नेताजी-५३

अँग्रे़जी हुकूमत की दृष्टि से ‘भारत के सबसे ख़तरनाक इन्सान’ माने गये सुभाषबाबू को अँग्रे़ज सरकार ने कपटपूर्वक अध्यादेश के जाल में फाँसकर, तड़ीपार कर ठेंठ मंडाले की जेल में रख दिया। उस नरकसदृश जेल में सुभाषबाबू के दिनक्रम की शुरुआत हुई।

Subhash-Chandra-Bose-(1)- ‘भारत के सबसे ख़तरनाक इन्सान’कुछ ही दिनों में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहनेवाली वहाँ की जलवायु के कारण सुभाषबाबू की तबियत बिग़ड़ने लगी। निःसत्त्व आहार, एक ही जगह स्थानबद्ध अवस्था में रहना, सामान्य मूलभूत सुखसुविधाओं का अभाव, परिचय के व्यक्ति से मुलाक़ात न होना, संगीत आदि मन को रिझानेवालीं बातों का न होना इन जैसी कठिनाइयों का सामना करते हुए उस जेल में कैदी के मन एवं शरीर पर काफ़ी बुरा असर होता था। हालाँकि यह सच है कि इन हालातों में सुभाषबाबू के स्वास्थ्य पर बुरा परिणाम तो हुआ, लेकिन उनके मन की आध्यात्मिक बुनियाद, संस्कारितता एवं तत्त्वज्ञानी वैचारिक अधिष्ठान इनके कारण वे हिम्मत नहीं हारे। बल्कि जैसा कि श्रद्धावान के सन्दर्भ में हमेशा ही होता है कि उसके दुश्मनों द्वारा किये गये कपटकारस्तान भी अन्तिमतः उसके लिए उपकारक ही साबित होते है, वैसा ही – गत कुछ वर्षों से राजनीतिक गरमागरमी के माहौल में तत्त्वज्ञान यह उनका चहीता विषय उनके मन में कुछ अनदेखा सा ही हो चुका था, जो अब फिर एक बार नये सिरे से उनके मन पर अधिराज्य करने लगा और अन्तर्मुख हो जाने के कारण उनके मन की ताकत अब और भी बढ़ गयी।

जेल की, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहनेवाली परिस्थिति का एक परिणाम यह भी हुआ कि सुभाषबाबू के मन में लोकमान्य टिळकजी के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना अब सौ गुना बढ़ गयी। उन्होंने मंडाले पहुँचते ही, लोकमान्यजी को किस बराक में रखा गया था इसके बारे में जेलर से पूछा था। लोकमान्यजी को जब यहाँ पर रखा गया था, उस समय का जेलर ही उस वक़्त भी वहाँ पर था। लोकमान्यजी के बारे में प्रारंभ में कलुषित मानसिकता रहनेवाला उसका मत लोकमान्यजी के वहाँ के वास्तव्य की समाप्ति तक आमूलाग्र बदल चुका था और उनका स्वयं-अनुशासनपूर्ण एवं सात्त्विक आचरण देखकर आख़िर में तो उसने उन्हें सत्पुरुष ही मान लिया था। अत एव उसने भी लोकमान्यजी को जहाँ पर रखा गया था, वह वार्ड और लोकमान्यजी द्वारा लगाये गये पेड़पौधे भी उत्साहपूर्वक सुभाषबाबू को दिखाये।

सुभाषबाबू के मन में विचार आता था कि मुझ जैसे युवा मनुष्य पर भी यहाँ के चन्द कुछ दिनों के वास्तव्य का भी इतना अनिष्ट असर होता है, तो लोकमान्यजी जैसे उम्र के पचास साल पार कर चुके बुज़ुर्ग व्यक्तित्व पर यहाँ के वातावरण का कितना भयानक परिणाम हुआ होगा?….और इतना होने के बावजूद भी उन यातनाओं का एवं वातावरण का मन पर प्रभाव न होने देते हुए लोकमान्यजी ने ‘गीतारहस्य’ जैसे अमूल्य ग्रन्थ का लेखन किया। ऐसे द़र्जे का ग्रन्थ लिखने के लिए श्रेष्ठ श्रेणी की मनःशान्ति का होना आवश्यक होता है। लोकमान्यजी तो भगवद्गीता का तत्त्वज्ञान हूबहू अपने जीवन में उतार ही रहे थे और उसी के बल पर इतने प्रतिकूल हालातों में छः साल तक रहने के तथा ब़जहदमी, मधुमेह, संधिवात आदि रोगों द्वारा शरीर को पीड़ित किये जाने के बावजूद भी अपनी मनःशान्ति को टस से मस न होने देते हुए इस श्रेष्ठ ग्रन्थ को लिखा। यह सबकुछ सोचकर सुभाषबाबू के मन में लोकमान्यजी के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना कई गुना बढ़ गयी।

