीपकुमार का मन आगे चलकर वैराग्य की ओर बढ़ता रहा, उसका अगला जीवन भी अधिकांश रूप से आध्यात्मिक अंगों से युक्त ही रहा और इसीलिए ‘मोक्ष’ इस अन्तिम ध्येय की दिशा में उसकी कोशिशें जारी रहीं….और बचपन में मोक्षप्राप्ति के लिए आवश्यक रहनेवाले गुरु की खोज में दुर्गम पहाड़ियों में भटकनेवाले सुभाषबाबू को जब अपने नियत जीवितकार्य का एहसास हुआ, तब उन्हें यह भी एहसास हुआ की सच्चा मोक्ष वह नहीं है, बल्कि सच्चा मोक्ष तो ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई हमारी जन्मभूमि को ग़ुलामी से मुक्त करना यही है। उनके लिए तो यही मोक्ष था और इसीलिए उसके सामने सबकुछ गौण ही था – फिर चाहे वह दुनिया का बादशाह भी क्यों न हो। इसीलिए माऊंटबॅटन से बातचीत करते हुए उन्होंने निर्भयतापूर्वक अपना मन्तव्य उसके सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया था।

सारी हकीक़त सुनने के बाद, अपना यह शिष्योत्तम अब स्वतन्त्र रूप से कार्य करने के लिए समर्थ बन चुका है, इसका एहसास दासबाबू को हुआ और इतने दिनों तक बंगाल के स्वतन्त्रतासंग्राम की पालक़ी अकेले के बल पर ही उठानेवाले उनके वृद्ध कन्धे उसे सुभाषबाबू के कन्धों पर देने के लिए उत्सुक हो गये।

उसी दौरान दिसम्बर के अन्त में अहमदाबाद में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। अध्यक्षपद के लिए दासबाबू का चयन किया गया था। लेकिन वे जेल में रहने के कारण उनका अध्यक्षीय भाषण प्रभारी अध्यक्ष हकीम अजमलखानजी ने पढ़कर सुनाया। शान्ततामय सत्याग्रह के मार्ग पर चलकर असहकार आन्दोलन को इसी तरह आगे बढ़ाया जाये, ऐसा प्रस्ताव इस अधिवेशन मे मंज़ूर किया गया।

१९२१ साल ख़त्म हुआ।

हालाँकि गाँधीजी की घोषणा के अनुसार स्वराज्य तो नहीं मिला था, मग़र तब भी इस असहकार आन्दोलन के कारण अखिल भारत में – भारत के कोने-कोने में जो एक अभूतपूर्व जनजागरण हुआ था, उस दृष्टि से यह साल फायदेमंद ही साबित हुआ। इस वर्ष गाँधीजी ने काँग्रेस की क़ानूनी घटना की रचना की और उसे एक सुसंगठित पार्टी का स्वरूप प्राप्त हुआ। सबसे अहम बात यह थी कि इस आन्दोलन से सभी स्तरों के लोग बड़े गर्व के साथ खादी के वस्त्र पहनकर ‘शान से’ घूमने लगे और परिणामों की परवाह न करते हुए एकदिल और उत्साह के साथ आन्दोलन में अपने आप को झोंक देने लगे।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व गाँधीजी करेंगे, इस पर भी इस आन्दोलन ने मुहर लगा दी।
१९२२ में भी असहकार आन्दोलन जारी रहा।

भारत को स्वराज्य देने के बारे में यदि सरकार द्वारा जल्द ही कुछ कदम नहीं उठाये गये, तो काँग्रेस को साराबंदी का कार्यक्रम हाथ में लेना पड़ेगा, ऐसी चेतावनी गाँधीजी ने व्हाईसरॉय को दी।
फिर एक बार मुरझाया हुआ माहौल पुनः खौल उठा।
….और ४ फरवरी को वह ‘काली घटना’ हुई।

उत्तर प्रान्त में रहनेवाले गोरखपूर जीले के चौरीचौरा में शान्तिपूर्वक सत्याग्रह करनेवाले सत्याग्रहियों को पुलीस ने बेरहमी से पीटा, गोलियाँ भी चलायीं; और इस वजह से खौल उठी भीड़ ने पुलीस थाने को ही फूंक डाला, जिसमें २२ पुलीसकर्मियों की जलकर मृत्यु हो गयी।
शान्तिपूर्ण आन्दोलन पर हिंसा का धब्बा लग गया। स्वतन्त्रता संग्राम के लिए हिंसा का सहारा लेना, इस बात के लिए गाँधीजी के तत्त्वों में कोई जगह नहीं थी।

इस बात के प्रायश्चित्त के रूप में गाँधीजी ने इस पूरे आन्दोलन को ही बिनाशर्त स्थगित कर दिया।
गाँधीजी के इस विपरित प्रतीत होनेवाले फैसले के तीव्र प्रतिसाद देश भर में उठने लगे।

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