मन भले ही ताकतवर क्यों न हुआ हो, लेकिन जेल के हालातों का शरीर पर जो होना था वह असर तो हो ही रहा था। कुछ ही महीनों में सुभाषबाबू का व़जन लगभग ग्यारह किलो घट गया। चेहरे की रौनक चली गयी। मूलतः हट्टेकट्टे रहनेवाले सुभाषबाबू, अब उन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाये, इस कदर पतले हो गये। शरीर को हमेशा थकान महसूस होने लगी। इन विपरित हालातों में केवल अपने वज्रसमान दृढ़निश्चयी मनोबल के बलबूते पर ही वे जीवित रहे थे।

….और तब ही उनपर वज्राघात करनेवाली ‘वह’ ख़बर उनतक पहुँची।
….‘देशबंधु चित्तरंजन दासजी का निधन’!….

दिल दहला देनेवाली इस ख़बर को सुनकर सुभाषबाबू के पैरोंतले की जमीन ही फिसल गयी। सलाख़ों पर माथा पटक पटक कर वे शोक करने लगे। स्वतन्त्रतासंग्राम में सुभाषबाबू ने प्रत्यक्ष पहला कदम जिनकी निगरानी में रखा था, वे उनके केवल ‘फ्रेन्ड, फिलॉसॉफर, गाईड’ ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक रहनेवाले पितृतुल्य ‘गुरु’ आज इस दुनिया में नहीं रहे, इस कल्पना को सुभाषबाबू सह ही नहीं सकते थे।

हुआ यूँ था कि अपना घर और बची-खुची जायदाद देशकार्य के लिए बेचकर दासबाबू अपनी पत्नी वासंतीदेवी के साथ निर्धन अवस्था में बाहर निकले। उसके बाद कुछ ही दिनों में फ़रीदपुर में बंगाल प्रांतिक काँग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था, जिसमें वे उपस्थित रहे। पहले से ही बिग़ड़ चुकी हालत इस भागदौड़ के कारण और भी ख़राब हो गयी। उसी समय उनके एक मित्र ने जबरदस्ती से ही दार्जिलिंगस्थित ‘स्टेप असाईड’ इस अपने बंगले में हवाबदली के लिए उन्हें भेज दिया। (उस बंगले का रूपान्तरण अब दासबाबू के म्यूजियम में हो चुका है)। हालाँकि उन्हें वहाँ पर तात्कालिक आराम तो मिला, लेकिन उनकी हालत नाज़ुक होती जा रही थी। उन्हें अब सुभाष की याद बार बार आने लगी। फिर वे उसके पुराने ख़त निकालकर पुनः पुनः पढ़ते थे, उन पत्रों को सहलाते बैठते थे और आँसू बहाते थे। उनके बिग़ड़े हुए स्वास्थ्य की ख़बर लगते ही गाँधीजी भी अपना दौर अधूरा छोड़कर दार्जिलिंग आकर उनसे मिलकर गये। बेळगांव काँग्रेस के बाद दोनों की विचारधारा एकजूट हो गयी थी। गाँधीजी जब तक दार्जिलिंग में थे, तब तक दासबाबू का स्वास्थ्य ठीक रहा। खूब चलना और स्वतन्त्रतासंग्राम एवं सुभाष इन अपने चहीता विषयों पर भरपूर चर्चा करना यह इन दोनों का दिनक्रम बन गया था।

फिर गाँधीजी के उनके दौरे पर लौट जाने के बाद कुछ ही दिनों में दासबाबू की हालत का काफ़ी नाज़ुक हो गयी और १६ जून १९२५ की शाम को ढलते हुए सूरज को साक्षी रखकर उन्होंने सबसे विदा ली।

दासबाबू के निधन की ख़बर सुनकर पाँच-दस मिनटों तक सन्न हो चुके गाँधीजी अपना असम का दौरा अधूरा छोड़कर दासबाबू की अन्तिम यात्रा में शामिल होने के लिए कोलकाता लौट आये। तक़रीबन पाँच लाख लोग दासबाबू की अन्तिम यात्रा में शामिल हुए थे। उस अन्तिम यात्रा की लंबाई लगभग ढ़ाई मील थी। कुछ वर्ष पूर्व लोकमान्यजी के निधन के बाद हम अनाथ हो चुके थे। आज यह हमें पहुँचा हुआ दूसरा सदमा है, ऐसा गाँधीजी ने इस अन्तिम यात्रा के समय कहा।

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